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Wednesday, 1 July 2015

शब्द-रचनावली

शब्द-रचनावली 
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एक शब्द पकड़ लो, जीवन भर लो, तब ब्रह्मांड समाना संभव

फिर ज्ञान-चेष्टा तो होनी ही चाहिए, अनुपम तो निकला स्वयं॥

 

एक शब्द दिया, मन्त्र बता दिया, उसमें संभव व्याख्या कर लो

एक नाम सुमर, ध्यान में लो, जीवन की काया- कल्प कर लो।

एक बिंदु दिया, नज़र गड़ाओ, सकल समक्ष ऊर्जा वहाँ समा दो

संपूर्णता भी दिख सकती है वहाँ, यदि ज्ञान-बिंदु इंगित कर लो॥

 

योग, कुंग-फू, टाइको-वेण्डो, मार्शल-आर्ट, सिखाए शक्ति-केंद्र

जब सारा बल एक जगह होगा, निश्चित ही निपीड होगा अधिक।

दबाव से वस्तुऐं हिला करती, बदलती स्वरूप-अंदर तक कंपन

भू-गर्भ की ऊष्मा, लावा बहिर्गम, रूप दिखाता स्व का प्रचण्ड॥

 

बहुत सुसुप्त अवस्था में हो, किसी को क्या पड़ी बल आजमाऐ

तुम कुंभकर्ण- निद्रा शयनित, वहाँ कर्मठ कलाकर्मी कृति रचें।

जिन्होंने सुसंचित किया है आत्म, उनका निखरा मानस सुभीता

यह ऊर्जा-संग्रह एवं उचित प्रयोग, निश्चित ही देता उपयोगिता॥

 

किया मस्तिष्क एकाग्र तो, चिन्तन की सुरमयी लड़ियाँ फूटेंगी

निकलेगा उन पलों से सर्वोत्तम, समस्त जीवन की जो कसौटी।

हमें याद रहते सुघड़ता से बिताए पल, वे ही अपनी जमा-पूँजी

इस विवेक से प्रज्ञा पनपेगी, सुचित्र बनेगा अनुपम, विरल ही॥

 

एक शब्द से पुराण-ग्रंथ लिख दिए, ज्ञानीजन निकाले अनेक अर्थ

सब अपनी तरह से करे हैं परिभाषित, बहु-गूढ़ लिए हुए भावार्थ।

इतना तो उस शब्द-कर्ता ने भी न सोचा था, महद बनेंगे अध्याय

मेलकॉम ग्लैडवेल की 'द टिप्पिंग प्वायंट' सा, जब चीजें होती हैं वायरल॥

 

ईश्वर-ब्रह्म, अल्लाह-जीसस, बुद्ध-नानक-कबीर सब विचारोत्पत्ति

आज सबको ज्ञात, सर्व-प्रचलित हैं, वे अंग बन गए हमारी जिंदगी।

ये मंदिर-मस्जिद, किले विद्यालय, भवन-संसद, बस सोच की देन

वह न होता तो ये भी न होते, हो सकता बदले में कुछ अन्य लेन॥

 

जितने अविष्कार-अन्वेषण हुऐं, सबका आदि एक अल्प विचार

जुड़ाव होता गया मस्तिष्क-बिंदुओं का, प्रगति हुई पूर्ण आदाय।

कहाँ से बनते सब महाकाव्य-ग्रन्थ, आकाश- पाताल छेदन यन्त्र

कौन समर्थ उन्हें व्यापक सोच पाता, बढ़ाता है प्रयास अनवरत?

 

कैसे ये विचार सार्वजनिक हो जाते हैं, व चलते दीर्घ-समय तक

कैसे नव-तकनीक आती रहती हैं, व सदा बदलती रहें पुरातन?

