देखें मैंने भाँति-२ के लोग,
अजीब ही शैली वाले
कुछ अति सीधे, कुछ चलते गहरी
कुटिल चालें॥
फिर भी अंदर का दर्पण, बाहर
झलक ही जाता
और आम आदमी, अपनी ही चाल में
फँस जाता।
कभी तो बहुत चालाक बनकर, कुछ
छुपा जाता
लेकिन क्या उस खोजी नज़र से,
कोई बच पाया?
किससे चालाकियाँ, किसे
प्रभावित चाहते करना
क्या उनके मन में, तनिक
अपराध भाव न होता?
क्यों मनसा-वचसा-कर्मणा भेद,
सदा दर्शित होते
जब जानते सच में तो, कुछ छिपा ही नहीं सकते॥
फिर चालाकियाँ करके, क्या
अधिक ही पा लेंगे
जब पावन न स्वयं में, किससे
फिर वफ़ा करेंगे?
हम घर से निकले, क़त्ल करने
चले दुश्मन का
आकर देखा यह हमारा ही जहाँ
है लहू-लुहान॥
अंतराल में आदतों कारण,
स्थिर चरित्र जाते बन
किञ्चित झुकाव अधिक होने
लगता, एक तरफ।
तब स्व-मूलभूत
अस्तित्व-कर्त्तव्य भूलने हैं लगते
आत्मा पर 'दुरा' या 'महा' का संबोधन लगा देते॥
क्यों छोटी बातों पर
प्रतिक्रिया करने लगते तुरंत
माना हर एक क्रिया पीछे,
प्रतिक्रिया स्वाभाविक।
फिर क्रियाऐं ऐसी क्यों न,
भान हो परिणाम शुभ्र
तो क्या आग में हाथ बढ़ाने
से, नहीं जलता वह ?
फिर हम चेहरों पर बेशक,
मासूम-मुखौटा लगाऐं
कुछ भोले-शरीफों को, निज
बहरूपिए से भ्रमाऐं।
किंचित कुछ स्वार्थ सिद्धि
पर, निज मन में हर्षाऐं
पर यथार्थ स्थिति हम भी
जानते, वो भी जानता है॥
हममें कुछ लोभी, कुटिल, सीधे
व कुछ यथार्थ पुरुष
अधिकांशतः शैतान-भगवान का
कुछ मिश्रित-असर।
कुछ गुण-प्राधिक्य, एक खास
श्रेणी में कर देते खड़ा
फिर एक विशेष छवि-ठप्पा, हम
पर लग है जाता॥
पर हम एक अच्छे इंसान, क्यों
बने रह सकते नहीं
कौन चीज़ आ, एक खास गुणों
वाला बना है देती।
यदि वस्तुतः मानव ही हो, फिर
क्यों भ्रमित हो जाते
वास्तविक स्वरूप भूल,
ऊल-जुलूल बात हैं करते॥
फिर अन्यों से स्वयं हेतु,
क्या भद्र व्यवहार चाहते
यदि प्यार-स्नेह चाहतें, तो
सद्भावना रखना सीखें।
सम्मान चाहते यदि,
विनीत-कारुणेय अपनाऐं गुण
अन्यथा क्या नीम-वृक्ष पर,
कभी लगा आम-फल?
देखो यह जग तो कुआँ है, जैसे
बोलोगे, गूँजेगा वैसे
पर मूर्ख वह चीख-चीत्कार
सुनकर भी नहीं चेतते।
अभी तक तो वय में तुमने,
बहु-प्रयोग लिए होंगे कर
फिर प्रयोग से निष्कर्ष, अपनाना हुआ होगा आरंभ॥
अनेकों को कष्ट करके, महद
महानता मिल जाती
क्या अभी तक उनके, रास्ते पर
है ध्यान दिया ही?
कार्य को सुभीता करने हेतु,
उचित रास्ता जरुरी है
ढूँढ़ो एक भला नर, अनुभव से
लाभान्वित कर दे॥
तब महानता बहु-संदर्भों में,
अलग परिभाषा प्रदत्त
कोई महात्मा बनता, परम-पिता
में ध्यान लगा उस।
कर्मयोगी बनता जग-हितार्थ,
ले समर्थ कर्म-भावना
अध्ययन में जुट जाता, नई
विधाऐं जग समक्ष रखता
अन्य पथ-दर्शन से पूर्व,
स्व-अन्वेषण में चल पड़ता॥
फिर रास्ता इतना भी न सुलभ,
कि हर कोई चल पड़े
पर उतना भी न कठिन, यदि चाहे
तो वह बन न पड़े।
पर इन सब हेतु चाहिए, एक
मंसूबा व आदर्श-किरण
ताकि तुम सब ऊर्जावान हो,
उसमें रह सको एकाग्र॥
फिर इस विश्व में सभी जन तो,
महान-विकर्म न करते
अनेक तो बस अति साधारण, जीवन
बिताना हैं चाहते।
कुछ को तो उलटे-सीधे मार्ग,
अपनाने में भी न संकोच
फिर अनेक आम आदमी रहते ही,
दुनिया से प्रस्थान॥
अंततः यह सत्य है कि इस दुनिया में
सबका बड़ा नाम नहीं हो सकता क्योंकि जिनके पास वाँछित साधन यथा धन, विद्या, ज्ञान,
कुशलता, आचरण आदि किञ्चित अधिक उपलब्ध हैं, वे ही बहुदा प्रसिद्धि पाते हैं। तो भी
आम जनता का न्यूनतम स्तर बढ़ाया जा सकता है और फिर ऐसा क्यों न हो कि किसी को बहुत
बड़ा बनने जरुरत न पड़े। सब एक पारस्परिक सोच-समझ से अपने संग अन्यों का स्तर भी
उच्चतर करने का यत्न करें॥
प्रभु का धन्यवाद करो, प्रज्ञान में हो उत्तरोतर वृद्धि
शेष-कर्म तुरंत निर्वाह-यत्न हो, हित अवश्यमेव ही॥
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