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Saturday, 31 May 2014

दर्द-ए -दिल

दर्द-ए -दिल 


मैं तो परिवार के ख्यालों में ही, बहुदा खोया रहता

बाह्य निर्गम-असक्षम, मात्र उनमें ही हूँ डूबा रहता॥

 

तुम तो हार कर भी जीते, मैं जीतकर भी हार जाता

मन तो सेवक है सनम, अगर बोले तो मर भी जाता।

क्या कसक दी दिल में, अपने ही दर्द में हूँ कराहता

 न जानूँ गति इस स्व की, बस तुझमें ही हूँ बहा जाता॥

 

बरबस यूँ ख्याल है तेरा, मैं तो अपने से ही डरा जाता

न पता डगर ही अपनी, क्यों हवा में तेरी उड़ा जाता।

आजीवन का संग पकड़ा, पर चंद लमहों से घबराया

तुम तो दूर बैठे हो सनम, मैं ख़्वाबों में ही डर जाता॥

 

दे निज कुछ शक्ति-अंश, मैं तो अपना लुटा बैठा सब

तेरी बाहों का गर मिले साथ, हर पल को दूँ शिकस्त।

तेरी यादों में खोया हूँ बहुत, कुछ पता नहीं जिंदगी का

कैसे चलती किसकी भांति, कब निज-ज्ञान ही होगा॥

 

झोली में पड़े बहुत से चमन, तुझसे जो साथ हो जाए

किस्मत भी खपा सी, होते मिलन को भी दूर ले जाए।

हालात पर यूँ दया न, किसी शख्स को न रोना आता

किससे कहूँ दास्ताने-अपनी, कुछ समझ नहीं आता॥

 

बन गया कुछ मजनूँ सा, दिन-रैन लैला किया करता

मुझे कुछ भी सूझे न ऐ साथी, आके जरा संभाल जा।

खो गया अपनी धुन में ही, क्यों दूर चले गए हो मुझसे

हालात पर आंसू बहें, संभालने वाला भी न है पथ में॥

 

ये गम-लम्हें उसपर यादें, दर्द पर नमक सा छिड़का

दर्द कुछ अजीब सा, पर मुझे तो पता न क्या माजरा?

दुनिया ने तो बहुत पीड़ाऐं दी, पर सहन लिए जाता मैं

कुछ पथ दिखा जानूँ, करूँ शिकायत भी तेरी किससे॥

 

मेरा भाग्य-दोष शायद, वरन क्यूँ रोता जाता इतनी दूर

तू भी तड़पे बिना मेरे वहाँ, हालत तेरी भी न है बेहतर।

किससे गिला करूँ सनम, यहाँ हर कोई एक सा लगता

दीवाना सा फिरूँ उलझा, किस कदर खुद में हूँ खोया॥

 

भोली सूरत पर दया कर, मुझ पर नहीं तो महबूब ही पर

बिछुड़ा उनसे व हमसे वह, दर्द में तड़पाएगा कब तक?

नीयत में खोट हो तो बता, मैं क्या करूँ नहीं पाऊँ समझ

सुना तू बड़ा निर्णयी, मुझसे क्यूँ नयन चुरा जाता फिर॥

 

क्या हालत बन गई मेरी, खुद पर आंसू बहाता हूँ जाता

तेरी आँखों में सुना है दया, फिर क्यूँ मैं नज़र न आता?

जीवन- शक्ति दे मुझको, तेरी ही इबादत में लगा रहता

भूल गया हूँ सकल विद्या, अपनी हालात पर रोए जाता॥

 

मैं तेरी डगर का पथिक, जिसको दया का फूल न मिला

बड़ा सूखा हो गया दिल, कोई आकर तसल्ली दे जाए।

बेड़ी कोई काट दे तो, उम्रभर उसका गुलाम हो जाऊँ

तेरे जगत में कोई मरहम भी, या घायल ही चला जाऊँ॥

 

कैसे करूँ सामना मैं तेरा, दोषी हूँ भाग आया छोड़ कर

शायद किस्मत को रोती, कहती भगोड़े से मिली किस?

