दुनिया के सितमों का शिकवा
है क्या करना
ये हम खुद, फिर और किसी से
क्यों डरना?
तरफदारी तो सुनी थी, देखा
कुछ ही ज्यादा
पर ग़ौर से निकट देखा तो अधिक
ही पाया।
सोचे थे, कि हर ग़म से महफूज़
होंगे ही हम
पर आँख खुली, सर्वत्र काँटों
से पाया परित॥
हर बनावट के पीछे, एक कलाकार
होता है
हर सज़ावट के पीछे, कोई
होनहार होता है।
मैं तो मूरत भी कोई अच्छी सी
न बना पाया
न जानता मेरा भी कोई पालनहार
है होता॥
ठोकर खाकर गिरें, फिर
लहू-लुहान हो चले
वक्त का धक्का जो लगा, तो
बेहाल हो गिरे।
न समझ पाए, आखिर क्या हमारी
क़िस्मत है
दुनिया में क्या आए इसलिए, कि पड़ें या गिरें॥
अपने मन की लगाम, हम कभी खो
बैठते हैं
कहाँ भागे है यह अश्वरथ,
संभाल ना पाते हैं।
कैसे बनें हम सारथी, अपने इस
मनरथ ही के
इस भ्रमित अर्जुन को, कृष्ण
न मिल पाते हैं॥
पूजा हेतु चुना था जिन फूलों
को, मैंने चमन से
देखा तो, एक बदनाम पथ में ही
पड़े थे मिलें।
सोचा था सफल होगी, मेरे
पुष्प की अभिलाषा
पर भाग्य में यही था कि गिरे
यहाँ, पड़े वहाँ॥
मन के खिलाड़ी थे हम, शायद
कभी तो जीते
थोड़े होश में आए, तो पाया कि
धड़ाम-गिरे।
पर कैसे संगदिल-बुज़दिल हो, ऐ
तुम बन्धु मन
बिन कुछ लड़े ही समझ लिया, कि
मरे हम॥
प्राण-जीवन्तता तो खुलकर
जीने से ही होती
फिर हार मान लिया तो, क्या
ख़ाक जिए ही।
उठ खड़े हो, बढ़ो मन में अरमान
लिए ही नए
और बनाओ संग मुस्काने का आलम
मन में॥
कोई कुछ बड़ा काम करे, तो ही
नाम मिलेगा
फिर अच्छा ना सही, तो बदनाम
ही मिलेगा।
जो घोड़े पर चढ़ भी सकते हैं,
वे ही तो गिरेंगे
जो पहले ही नीचे गिरे, तो
क्या ख़ाक करेंगे॥
क्यों कुछ दीवार की बाड़ सी
ली मन में बना
रखो खुला, व आने दो ताज़ी हवा
का झोंका।
रखोगे यदि अनावश्यक ही पहरे
लगा इसपर
तो किसी दिन दे जाएगा, बहुत
धोखा ही यह॥
इस मध्य रात्रि-प्रहर में,
हर तरफ़ है शून्यता
केवल कहना ही, तो बड़ी है
मन-बोझिलता।
एक लेखन का कारण, वह शून्य
है दूर भगाना
तब आऐंगे नव-विचार, व निकट
है सफलता॥
अतः अनुरोध है, माँ सरस्वती
का करो ध्यान
वह तुम्हें सब विद्या,
प्रखर-ज्ञान, दे कलादान।
कविभाव-लेख की हो, ज्योति
प्रकाशित अक्षत
फिर हितार्थ मन-दीप, दिव्यता
फैलाए सर्वत्र॥
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