कैसे सूक्ष्म रूप बरमट-बीज़, बन जाता है विशालकाय वट-वृक्ष

कितनी प्रक्रिया- सामग्री विकास हेतु, महत्त्वपूर्ण है आत्म पक्ष॥

 

ये कौन चमत्कारी बदलाव के, जो किंचित प्राकृतिक से पृथक

विचार-मंथन से नर समृद्ध हुआ, उसने ही प्रयोग किए हैं सब।

माना प्रकृति में जीव-जन्तु, वनस्पति, निर्जीव सब ही हैं सक्रिय

वे भी कारक जगत-स्वरूप बदलाव में, और भूमिका है महद॥

 

हम जानते मानवेतर जीव-जगत को भी, प्रकृति-प्रदत्त मस्तिष्क

वे करते प्रयोग स्व-योग्यता अनुरूप, सब भाँति क्रियाऐं उपलब्ध।

जंगल जाओ, देखो जीव-जंतु समन्वय, भोजन-श्रृंखला हेतु संघर्ष

आपसी क्रीड़ा-दुलार-परिवार बनाते हैं, दूजों से एक खास संबंध॥

 

औजार-यंत्र, बिल-गुफ़ा-खोखर, कोटर-नीड़ निर्माण है समझदारी

तुम्हें  कोई जीव तुच्छ न लगेगा, यदि उसकी पूर्ण क्रिया निहार ली।

एक वृक्ष का भोजन- तंत्र समझने में ही, पूर्ण जीवन बीत है सकता

नर स्व-देह तंत्र तो पूर्ण समझ न पाया, खुद को है धीमान कहता॥

 

प्रकृति में निर्जीव भी जो अचर दिखता, इतना तो निश्चल न होता

समस्त प्रक्रिया उस पर चलती रहती, सूक्ष्म रूप से बदले सदा।

नर समझता अजीव है, पर उनके अंतः-बहिः कितने जीव पनपते

समझो- देखो नृत्य पर्वत-नदी, मेघ-भूमि, वायुमंडल व भूगर्भ के॥

 

कथित १०००० वर्ष मानव-सभ्यता युग, पूर्व भी जगत रहा था चल

बहु बड़े जीव-वनस्पति, जलवायु, गुजरें काल-धरा के वक्ष-स्थल।

सर्वदा युक्ति-बुद्धि का खेल धरा पर, इसके जन्म-काल से चलन

नर जुड़ा अति पश्चात सब तंत्र में, प्रकृति से किए हैं प्रयोग पृथक॥

 

क्या कहें वर्तमान-स्वरूप को, स्वतः या विशेष कारक-प्रयोग

अगर वे तब भिन्न होते, तो क्या जुदा होता वर्तमान ही स्वरूप?

क्या कारक बनने-बनाने की प्रक्रिया विचारित, या स्व-चालित

क्या अन्य संभावना थी भिन्नता की, व फिर कैसा होता प्रारूप?

 

नर ने कुछ बुद्धि-युक्ति लगाकर, निज संख्या तो वृद्धि कर ली

सर्व प्राकृत-संसाधन अधिकृत, मानो और कोई न सुत-पृथ्वी।

सागर-पहाड़, सरिता-ताल, अरण्य-बीहड़ हटाने का है प्रयत्न

अनेकानेक बदलाव भू पर मौलिक स्वरूप से, इस दौर मध्य॥

 

प्राकृतिक परिवेश- शैली त्याग, किंचित नूतन समृद्धि कर ली

नर लुब्ध-प्रवृत्ति अति- मारक, अन्य-जीवन का प्रगमन सोची।

माना मुख से न भी कहता है, पर क्या वर्तमान परिवर्तन-दिशा

मैं प्रज्ञ-सबल-समृद्ध- कालजयी, जैसे चाहूँ-करूँ, मूढ़-धृष्टता॥

 

कुछ औजार, अस्त्र-शस्त्र पकड़ें, चढ़ बैठा माँ को करने रंजित

यदि माता अपढ़ व पुत्र शिक्षित, तो भी क्या बर्ताव सर्व-सम्मत।

हम नितांत कृतघ्न, जीव-विरोधी, खाऐं-गुर्राऐं व करें महा-विनाश

न कुछ सत्य ज्ञान सृष्टि-जनक का, फिर कुबुद्धि से जन्मे संताप॥

 

मानना तो पड़ेगा कि मानव चतुर, समस्त चेष्टा में स्वार्थ-पूरित

खेत, घर-ऑफिस, सड़क-फैक्ट्री बनाऐं, सबका छीना है हक़।

अब भी प्रयास है पूर्ण शेष-अतिक्रमण, विकास तरह से अपनी

तरु-पादप, जीव-जंतु विलुप्त नित, पर किसे चिंता है इनकी?