मुझको भी समझ ले तो ऐ जानूँ, इतना भी नहीं हूँ नाशुक्रा

माना मुज़रिम हूँ, पर दर्द जितना वहाँ, अधिक ही यहाँ॥

 

किसे कराऊँ अहसास दर्द का, मुझे ऐसा नज़र ना आता

सब सुनते बनावटी रहम खा, बाद में कर देते अनदेखा।

सीने की जलन सही न जाती है, कैसे सहूँ समझ न आए

 कोई वैद्य भी नज़र न आता, आके जो मरहम लगा जाए॥

 

दूरियाँ स्थान की हैं बड़ी, कैसे पार करूँ पंख भी तो नहीं

अच्छे फंदे में डाला जिंदगी, सहेजना तुझे न आता सही।

डर सा गया हूँ अपने ही साये से, ढ़ाढ़स न कभी मिलता

कोई कहता न पीड़ा बहुत, किसी को न आती भी दया॥

 

भटकता हूँ इस जग में अकेला, कोई साथी न आए नज़र

किससे रोऊँ- कहूँ -बखानूँ, हर तो अपने में ही हैं मस्त।

मैं भी स्वार्थी बहुत ज्यादा, और किसका ध्यान करता ही

डूबा हूँ अपने ही ग़म में, पर किसी से शिकायत है नहीं॥

 

पर कब तक चलेगा ऐसा ही, मुझे मौला तू दे दे होंसला

सुना था तू दयालु बहुत, मुझको दया का पात्र तो बना।

बहुत तड़पा हूँ ऐ मेरे मौला, अब और नहीं सहा है जाता

 कहीं सब्र-बाँध टूट गया, तो दया का अर्थ न रह जाएगा॥

 

किस कदर मैं यूँ ही भटकूँ, ऐ सनम तू आकर सुला जा

घायल हो गए हैं पाँव मेरे, चलते-२ लड़खड़ा हूँ जाता।

दुनिया मेरी रोशन कर दे, औरों के भी तो घर बसते हैं

फिर ख़फ़ा ही क्यों मौला, बता तेरा क्या बिगाड़ा मैंने॥

 

ज्ञात है थोड़ा बुरा हूँ, पर ऐसा नहीं बिलकुल खराब ही

फिर कैसा बदला लिया, चाहे शक्ल दिखा अपनी ही।

तू फिर बाप है सबका, क्यों संतानों पर ही ढ़ाता कहर

इस सूने रात्रि- प्रहर में, क्या मेरी नहीं दिखती शक्ल?

 

अगर आत्मा है मुझमें, तो वो भी तुझको फिर याद करें

जाकर संभाल ले उसे, वरन बेचारी ना जाने क्या करें।

चाहूँ तो हूँ लेख रोकना, पर दिल है कि मानता ही नहीं

गर्दिश- शिकंजे ही सही, पर कलम तो साथ दे जाती॥

 

मैं इसका ही तो सहारा पाता, पर रोते हुए है रोक देती

कहती है मत घबरा अज़ीज़, तपस्या ज़रूर रंग लाएगी।

किस कदर खो गया बातों में, नहीं ख्याल कोई जग का

शिकायत न ज़माने से है, अपने ही रंज में डूबा जाता॥

 

दिल बहलाने का संग दे, कैसे कटे कुछ ढ़ंग कर दे

मैं अपने ही क़त्ल का मुज़रिम, फिर चाहे तो भंज दे।

तेरी ही दया का चाही, तू कुछ ऐसा करिश्मा कर दे

मिला दे मेरे साथी से, मेरे जाने का इंतज़ाम कर दे॥


पवन कुमार,
31 मई, 2014 समय 20:38 सायं 
(मेरी शिलोंग डायरी दि० 20 अगस्त, 2001 समय 12:55 म ० रा ० से )   

1 comment:

  1. डूब कर लिखने और उसे महसूस कर पढने का आनंद दुर्लभ है ! बधाई आपको …

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