विघ्नेश्वर, दुःख-भंजक,
कष्ट-हर्ता, दीनदयाला, गुरु, मसीहा
पालक, उत्प्रेरक, अवतार,
सहायक, मित्र व संबल-दीना॥
कष्ट हमारे नित के अनुभव,
दुःख होता जब क्षीण है शक्ति
आकस्मिक कुछ बवाल आ जाता है,
अज्ञात कैसे हो मुक्ति?
माना सदैव तो सब पहलूओं हेतु
तैयारी नहीं की जा सकती
पर आवश्यकता होने पर,
सचेतता-आशा की जा सकती॥
समस्या महद है, स्व-बल अल्प,
परमुखापेक्षी बन हल ढूँढ़े
विशेषज्ञ बैठे सहायतार्थ, बस
सम्पर्क और शुल्क ही सूझे।
सभी कहीं न कहीं बाधित हैं,
बहुदा अन्य ही बनते सहाय
बड़ा कारक-निदान, बुद्धि
माँगे हैं समय-ऊर्जा व उपाय॥
दिन-प्रतिदिन रोधक लेते हैं
परीक्षा, झझकोरते कि हो क्या
न अतिश्योक्ति या
आत्म-मुग्धता, जग चैन न लेने है देता।
तमाम झँझट ऊर्जा माँगते, बली
होना है आवश्यक कदम
एक-२ श्वास शक्ति पर निर्भर
है, अतः चेष्टा ही अत्युत्तम॥
हम कितने दूजों पर निर्भर,
समय आने पर ही ज्ञात होता
हर समस्या का पेंच, निदान
उचित दिशा -निर्देश माँगता।
लोगों के पास जाओ, पक्ष बताओ
तो किञ्चित बात बनेगी
जग न माने मात्र पैरवी, वहाँ
आपकी प्रतिबद्धता दिखेगी॥
उलझ जाते, राह न दिखे,
चेष्टा खोखली, बली भी बने क्षीण
बन्द द्वार, अंध-कक्ष, भय
आक्रान्ता का, जन्म-मरण प्रश्न।
ऐसे में कोई ईश्वर-सहायक को
ध्याऐ, इसमें क्या आश्चर्य है
मान लो एक-दूजे की आवश्यकता
है, कभी तुम्हें या हमें॥
क्या अस्तित्व, स्व-अवलोकन व
पर-सहायता आवश्यक
बड़ी शक्ति, निदान कठिन, बस
स्व-बल से नहीं सम्भव।
बहुदा नरों से याचना न संभव,
या उनके बस में न लगता
क्यों न माँगे बड़े दाता से,
जो सब सुने या हम देते सुना॥
वह तो हम मूक आत्मा की गूँज,
रो लेते हैं कम से कम
उससे जी हल्का हो जाता, होश
आने लगता रोष -बाद।
चिंतक-मन संभावना समक्ष
लाता, प्रस्तुत हो विमल-यश
बुद्धि सब दिशा हाथ-पैर
मारे, समाधानार्थ प्रयास करत॥
ईश्वर तो स्व-अबलता प्रतीक
न, माना चाहे जब हैं कष्ट में
देखते उस तरफ मुँह उठाकर,
क्षीणता को समक्ष रखते।
ज्ञात तो न कितना है समाधान,
स्व-चेष्टा ही लाती कुछ रंग
जीवन दाँव पर कुछ करना
पड़ेगा, साँस सस्ते में न छूटत॥
दिगंबर सब दिशा-त्राटक है,
स्व-अनुभूति समस्त से युग्म
न संकुचित वह मात्र
स्वार्थों में, वृहत से आत्मसात-संगम।
सब उपाय उपलब्ध हैं निकट,
जरूरत जाँचने- साधने की
विश्व तो परमानुभूति में ही
व्यस्त, समस्या है तो निदान भी॥
'एक बीमारी की दारू दो
बतलाई, दो की चार हैं दवाई,
दोनों हाथ पकड़ लिए कसकर, कुछ
भी न पार बसाई'
विपत्ति हर जीव पर आती,
श्रद्धा से कुछ समाधान-सच्चाई।
राम पर विपत्ति लक्ष्मण
मूर्छित है, हनुमान सहाय लाए बूटी
पांडव-दुर्दिन, कृष्ण सुहृद,
अर्जुन को गीता त्राणार्थ सुनाई॥
हम बन्दें पहचानते शनै, रंग
बद होने पर भी करते विश्वास
कुछ असाधु लेते विवशता-लाभ,
हम रह जाते लोक-लाज।
जगत विश्वास बल पर चलता, कुछ
तो निस्संदेह हैं समझते
हम अंतः से कितने पवित्र हैं, पैमाना इसका
व्यवहार ही है॥
सुख में समझते स्व को
श्रेष्ठ, किंचित ईश्वर को भी ललकार
माना वह भी एक कल्पना है,
समाधान तो सदा आस-पास।
चित्रांकन होता नेत्र खुलने
से ही, प्रेरणा लेना दूर-विस्तृत से
दिग्गज विस्मित करते बल से,
छोड़ो-निकलो झंझावतों से॥
बनो सबल, वाणी- नियंता,
संपर्क साधो, कोई काम आएगा
आज उन्हें, कल तुम्हें, सबको
ही औकात होनी चाहिए पता।
परस्पर-हितैषी, समय-सहाय,
मैं तुम्हें बीज़, वह देती फसल
अपेक्षा-मान, कभी सामना
दुर्भावना से, पलायन तो शुभ न॥
18 जुलाई, 2015 सायं 18:19
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