गणना-पत्रक है समक्ष, तब
क्यूँ सशंकित परिणाम उपलब्ध से
जीवन-स्पंदन एक शनै
प्रक्रिया, लेकिन माप तो होगा कर्म से॥
कर्म-विज्ञान पर बहु-चिंतन
हुआ, हर जीव का भाग्य करते तय
ज्योतिष-बात छोड़ भी दी जाए,
तो क्या मंथन हो सकते विषय?
कहते सब कर्मों का ही फल
होता, हम जो भी हैं प्रारब्ध-स्वरूप
कैसे अन्य- भविष्य जाँचन
सक्षम हैं, जब अपने में ही न सक्षम?
भिन्न भौतिक-मानसिक स्थिति
हैं, प्राणी-जग में कौन निर्धारक
कितने हम स्व-भागी वर्तमान
में, परोक्ष परिस्थिति या परिवेश?
कितना चिंतन वाँछित
स्व-स्थिति हेतु, कितना सुधार संभावित
कितने जन-समूह परिवर्तन में
सक्षम, अतिश्योक्ति अन्य रीत॥
उदाहरण किसी विशेष नर का ही
लें, मानो है अशिक्षित-निर्धन
ऊपर से अपाहिज़, भिक्षुक सम,
मन में नहीं कोई विशेष उमंग।
सदैव भाग्य कोसता,
परम-असंतुष्ट, पाता अपने को बड़ा विवश
कौन कारक उत्तरदायी अवस्था
हेतु या स्वयं में ही बस दोषित॥
एक पशु-प्रवृत्ति ने भंग की
मर्यादा, हुआ तब अवाँछनीय-जन्म
यदि स्वभाविक वैवाहिक बंधन
से है, इसे कहा जाता सामान्य।
एक मनुज का अनेक से संपर्क
संभव, माना सत्य में है सीमित
कितनी ही बार नस्ल-समन्वय,
गुणों का बहुत होता है विस्तार॥
'कहीं की ईंट कहीं का रोड़ा, भानुमति ने कुनबा जोड़ा'-विश्व
सत्य-रूप
कहीं कोई मिल गया व बनी
सृष्टि, या फिर विधाता का है व्यूह।
मानव समूह कहाँ से कहाँ
विस्थापित हैं, भिन्नों से हुआ सम्पर्क
जीव-जंतु स्थान परिवर्तन
करते हैं, बहुत तरह का होता मिलन॥
कितनी प्राकृतिक-कृत्रिम
दुर्घटना- व्याधि करती हैं बहु- हटाव
कितनी ही अकाल-मृत्यु हैं
होती, कितने ही असमय गर्भपात?
कितने जन्में शिशु काल-गर्त
समा जाते, अण्डें लिए जाते ही खा
फल कच्चे तोड़े जाते, बीज़ न
बनता, रुद्ध है अग्रिम संभावना॥
यहाँ तो इसके अनेक कारण हैं,
नहीं तो और भी परोक्ष प्रभाव
जो भी है क्या वह
भाग्य-प्रदत्त या सकारात्मक कारक-समन्वय।
विश्व में अनेक रूप उपलब्ध
हैं, क्या वे सफलों का ही जमावड़ा
जो नहीं वे प्रतिभागी न
बनें, किंचित क्या वर्तमान ने है पछाड़ा?
यहाँ सतत युद्ध है, कुछ
पिछड़-बाहर हो गए, नए आए मैदान में
उन्हें सहयोगी परिस्थिति
मिली, तभी तो अति-सफ़ल हो निकले।
यह क्या खेल स्वतः ही चालित,
या अन्य-संचालित सोचा-समझा
प्रजा का क्या मान लेती ही
सिद्धांत, जो विद्वानों ने दिए हैं बता॥
सूक्ष्म दृष्टि से ज्ञात है
डार्विन का 'सतत प्राकृतिक चयन' सिद्धांत
अब बहु- कारक प्रभाव हैं,
जैसे जलवायु-विकिरण-काल-स्थल।
शनै स्वरूप भी बदलते रहते,
जीव प्रारंभ से बहु-विकसित भिन्न
किंतु सब हैं एक निरंतरता के मिश्रण ही, जुड़े
आपस में अभिन्न॥
मेरा प्रश्न है जो अभी लिख
रहा हूँ, अपने से या दैवी प्रेरणा कुछ
परिस्थिति ने ऐसी प्रेरणा दी
है, या अन्य कारक बहु-महत्त्वपूर्ण?
क्या अन्य आइंस्टीन शक्य है,
यदि न होता अमुक संयोग-जनक
या विलोम कारण होते, अपढ़
रखते, परिवेश निखरण में अक्षम॥
क्या कोई अन्य स्थान ले
सकता, ब्रूसली की जगह और आ पाता
या उसका दैवी चुनाव,
परिस्थितियाँ स्वयमेव करती मिलाप या।
अनेक तरह के मिलन संभव हैं,
यह कारक हटा तो आ गया दूजा
हर मसाले का एक विशेष स्वाद
है, यह खाने पर ही चलता पता॥
इतना बड़ा जीवन रण-स्थल,
जीवित प्राणी तो ही हैं सौभाग्यशाली
परिस्थितियाँ भी विचित्र
हैं, उसकी परवरिश पूर्णतया बदल जाती।
नृप का लड़का राजा बनता,
प्रजा को सिखाए ही सेवक-धर्म पाठ
धनी बहु-माया बटोरें,
समृद्धि न सांझी, अन्यों का छीने अधिकार॥
निर्धन-लाचार निश्चितेव
बाधित, पर उसे बनना होगा मन-साहसी
रुग्ण-अपंग-हतोत्साहितों के
प्रति, जग का कर्त्तव्य है सहानुभूति।
जीवन अनमोल है, सब आदर करें,
व करें चेतना अति-विकसित
अमर फल है तुम्हारे संग, करो
प्रयोग, स्वयं का ही बहु- दायित्व॥
8 अगस्त, 2015 समय 16:31 अपराह्न
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