आँखों में शयन हेतु, निद्रा
पूरी तरह से है छाई
तथापि गहन मन-इच्छा, कुछ लिख
डालूँ ही॥
दरअसल अभी लाइट बंद ही करने
वाला था
कि अंतः-तमस ने अनायास ही है
जगा दिया।
जीवन कैसे बीत रहा है, मालूम
पड़ता न कुछ
सुबह-शाम के चक्कर में, बीत
रही यह उम्र॥
ऑफिस से घर या उल्टा,
जीवन-सफ़र दर्शित
इस जिंदगी का कुछ अर्थ भी,
कोई नहीं सुध।
या तो ऑफिस- कार्य करता, या
कुछ हूँ पढ़ता
कुछ बैठ-सोचकर भी लेखन समय न
हूँ पाता॥
फिर मैं क्या करूँ, बस
किंकर्त्तव्य-विमूढ़ हूँ सा
प्राण-मंज़िल पहचान में निज
असमर्थ सा पाता।
दूजों द्वारा विषय न समझने
पर, खीज़ सी होती
पर क्या मैं इस स्वयं को ही,
समझ पाया कभी॥
क्यों छोटी बातों पर, अपना
मन दुःखी करते हो
कुछ अपूर्ण- आशाओं हेतु,
क्यों छटपटाते हो?
जीवन ऐसे न वरदान, व्यर्थ-
शोक में ही बिताऐं
कुछ क्षण निश्चितेव,
आनंद-सुख के भी चाहिए॥
बुद्ध-सिद्धान्त है, कि
दुःखों का कारण ही इच्छा
आत्म-नियंत्रण करो,
व्यर्थ-शोक में दिल न दुखा।
सुखी होओगे तब, जब मन अंतः
से होगा निर्मल
तब खुद को समझोगे, दूजों को
भी दोगे आदर॥
उषा का विचार आता, तो जाता
है मन अति-क्षुब्ध
कितनी घबराई सी लगती है, वह
टेलीफोन पर।
जैसे तो अभी रो ही देगी, और
मैं बस हूँ समझाता
कि ऐसा भी कभी होता है, ऐसा
न चाहिए करना
फिर परिस्थिति जैसी भी हों,
हमें करना सामना॥
दोनों स्थानों के मध्य दूरी
भी, तो बहुत अधिक है
और हमारा परिवार भी तो, बड़ा
छोटा सा ही है।
मात्र दो ही अन्य प्राणीजन
हैं, मेरे यहाँ के सिवाय
क्या मेरी अनुपस्थिति,
उन्हें नहीं करेगी व्याकुल?
फिर कोई रास्ता भी न, समय
बिताना ही पड़ेगा
सिर पर जब बला पड़ी है, तो
बजाना ही पड़ता।
यहाँ किसे शिकायत करें,
मामला है खुद का ही
पर ये जिम्मेवारियाँ सब
सहन-विवश कर देती॥
कल ही फोन पर मेरी बिटिया
सौम्या से बात हुई
उस समय वह दूरदर्शन का
प्रोग्राम देख रही थी।
उसके मीठे बोल सुन मानो
स्वर्ग-सुख गया प्राप्त
फिर वही है तो मेरी सच्ची
जिंदगी का अहसास॥
वास्तव में मैं उनका, और वे
मेरे ही पूरे हिस्से हैं
वे मुझमें और उनमें,
पूर्णतया ही समाहित हूँ मैं।
यहाँ किंचित भी किसी विलगाव
की बात नहीं है
बस हृदय को समझाने का एक
बहाना चाहिए॥
वैसे यह मील-पत्थर दौर भी,
हो जाएगा तब पार
फिर तुम उनके और वे होंगें,
पूर्णतया तेरे साथ।
फिर पुनः होंगी पहले सी
स्नेह, प्रेम-प्रणय की बातें
जीवंत हो उठेंगी शयनित-दिवस,
व रंगीनी रातें॥
मैं यहाँ वैसा नहीं हूँ, जो
अनुभव ही न कर सकूँ
ऐसा कौन सा दर्द है उनका,
जिसे जान न सकूँ?
चोट तुम्हें उधर लगती, पर
दर्द इधर होता जान
फिर तुम कैसे कहती हो, कोई
नहीं है परवाह॥
विश्वास तो करो, मैं पूरे का
पूरा तुम्हारा ही हूँ
फिर तुम्हारी चिर निहित
स्मृतियों में ही तो हूँ।
फिर कैसे ही सोचती हो, कि
बड़ा दूर हूँ तुमसें
यहाँ 'आँख से दूर, मन से
दूर ' सूत्र न है चले॥
माना मैं इस नींद-प्रवाह
में, बहुत नहीं हूँ चेतन
फिर जैसे चाहती, लिखवा लेती
यह है कलम।
किंतु ऐ कलम!, बड़ी शिकायत है
मुझे तुमसे
क्यों तुम बहुत स्फूर्ति
जगाती, नहीं हो मुझमें॥
फिर मैं हूँ ही क्या,
तुम्हारी संगति से विहीन
पर काल बीता तो, कुछ शेष न
होगा समीप।
और बस इस कागज-पटल स्थित
स्मृतियाँ ही
वे ही तो मेरी चिर विरासत,
बनी रह पाऐंगी॥
फिर इस जीवन में, कब वह समय
मिलेगा
जब कुछ महान कार्य, संभव
होने लगेगा ?
चेतो भाई, यही समय है कुछ
करने-पाने का
सचेत हो अंतः-विद्या सरस्वती
को तो जगा॥
फिर खोलो स्व ज्ञान-रंध्र व
तृतीय शिव-नेत्र
तभी जाकर होगी तुम्हारी
आराधना सफल।
आराधना क्या है इसका अर्थ तो समझ में
नहीं आता। जीवन को सफल बनाने व इसके परम-तत्व को समझने के लिए जो शक्ति, चिन्तन या
समय लगता है, वह शायद आराधना है। जीवन में आगे बढ़ने का सबसे उत्तम उपाय है इस मन
को ढृढ़ रखना, निर्मल रखना और नित को पहचानना। फिर सार्थकता तुम्हारे पास ही होगी।
ऐ भाई, आका ! मन-प्राण व
कार्य-स्वामी बनो
स्व-विजयी हो, मन-ढृढ़ता का
अहसास करो।
न कहता बस संज्ञा-शून्य,
सवेंदनहीन हो जाओ
बल्कि विषय शुभ-परिप्रेक्ष्य
दर्शन शुरू करो॥
जब देखना सीख जाओगे, जाओगे
बोलना भूल
इसका अर्थ, अपने अंतः की ओर
होना आकृष्ट।
वह परम स्थिति होगी, तप -मौन
-व्रत -जप की
और फिर तुम एक-मौनी हो जाओगे
स्व में ही॥
किंतु इस मौन का है अपना एक
अनूठा ही सुख
इसके अभ्यास से निज के, बनते
हो अच्छे मित्र।
अन्यथा भी कई दुख-संचालक
विवादों से बचोगे
मात्र आवश्यक-परमोचित
स्थितिपरक बोलोगे॥
वह चिर ऊर्ध्व संतोष की ही
चरम स्थिति होगी
जो शायद सबका समुचित
अपेक्षा-लक्ष्य है भी॥
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