दुनिया में दर्द का एक
रिश्ता, और इसी में बहे जा रहे हैं हम
कथन तो कुछ न मन में, लेखनी
ही सफर बढ़ाए जा रही बस
हम तो जिंदगी तय करने में
जुटे थे, यही भरन-यत्न रही कर॥
कैसे कहूँ जब समझ न, बुद्धि
कुछ शिथिल व नींद सा आलम
फिर लेखनी उठाई, इसी सहारे
ही अग्रिम पंक्ति-भविष्य अब।
जग में जीने हेतु मरना पड़ता,
बहु-लाभ हेतु खोना पड़ता कुछ
अजीब दास्ताँ जीवने-मुहब्बत,
मर जाएँ, शिकायत भी करें न॥
आज भी यूँ ही बीत गया, कुछ
पढ़-सो या मशगूल होकर वार्ता में
उषा से बात की, भाई का
इंजीनियरिंग सेवा-फलक जानने हेतु।
राजीव के भाई का तो
उत्तीर्ण, विनोद विषय में नहीं बहु-आश्वस्त
पर अग्रिम-तैयारी हाथ में
है, प्रयास-ईमानदारी से भविष्य संभव॥
जीवन में योजना जरूरी है,
उसी से नर बड़ी बाधाऐं पार करता
आत्म-विश्वास व साहस से,
दुर्गम कंटक-पथ भी सुगम हो जाता।
क्यों कुटिलता- जटिलता
हममें, इससे ही कहानी जाती बन सब
क्यों लघु-लाभार्थ
घृणित-हरकत, जैसे ठीक विषयों हेतु न समय?
नेक-नीयत व उचित ईमानदार ढ़ंग
से भी, गुजर-यापन है संभव
कुकृत्यों से तो न मात्र
निज, बल्कि अन्य-जीवन भी होते हैं नरक।
सत्य कि असंभव
पूर्ण-आदर्शवादिता, और नमक चलता आटे में
किंतु कितनी मात्रा चाहिए,
जब सब तो नमकीन रोटी ही चाहते॥
कब हूँगा फिर
सत्य-आमुख, जीवन में नेक-नियति, सच्चाई-बल
जब आदर्श बस नाम का ही नहीं,
दिन-चर्या का बन जाएगा अंग।
स्व की काबिलियत पर ही भरोसा
होगा, पैर ज़मीं पर जमा सकेंगे
कब गर्व होगा मनुजता पर, जग
से अधमता-अन्धकार हटा देंगे॥
कब माँ सरस्वती की कृपा हो, लेखनी-मुख
से सार-शब्द निकलें
मात्र नहीं सतही
सन्तुष्ट, आदर्श व्यक्ति जन्म हेतु भी
छटपटाए।
कब अस्तित्व-पूर्ण जीवन
निकट, कह सकूँ जग-आना भी सार्थक
कब यह चेतना-अहसास मुझमें भी,
करेगा प्राण का सुस्पंदन॥
कब याज्ञवलक्य सा खोजी ही,
दुर्धर्ष प्रश्न-उत्तर अन्वेषण को तत्पर
सार्थक प्रश्न करने में
सक्षम हूँगा, निज-तम निवारण हेतु विचलित।
कब वास्तविक स्थिति से अवगत
हूँगा, निज विफल-दुर्बलता ज्ञान
सकल जाँच-परिभाषा में सक्षम
हूँगा, फिर जी सकूँ संग पहचान॥
कब सच्चाई-अहसास हो,
कठिनता-निर्गम का पथ खोज-करबद्ध
लघु-बड़ी विफलता से नहीं हार,
सत्य सफलता-अर्थ सकूँ समझ।
कब आत्म-विजय के स्वप्न
लूँगा, जीवन पूर्णरूपेण जी ही सकूँगा
माँ-पिता, कुटुंब व
विश्व-कर्त्तव्य समझ, उन अनुकूल बन सकूँगा॥
कब सब-दायित्व समझकर,
जग-निर्वाह में कोई कसर न छोड़ूँगा।
अन्य-टिप्पणी लूँगा उचित
परिपेक्ष्य में, व सुधार-पथ अग्रसर हूँगा।
मेरे माता-पिता के मुझ पर बड़े अहसान
हैं। उनका पालन उतनी दृढ़ता से नहीं कर रहा हूँ जितना कि करना चाहिए। उन्हें कई बार
शब्दों द्वारा दुःखी कर देता हूँ हालाँकि ऐसी कोई इच्छा नहीं होती। प्रभु ! समझ दे
कि जीवित माता-पिता में तुम्हारे दर्शन करने लग जाऊँ। केवल तार्किक न बनाकर सच्ची
बुद्धि व भक्ति दे। बहुत दिनों तक शायद इस कर्त्तव्य को उतनी कर्मठता से न पाया
जितनी करनी चाहिए। प्रभु ! सद्बुद्धि दे कि चीजों को ठीक रूप में देखूँ। किसी से
वैमनस्य न हो और कार्य सुचारू रूप से करूँ। सब हेतु अच्छी भावनाऐं रखूँ और भला चाहूँ।
खुद से किये गए ये प्रश्न, आज के भौतिक युग में , कहाँ मिलते हैं ! लाखों में एक व्यक्ति इन प्रश्नों को समझ पाता है और अरबों में से एक बुद्ध पैदा होता है !
ReplyDeleteहजारो साल नर्गिस अपनी बेनूरी पे रोती है
बड़ी मुश्किल से होता है चमन में दीदावर पैदा !
माता पिता के प्रति शायद हम सभी लापरवाह हो जाते हैं , उनके प्रति हमें अधिक समय देना होगा ! आपकी इस रचना से , बड़ों की याद आ गयी ! आभार आपका
सतीश जी, सचमुच अपने को चरम की अनुभूति तक ले जाना मानव जीवन का उद्देश्य होना चाहिए। हम अपनी दुर्बलताओं से ऊपर उठें, यही सार्थकता है। प्रोत्साहन के लिए धन्यवाद।
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