पुनुर्द्भव
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कल मैं मर गया था और उस मरने में जीने की कोशिश की थी। क्या जीवन का महत्त्व है यह तो मरने के बाद ही पता चलता है। इस मरने में अपनी हस्ती भुला देना होता है, वह बन जाना है जिसका कोई वजूद नहीं होता। जब शून्य हो जाओगे तो अशून्य का भेद पता लगेगा। मिटने का मतलब अपने को संज्ञा शून्य कर लेना, अपने को अपने से हटा देना और जो कुछ नहीं है उसमें समा लेना। जो है उसकी खोज में अपने को मिटा देना और शायद उसी का भाग बना लेना। उसका बन जाने के बाद और कुछ जाने की आवश्यकता नहीं है। क्योंकि वही तुम्हारा परम उद्देश्य है और वही धाम है, उसी में जाना सबकी नियति है। तुम जल्दी चले गए अपने को धन्य समझो क्योंकि जल्दी समझ आ जाएगी। आवश्यकता तो वो भी नहीं है लेकिन अनुभवहीनों से तो फिर भी बेहतर है। अनुभव मिट जाने का तुम्हें सिखाए जीवन का मोल, अपने जीवन का मोल ताकि जब वह तुम्हे मिले तो तुम उसका आदर कर सको और उसको पूरा जी सको। कृपा उस धाम की जो इसको फिर बार+म्बार सिखाएगा और कुछ योग्य बनाएगा। उसमें क्या समाना था और क्या तुम्हारा मिट गया था। क्योंकि तुम सब कुछ बाह्य भूल गए थे और केवल स्व निज में मनन था तो वह स्थिति तुम्हारी मिटने वाली ही थी। उसी अन्तरतम में डुबकी लगाने का परम उद्देश्य स्व का अन्वेषण करना है और अपने नज़दीक जाने का रास्ता है। फिर डुबकी लगाना क्या है और फिर उसमे प्राण गवाँ देना। क्या मैं बाहर खड़ा अपने निर्जीव को देख सकता हूँ और उसने क्या- 2 किया, उसका विश्लेषण कर सकता हूँ। मैं किन तत्वों का बना हूँ, चेतना का क्या आधार है। मेरी क्या मनोदशा है और मैं कैसे उसे सर्वोत्तम में परिवर्तित कर सकता हूँ। मेरी क्या गति है और कैसे मुझमें जीवित होने की भ्रान्ति होती है। कहाँ हूँ मैं, कैसा हूँ मैं, क्यों हूँ मैं, कब हूँ मैं, कुछ समझ भी पाता हूँ या फिर दिखावा करता हूँ। कुछ भी तो स्पंदन नहीं है, फिर जीवन शेष है ही कहाँ\ मैं अपने जीवित या मृत होने स्वाँग करता रहता हूँ लेकिन अपने को न जीवित और न मरने में पाया है। फिर भी कोई तो मेरी गति को जानता होगा।-शायद मैं इतना अनाड़ी हूँ कि उस ज्ञान की परिकल्पना ही नहीं कर पाता। फिर भी संसार में धकेल दिया गया हूँ और जीवित होने का छलावा करता हूँ जबकि पता है कि कोई जीवन है ही नहीं। यह सब तो बाह्य है, अंदर सब शून्य है। शून्य में शून्य का वास है।
मैं मस्तिष्क की पूरी शक्ति लगाकर यह पता करने की कोशिश कर रहा हूँ कि मैं क्या हूँ और कैसे अपने को अपने में महसूस कर सकता हूँ। शरीर में चेतना तो बाह्य ज्ञानेन्द्रियों का क्षेत्र हैं। अंदर का तो कोई क्षेत्र इंगित ही नहीं है। वे कहते है बहुत विशाल है और बाह्य से बहुत अधिक है पर मेरी स्थिति में मरने के बाद भी मैं जान पाया हूँ। हाँ, जब जीवित था तो बिलकुल ही पता नहीं था। अब मरा हूँ तो शायद ये प्रश्न करने लगा हूँ कि वह क्या हूँ और पता लगने लगा है कि मैं वह नहीं हूँ जो लगता है। मैं सूक्ष्म हूँ और करीब-2 शून्य हूँ और मेरे संसर्ग में भी कोई शून्य के अतिरिक्त कुछ नहीं है। मैं हिलता- डुलता नहीं हूँ और बस पड़े -2 केंचुए सम मिट्टी में रोला करता हूँ। जैसी स्थिति आ जाए बाह्य अवस्था में उसी में समा जाता हूँ और कुछ देर के लिए उसमें व्यस्त हो जाता हूँ लेकिन अन्दर से जानता हूँ कि मेरी स्थिति शून्य की है और मैं उससे अलग नहीं हूँ। मैं और शून्य कोई अलग नहीं हैं और परिणति उस शून्य में ही होनी है। क्या मेरी शून्य की स्थिति मेरी सुप्तावस्था जैसी नहीं है। नहीं, क्योंकि स्वप्न तुम सुप्तावस्था में देखा करते हो और शून्य से बहुत दूर होते हो। स्वप्न तो तुम्हारे जीवन का ही प्रतिबिम्ब होता है और शून्य से अलग होता है। पर यहाँ प्रश्न सुप्तावस्था या स्वप्न और उससे भी महत्त्वपूर्ण शून्य का भी नहीं है बल्कि एक प्रश्न का उत्तर देना है कि जो चेतना अवचेतन शरीर, मन मुझमें भरा भरा गया है वह क्या है और उसका कैसा स्वरूप है। कैसे उसकी थाह खोज की जानी है, कैसे उसे अपने बहुत 2 नज़दीक पाना है और उससे भी अधिक अपना बना लेना है। उस प्रयास की खोज करनी है उन रास्तों को ढूँढना है जो मुझे वहाँ ले जाऐंगे। मेरी यह कोशिश केवल एक माध्यम है बल्कि असली उद्देश्य अपने वज़ूद को अहसास करना है। उस स्थिति में आत्मसात होना है जो मुझे अपना होने का अहसास करा दे। उस मृतावस्था से भी परम स्थिति में जाना है जहाँ फिर जीवन, मरण और अन्य बीच की स्थिति की आवश्यकता न हो। बस मैं होऊँ पर मेरा वह परम वज़ूद होवें जिसमें परम तत्व से साक्षात्कार हो जाए। बस बैठा हूँ जाना कहाँ है पता ही नहीं है। फिर भी चल तो पड़ा ही हूँ कहीं न कहीं तो पहुँचूँगा। विश्वास है कुछ जरूर होगा अच्छा ही होगा।
धन्यवाद।
पवन कुमार,
2 सितम्बर 2014 समय 23%18 रात्रि
(मेरी डायरी 4 जनवरी 2009 समय रात्रि 9 बजे से )
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