चल दे मेरी ऐ प्रिय कलम, कुछ
राह तू आगे तो
वरना लगता, यह मस्तिष्क लगभग
गया है सो॥
तुम बिन इस एकाकी वेला में,
कितना अधूरा मैं
नयनों में नींद, देह में
थकान, हाथ में ठहराव है।
सर्द-रात, रजाई का साथ,
किंतु पैर हैं ठंडे अभी
तथापि मन चाहता है, कुछ कदम
चल जाऊँ ही॥
न ही शब्द, न सुर-संगीत, न
ही कोई चाह महद
चेतना-अभाव,
अज्ञानता-साम्राज्य, व मैं निस्पंद।
बहुत विकट है स्थिति, पर कुछ
भी तो न सवेंदन
दिवस-कुशलता, परिश्रम-ज्ञान,
सर्वस्व नदारद॥
फिर वह क्या मुझमें, जो अभी
तक न है मानता
और जो मुझको प्रायः ही
निर्जीव बनाना चाहता।
आखिर क्या भला चाहे वह
मुझसे, व हैं अपेक्षाऐं
किंचित उस के मन में कोई
अन्यथा ही लक्ष्य है॥
फिर उस परम-कर्ता के, हाथ की
हूँ कठपुतली
वह जैसा जहाँ चलाना चाहता,
चलना पड़ेगा ही।
यहाँ अपने या पराये के विवेक
की बात न कहीं
जब गुरु सु-सक्षम तो, आज्ञा
मानने में है भलाई॥
फिर मैं तो विधि-हाथों की
कृति व यहाँ हूँ प्रेषित
निश्चित ही उसके मन में तो,
योजना होगी कुछ।
सच में उसका है मुझसे,
आशीर्वाद-स्नेह अतिशय
तभी वह मुझ निष्ठुर पर भी
कृपा रखता है निज॥
जब माँ सरस्वती की, अनुकंपा
ही होगी मुझ पर
तो घन अंधेरे में भी उठकर,
सीधा जाऊँगा बैठ।
मन-तरंगें उठेंगी फिर घोर
जिज्ञासा-आकांक्षा की
और मैं भी श्रेणी में आ
जाऊँगा, प्रसाद-पात्रों की॥
दिवस कांति व
निशा-निस्बद्धता हैं, दिशा-सहाय
तब सुबुद्धि, मेरी
आत्मा-उज्ज्वल जाऐगी ही कर।
वीणा का सुमधुर-संगीत, मेरे
कर्णों में सुनाई देगा
सर्वोत्तम कला-साहित्य का
सर्वदा ही संग होगा॥
फिर मैं ही क्या, सर्वस्व
तन-मन तो उठेगा महक
विश्व में फैलेगी,
भीनी-खुशबू का अहसास सर्वत्र।
मैं उनका व सब वो मेरे, कोई
फासला ना रहेगा
जगत में चहुँ तरफ, बस मेरा
ही अपनापन होगा॥
तब जमेगी सुर-ताल, संगीत की
रोचक महफ़िल
फिर शायद, कुछ तुकबंदी करने
में हूँगा सक्षम।
होगा मधुर संगीत-नाद,
श्रेष्ठ अनुभव रोम से हर
निज कर्त्तव्यों में, मैं
तनिक भी न हूँगा लापरवाह॥
हे माँ, चाहूँ तेरी कृपा, एक
विश्व-पुरुष निर्माणार्थ
इसमें थोड़ा स्वार्थ है,
किंतु नहीं तो पूरा लालच।
जानता कि योग्य बना, प्रसन्न
अवश्यमेव तुम भी
सब माँ-बाप, संतति बनाना ही
चाहें बड़ी अच्छी॥
फिर शायद यहाँ, क्षुद्र
जीवन-उपस्थिति से इस
जग-कल्याण की आशा-अनुभूत हो
एक उत्तम॥
धन्यवाद माँ, अनुकंपा करना
शिशु पर
बहुत तड़पता हूँ तेरी करुणा
के लिए॥
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