ऐ मेरे मौजी मन, तू बन जा मन
का मीत
पुलकित हो जाऊँ, सुन तेरा
मधुर संगीत॥
तेरी संगति में तो मुझे है,
आनंद ही आनंद
बन जाता हूँ कन्हैया, व तू
बाँसुरी की धुन।
मन में हूकें उठेंगी, मिलने
की मनमीत से
और जाग उठूँगा, इच्छा से
तुमको मिलने॥
मेरे मन, क्यूँ अब तक दूरी
का है आभास
तू मेरा व मैं तेरा, तब भी
दिल क्यूँ उदास?
जब निराश तो लगता, सारा जहाँ
है उबास
साथ यदि तेरा मिले, तो हर
क्षण उल्लास॥
मन का तू प्रणेता, मीत भी
फिर बनता जा
भरकर ढ़ेर उमंगें, जीवन
हर्षित करता जा।
बसते एक दूजे में हम, दूरी
नज़र नहीं आती
मधुर गीत गाने से, छवि चहुँ
ओर दिखती॥
अहसान होगा मुझ पर, पहचान
करा जा
कान हैं तरस गए, एक
प्रेम-धुन सुना जा।
इस दिल की आशा, कथा मेरी
सुनता जा
कुछ क्षण सुख के भी, दर्शन
कराता जा॥
बिन तेरे कुछ नहीं मैं,
मुझको तेरी तड़पन
मिलन-आस मन में, मुझमें ऎसी
धड़कन।
क्या जग-बात करें, निज ही
नहीं होती अंत
कैसे होगा गुजर हमारा, इसी में बीते समय॥
कालातीत हो जीवन, स्पंदन
इसका संगी हो
धड़कनें बनें मीत, हर क्षण
प्रसन्न- चित्त हो।
कार्य होवें कुछ ऐसे, जिन पर
गर्वानुभूति हो
फिर पट जाये सब दूरी, ऐसी एक
दृष्टि हो॥
सुंदरता मन में देखूँ, आ जाए
आचरण में भी
ख़ुशी मात्र निज ही न, ध्यान
हो दूजों का भी।
विश्व में न होती मित्रता,
ऐसे ही किसी से भी
अंतरंग समझोगे, कुछ हो अहसास
उन्हें भी॥
मन में समपर्ण-भाव,
ईर्ष्या-द्वेष का काम क्या
ऐसी भावना से हम, जीवन
महकाऐं सबका।
तब होगा 'आत्मवत्
सर्व-भूतेषु ' का सुप्रयोग
मन-प्रतिष्ठा शिखर पर,
गुण-कारण ही निज॥
मैं उन जैसा वे मेरे जैसे,
भेद विचारों का बस
कहीं वे या मैं जरा भारी,
क्या यह भी अंतर?
फिर क्यों मात्र शिकायतों का
पुलिंदा बनें हम
व्यर्थ मन-दुखाऐं क्यों
स्वयं व अन्यों का हम?
कई श्रेष्ठ काम शेष, क्यों
अनुपयोगी पर ध्यान
अच्छी सौदेबाजी न यह, चीजों
की न पहचान।
प्राथमिकताऐं पहचानोगे तो सब
जान जाओगे
यदि स्वयं-मित्र बनो,
बाह्यों से अधिक पाओगे॥
माता सरस्वती की, विवेक से
आराधना करो
वही सहायक होगी, पहचानने में
मंजिल को॥
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