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Wednesday, 14 May 2014

मेरी दुंदुभी

मेरी दुंदुभी 

इस कालखंड में आया हूँ, लेकर मैं अपनी दुंदुभी

कुछ गर्जन निज का, कुछ उस शक्ति की बंदगी॥

 

कहाँ से आया, कोई और जहाँ नज़र नहीं आता है

लगता यहीं कहीं था, किसी रुप या सुप्तावस्था में।

परिवर्तित कर दिया पुरुष देह में, कुछ चेतना संगी

छोड़ दिया जग में, कि जा व बजा अपनी दुंदुभी॥

 

वह देखता सब कार्यकलाप, कितनी शक्ति उसमें

फिर यह पता, कितने चूर्ण के साथ बनाया गया है।

वह कदाचित घड़-रचता है, एक सम तत्वों से सब

 पर विभिन्न प्राणियों में गुण-दोष डाले हैं अनुरूप ॥

 

सब व्यवहार करते हैं, अपने गुण-चेतन सामान से

उसी में उन्हें कुछ करने का, मिलता अधिकार है।

माना कि वृहद रूप में हैं, सबके कर्म एक ही जैसे

सूक्ष्म दर्शन से, विविधता-रोमांच भरे प्राणियों में॥

 

वो मदारी खेल देखा करता, कैसे खेल करते चेलें

पर मैं कहूँगा, कितना भला सिखाया गया है उन्हें?

पर कुछ गुणवत्ता, विविधता में भी डाली जा सकती

फिर तभी रोमांच तो, एक-जैसे न हो सकते सभी॥

 

पर खेल में तो हम हैं, आओ कुछ उछलें-उल्लासें

तन-मन रखें स्वस्थ, यह जगत-बगिया महका लें।

सीखें किंचित अच्छे दाँव-पेंच, दक्ष गुरु-निगरानी में

मिले समय को न्यूनाधिक, समर्थ-सार्थक बना लें॥

 

आया था बड़े अभिमान में, मैं ही वह श्रेष्ठ धनुर्धर

पर देखा चुनौती दुसाध्य, महारथी-समर में इस।

और कुछ ध्यान लगाया तो, हेंकड़ी पर हँसी आई

लघु सामान, ऊपर से मिथ्या-गर्व, अतिश्योक्ति॥

 

अनेक अभ्यासरत, निज के सबल-सफल निर्माणार्थ

नहीं कभी संतुष्ट ही स्वयं से, अभी जारी है अन्वेषण।

कैसे बैठे अलसाकर, जब जीवन मिला इतना अल्प

इसी को जितना जी लिया जाए, उतना ही है कम॥

 

सोचा था विजयी हूँगा, यह तो खेल बहुत है आसान

पर यहाँ सीखा-जाना, कितना था मैं यूँ मूढ़-अज्ञान।

हँसा मूढ़ता पर अपनी, क्यों यह है अभिमान व्यर्थ

उठो, कुछ बेहतर सीखो व स्व-दशा करो सक्षम॥

 

यहीं से उठा, यहीं रहा, व यहीं तो मिल ही जाना है

सब कुछ अपना यहाँ, और न कोई ही बेगाना है।

मैं तुझमें और तू मुझमें, सब कुछ तो एकरूपता है

किंचित व्यवहार-शैली में, शायद कुछ श्रेष्ठ हूँ मैं॥

 

क्या करूँ फिर स्वयं का, जब निम्न धरातल पाता

कुछ शिक्षण-यंत्र तो मिलें, पर गुरु नज़र न आता।

बहुत आँखों पर परदा है, पहचान करनी है प्रगाढ़

शायद गर्वित सब एक से, या औरों पर अविश्वास॥

 

गौतम बुद्ध में श्रद्धा बहुतों की, बनाया जीवन सफल

आनंद-उलूपी, तपस्सु-भुल्लिक, अनेकों हुए विरूप।

चलें उस विश्वास के साथ, कि कोई है संगी-सहायक

फिर बिन तजे कुछ लब्ध नहीं, यह लेना-देना संबंध॥

 

कुछ विलम्ब से सही, आओ अब कुछ अच्छा कर लें

छोड़ प्रगल्भ-प्रवचन, काल का कुछ आदर करे लें।

प्राप्त यह वर्तमान स्व-वश, आगे का पता नहीं कुछ

सीखो-बनो कुछ, संपूर्णता- सार्थकता साथ लें हम॥

 

'आप मरे ही जग-प्रलय', अतः प्रतिक्षण सफल बनें

अन्यों में भी निज स्वरुप देखें, सदैव हेतु साथी बनें।

जीवन-कला सीख, रचें अनेकानेक उत्तम सी कृति

वरन लगेगा व्यर्थ ढ़ोया भार, खाली ही रही दुंदुभी॥


पवन कुमार,
13 मई, 2014 समय 23:25 बजे म० रा० 
(मेरी डायरी दि० 9 मई, 2014 समय 8:40 प्रातः से)


1 comment:

  1. बात तो सही है आपकी , विशाल विश्व में हमारा अस्तित्व ही क्या है और फिर सीखना तो सतत प्रक्रिया है जिसका कोई अंत नहीं !
    शिक्षाप्रद पोस्ट , आभार आपका !

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