 

यदि यह न तो वह भी न होता, उसके बदले में कुछ और होता

पर इतना अवश्य वर्तमान तब आज जैसा बिल्कुल भी न होता।

यदि मनुष्य बुद्धि निर्मल कर ले, अनेक जीवों का निर्वाह संभव

उसके शिक्षित-समृद्ध होने का आशय, अन्यों का न है पराभव॥

 

आरंभिक मनन 'एक शब्द' से शुरू था, जो एक विचारोत्पत्ति

उसकी जगह कुछ और विषय होता, अद्य-बोध होता अन्य ही।

क्या संभावना थी जो आज लिखा है, फिर कभी फलीभूत होता

ऐसे ही कितने प्रयोग संभव, नर सोचता कुछ था कर सकता॥

 

मम प्रस्तुत भी कुछ विशेष पल-एकत्रण, लेखनी माध्यम-इंगित

सब विद्वद्जन निज को अपूर्ण कहते, ज्ञात है न पूर्ण-विकसित।

काल-रूप कैसे उजागर ही करेगा, कुछ भी कहा न जा सकता

पर किंचित हमारा न्यूनतम मनन-प्रयास, भरता एक संभावना॥

 

यह शब्द-मनन क्यों कैसे जन्मता, सत्य या मात्र मन-कल्पना

जितने डूबें, उतने ही उलझें, कोई प्रहेलिका- निदान न मिला।

क्या अंकुर भू-क्षिप्त करते समय, वृक्ष की है स्व-रूप कामना

या फल-संतति नैसर्गिक प्रक्रिया, किसका क्या होगा- न पता॥

 

जीव का धरा-आगमन व सुचारू जीवन, है अति- संघर्ष विषय

उस अमुक जीव से क्या-२ उपजेगा, और भी जटिल है जिरह।

अन्यों की क्या कहें आत्म अंतः भी, बुद्धि सक्षम है विविध रंग

फिर अंदर-बाहर सब एक से, पर संभावनाएँ निश्चित ही अनंत॥

 

हम भी हैं एक शब्द के स्वर-व्यंजन-अनुस्वार, विसर्ग-उपसर्ग

कितनी शक्यता महद रचने की, ज्ञान असाध्य न तो ही दुर्लभ।

विश्रुत इस मनन-यज्ञ में आहूति, चेष्टा उत्कृष्ट निर्माण हेतु करें

प्राण-गति निज प्रकार से, कुछ हटकर समझने का प्रयत्न करें॥

 

एक शब्द नहीं है तोता-रट्टा, अपितु संवाद महद व सदा संग

ज्ञान ज्योति और प्रखर हो जाती, चीर डालती अन्तःकक्ष तम।

गुरु मंत्र तो कुछ भी नहीं है पर, मनन युक्ति बढ़ाए संभावना

जब तक न बैठो अमृत न निर्गम, सब मिश्रित सा है अन्यथा॥

 

चाह नहीं किसी विशेष शब्द की, पर हों प्रयोग विवेक से सब

जितना भी मनन-लेखन जीवन में संभव, हों सब चेष्टा एकत्र॥



पवन कुमार,
1 जुलाई, 2015 समय 18:56 सायं
(मेरी डायरी दि० 12 अप्रैल, 2015 समय 12:58 अपराह्न से) 

3 comments:

  1. Madanlal Sharma : अति प्रेरणादायक कविता, उत्साह संचरण ।

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  2. Madanlal Sharma : लाजवाब ।


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  3. Er Sp Jha :बेहतरीन, बेमिसाल प्रस्तुति श्रीमान्

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