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Tuesday, 28 July 2015

मेरा सामान

मेरा सामान 


मेरा बहुत कुछ कीमती सामान तुम्हारे पड़ा है निकट

कृपया सूची तो उवाच करो, और रखने का उद्देश्य॥

 

बस थोड़ा सा सामान देकर, तूने इस जगत में भेजा

बहुत कुछ अनिवार्य तो, अपने पास ही रख है लिया

इसमें क्या तेरी मन-मंशा है, क्यों न परिचय कराता?

मेरा अपना कुछ नहीं, जो दत्त है वह भी तो पास तेरे

तू ही जानता कितना महद, अभी मेरी योग्यता में है?

 

देगा किंचित देखकर सामर्थ्य, व प्रगाढ़ मन-आकांक्षा

किंतु अभी तो मात्र खिलौने से ही, जा रहा हूँ बहलाया।

कितना योग्य और ग्राह्य, और कितने हेतु ही हूँ सुपात्र

तूने आँका तो है उचित ही, पर नहीं विदित परिणाम?

 

तू रहस्यमयी, मैं बुद्धि-शून्य, कैसे प्रवेश हो गुफ़ा-अंध

सर्वत्र साँसत, तम-अविवेक, व प्रकाश भी है अदर्शित।

क्या वज़ूद-कैसे हो प्रयोग, नियम तो तूने बताए हैं नहीं

मारा धक्का बिन योग्य किए, यह तो कोई न्याय नहीं॥

 

माना किंचित प्रयास से, किया है स्व को अल्प-शिक्षित

पर महद पूर्ण ज्ञान व अनुभव, मुझसे तो दूर है बहुत।

माना सभी प्रारंभ स्थिति से ही, शुरुआत करते हैं निम्न

तो क्या अमुक का स्तर बढ़ाने का नहीं होता है नियम?

 

योग्य गुरु नज़र न, कोई बताता तो भी समझ अपूर्ण

बस समय बिता लिया, शिष्य को अनाड़ी दिया तज।

शिष्य अज्ञानी-मूढ़, धरा पर बोझ सा, अपने में मस्त

न अधो-स्थिति ज्ञान ही, निज को ढ़ोए जा रहा बस॥

 

कितनी संभावनाऐं ही भरी हैं, तूने इस मानव-शिशु में

कम से कम मुझे उनका, कुछ सुपरिचय तो करा दे।

बहुत दार्शनिकों को मैं विचारता हूँ, पल्ले तो पड़ता न

क्या यह क्रमबद्ध ज्ञानार्जन-पथ है, व सोच-फलीभूत?

 

बहुत प्रबुद्ध तूने भेजे फिर यहाँ, जिन्होंने छाप है छोड़ी

मुझसे क्या शिकायत है मौला, जो तेरी अनुकंपा नहीं।

न ज्ञात वह विश्व स्व-संचालित है या तेरी रहमत-प्रेरणा

पर कुछ तो समझते हैं ये काल-चक्र व भूल-भलैया॥

 

माना बहुत विविधताऐं हैं, सबके मनन-मंतव्यों में उन

तथापि तो उन्होंने सुपरिभाषित करने का किया प्रयत्न।

परन्तु वह भी तो नहीं है, एक संपूर्ण ही ब्रह्म का चिंतन

तो भी पार जाने की जगी एक इच्छा, देती है सामर्थ्य॥

 

स्वार्थ-वृत्ति आरूढ़ है, पर कारक हैं भू-लौकिक स्थिति

नर चाहे मनन-स्थिति में हो, नहीं दूर होती है कुप्रवृत्ति।

रत निज हित साधन को, सर्व-विकास को है तिलांजलि

नियम-कानून अनुरूप हैं, शक्ति-सम्पन्न-प्रभावशाली॥

 

कुछ तो मनीषियों का दर्शन ऐसा है, व अनुचर सहयोग

ऐसी जग-व्यवस्था निर्मित है, जो उनके ही हो अनुरूप।

फिर भी हैं बहुत निःस्वार्थी जन, चिंतन सर्वलोक हिताय

समाहित हैं जिनमें, सबको आगे बढ़ाने के निर्मल भाव॥

 

विश्व में दर्शन की बहु-धाराऐं हैं, परिभाषित निज ढ़ंग से

बना दिए अनेक समूह इन्होंने, कड़ी स्पर्धा अनुचरों में।

हरेक मनुष्य उतावला ही है, मनवाने अपने को सर्वश्रेष्ठ

सत्य आचरण तो देखा नहीं है, व्यर्थ अभिमान-ग्रसित॥

 

क्या यह विश्व संचालित, स्व-चलित या कुछ योग्य-युक्ति

कौन से हैं वे नियम, जो इस जग को नियम-कानून देते

फिर कोई चाहता हो या नहीं, सब चराचर वहीं पर बहें।

पर कितने आदर्श- प्रवाहक, सर्व विश्व-व्यवस्था हेतु यत्न

माना पाशित जकड़नों में, शुद्ध जानते भी रहते भीक॥

 

