अपनी मन की गहराईयाँ मापना
चाहता हूँ
खुद को आत्म के समीप लाना
चाहता हूँ॥
यहाँ मेरी परिधि है क्या, और
क्या विस्तार
अंदर क्या सार ही है, और
क्या बहु प्रभाव?
क्या-क्यों-कैसे-कब-कहाँ, व
कौन मैं नर हूँ
यही प्रश्न बारंबार मन को
घेरा करता है यूँ॥
अंतः किंचित गया तो, बाहर सब
गया हूँ भूल
एक विभ्रम की स्थिति सी,
अंदर हूँ या बाहर?
मन की प्राण-शक्ति भी, कोई न
देती परिचय
क्यों न औरों भाँति,
अति-श्योक्ति ही दूँ कर॥
जब सब संज्ञा-शून्य हैं, और
मैं भी हूँ निस्पंद
आत्म-ज्ञान तो न, और भी क्या
होंगे अधिक?
फिर वे मेरी बड़ी
प्राथमिकताऐं भी तो नहीं हैं
बस जड़ें ही अपने में, पूरा
समाना चाहती हैं॥
जीवन दिया है रब ने,
उद्देश्य भी जानता होगा
पर लगता कर्त्तव्य-क्षेत्र,
कुछ ज्यादा ही बड़ा।
वह उचित भी, और मुझे निर्वाह
करना चाहिए
पूरी शक्ति लगा, कुछ उचित
जानना चाहिए॥
लोग समझाते, कुछ अधिक
अवाँछित करना
मुझको सुस्त बना, उल्लू सीधा
चाहते किया।
शायद उनकी अकर्मण्यता -सोच
है वही तक
पर मुझे निज कर्त्तव्य-पथ
से, न होना विमूढ़॥
मेरे मन-अंदर ही,
बहु-व्यापकता है विद्यमान
वे हैं, मेरी विविधताऐं-बल
एवं विभिन्न स्वरूप।
उनसे अवगत हो, व मन-प्रकट
करना चाहता
किंतु कुछ तो है जो रूबरू होने से रोक लेता॥
मेरा किसी अन्य से वास्ता न
हो, ऐसी नहीं बात
पर शायद निज से निकलने का
समय मिला न।
विधाता ने भी, कोई बहुत
बहिर्मुखी नहीं बनाया
किंचित अतएव मेरी बाह्य की
पकड़ न ज्यादा॥
कोशिश करता, बाहर को यथासंभव
महत्तम दूँ
अपनी जिम्मेवारियों का बोझ
अन्यों पर न डालूँ।
प्रयास-निष्ठा तो, फिर अन्य
ही करेंगे मूल्यांकन
पर बेड़ी पड़े बाज सम, बल का
ज्ञान नहीं निज॥
बहुत कुछ जगत में चहुँ ओर,
किंतु मैं अधूरा
पढ़-लिख भी कुछ, निज को
अत्यल्प हूँ पाता।
अभी कुछ उत्तम लेख-कविता ही
न कर पाया
न अपना स्वरूप-दर्शन ही कभी
कर हूँ पाया॥
ये मेरी कोशिशें क्या-कैसी-कितनी
हैं समुचित
या इसमें और भी, सामग्री-दान
है आवश्यक।
इस जीवन-यज्ञ में मेरी क्या
भूमिका है चिन्हित
याज्ञिक जानता होगा, जिसने
किया है प्रेषित॥
मैं आना चाहूँ स्व-निकट,
ताकि मित्रता हो गूढ़
दूरियाँ सिमट जाऐं, खुद का
कर सकूँ स्पंदन।
विधि तकाज़ा भी, स्वयं-सिद्धि
ओर चला जाऊँ
शीघ्रता से आत्म-परिचय
सुनिश्चित ही कर लूँ॥
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