पर स्व-यश व बस प्रभु-समर्थन से, प्रजा को नहीं लाभ

हम ही योग्य-गर्वित व नृप-भूप हैं, प्रयत्न स्व-हित साधन

अन्य क्षुद्र-तथैव ठीक, जबकि प्रकृति-साधन हैं सर्वहित।

यहाँ `अपनी ढ़फ़ली अपना राग', सब मुग्ध हैं अपनी धुन

चाहे मालूम हो या नहीं, वे जीवन धकाने में हैं पूरे व्यस्त॥

 

पर कुछ नर तो बस निज समूह-उन्नति में ही प्रयासरत

उनके मनीषी, शुभ-चिंतक, बुद्धि-तत्व से देते समर्थन।

क्यों मानूँ वह चिंतक-लेखन, जब वह न है सार्वभौमिक

सारे कायदे जब अपने हित ही में, स्तुति है नाम-निज॥

 

क्या उन जैसा बनना चाहता हूँ या उद्देश्य और महत्तर

या मैं बन सकता सर्व-हितकारी, व आम-जन सेवक।

पर कौन ये दार्शनिक-साध्य हैं, क्या कुछ गुणवत्ता भी

या रहते उसी प्रकार में, जिसमें यथा-स्थिति बहुदा ही॥

 

कितने सुयत्न ही करते, इस जग को सुंदरतर घड़ने में

और परिश्रम से समुचित आत्म-ज्ञान को ही बखानते।

न इच्छा फिर श्लाघा की, न ही अनेक शिष्य बनाने की

जिसे उचित लगे साथ हो ले, फिर सूफियाना तो है यही॥

 

किंतु मैं किस श्रेणी का जन्तु, प्रभु जरा परिचय करा दो

निकाल बाह्य बवाल दिखा सब, मेरी साधना पूर्ण करो।

 क्या- कितना है सम्भव, अनुपम जीवन-स्तर व परमार्थ

 तब क्या वह उच्चतम-स्थिति, जिसके ऊपर नहीं पार॥

 

फिर सीखूँ वे पाठ जो हैं, वर्तमान स्थिति से अग्र-समर्थ

अतः उलाहना प्रथम आरंभ से है, इस रचना में इंगित।

मेरा सब सामान व वस्तु-संभावना तो है, तेरे पड़ी पास

फिर यदि मुझमें कुछ छिपा भी तो, इससे मैं अंजान॥

 

अतः तुमसे अनुनय है, कि मेरा वह सामान लौटा ही दो

माना सब कुछ तेरा ही, कुछ प्रयोग चाहता मैं भी तो।

क्या हदें हैं मेरी, मैं भी तो जानूँ, व कितना तू सकता दे

एक बावरा बना रख दिया, यह तो अन्याय संतान से॥

 

विचरूँ यहाँ-वहाँ एक विमूढ़ सम, न कभी ध्यान लगा

करता है कड़ी मदद-प्रतीक्षा, पर तुम्हें समय न मिला।

मेरा अध्ययन कुछ बताता है, परंतु चिंतन तो अलग ही

अधिकांश समझ न आता है, अतः विस्तार सीमित ही॥

 

अति-फैलाव पर मेरा आँचल-लघु व सामंजस्य-अभाव

फिर कैसे विकास हो, इस परम तत्व को दो प्रयास?

समय सीमा है व ऊर्जा परिमाणित, उसपर चेष्टाभाव

कैसे बदलाव हो सार्थक दिशा, इसकी कोई दृष्टि न॥

 

चाहता बढ़ूँ एक चिंतन-मार्ग प्रभु, बुद्धि निर्मल दे बना

न बनने देना बस स्वार्थी, यह जगत और सम बनाना।

कर्त्तव्य-चिंतन व श्रम-आहुति, हर मानव को दक्ष बना

तज सब विरोध, हो सर्व-विकास, श्रेष्ठ सहयोगी बना॥

 

मेरे विवेक भी हो कुछ उपयोग यहाँ, ऐसा शख़्स बना

न रुकूँ पथ में मौला, इस भौतिक तन से आगे है जाना।

तपा दूँ यह तन-मन, बना राहुल सांकृत्यायन सा यात्री

वृतांत इंगित एक महद प्रयास, वह स्तुत्य है निश्चय ही॥

 

 

न बस अनुभव किंतु मृदु-चिंतन, व आलोचना अभय

नज़रें पैनी, भाव सर्व-हितैषी है, बाँटा विस्तृत-अर्जित।

क्या है उचित चिंतन-प्रेरणा, कुछ निर्भीक हो सकूँगा

होगा प्रयास कुछ में तो, जीवन में महत्तर फूँकने का?

 

माना पूर्व ही समर्थों को, न हो खास आवश्यकता तव

तो भी क्षीण नर बहुतेरे, विकास का ताक रहे हैं मुख॥

  

पवन कुमार,
28 जुलाई, 2015 समय 23:54 म० रा० 
(मेरी डायरी दि० 28 जून, 2014 समय 10:25 से )

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