शांताकारम, विश्रामावस्था,
एकचित्त व मननोद्यत
अनंत गहराईयाँ जाना चाहूँ,
जहाँ सब सीमा-मिट॥
परम शांत तो न कह शक्य, चलित
होते ही हैं अंग
यत्न करता एक विशेष-मुद्रा,
व निरंतरता-वाहक।
'स्वामी मस्तिष्क' कथन, कैसे शांत करें
अंग-प्रत्यंग
तभी लब्ध मन-एकाग्रता, व
अधिक करने का बल॥
देखो मनन-ध्यान से ही तो,
स्वयं-विजयी सकते बन
चित्त-शुम्न, तन-पुष्टता,
श्रेष्ठ वातावरण दे सकती वह।
कहीं खो गया हूँ स्व-सोच
में, बाह्य की चेतना न कुछ
क्या परम-चिंतन करते ज्ञानी,
सब ही तो अचिन्हित?
बड़े शब्द ज्ञानी-मनीषी,
चिंतक-विद्वान व भक्त-सन्त
कथन है ज्ञाता बैठते ध्यान,
हेतु अनुभूति करने परम।
पर क्या वह चिन्तन-मार्ग, और
कैसे उसे वे हैं साधते
उनमें कितने विश्वसनीय, कुछ
पा ही लिया है सच में?
प्रश्न उन्होंने क्या साधा,
और कितने वे हुए हैं सफल
क्या सत्य मनन उस अवस्था
में, या यूँ ही नेत्र हैं बंद?
क्या अध्याय-पाठ-उपाय, जिनका
सतत ध्यान करते
व उत्तरोत्तर उर्ध्व-अवस्था
में नित चलायमान रहते॥
कितना सघन अंतः-जगत, पर
बाह्य हम हैं अति क्षुद्र
कैसे हो उनमें सामंजस्य,
बल-प्रदायक है वह सक्षम?
कर्कश-वाणी, 'यदा तुष्यते
तदा खिन्नते' सी स्थिति में
सम दर्शन तो न समक्ष, कैसे
महानता का दंभ भरते?
शायद कुछ मानव हों, जो एकभाव
में निर्वाह हैं करते
विजित कर लिया हो,
दुर्वासनाओं व कर्मों को अपने।
मेरा अभी तक न परिचय है, ऐसी
आत्माओं से महान
तथापि संभव कुछ है,
प्रयत्नों से स्वामित्व किया ग्रहण॥
फिर मन का दर्शन कैसा हो, यह
एकांत-लाभ उठाऊँ
बहुत खोखला अंतः तक में, कुछ
ठोस न कर पाता हूँ।
दशा मात्र सकल तंत्र में
नगण्यता का ही कराती परिचय
पर अभी क्षणों में तो
जग-अस्तित्व भी न आता है नज़र॥
फिर सत्य कि यह जग भी तो,
मुझसे बड़ा जुदा नहीं है
जैसा मैं मुर्दा, वह भी वैसा
ही बस कयास स्थिति में है।
कुछ को अनुभव स्थिति ज्ञात
हो, अनेक चरम-भ्रम में
मनीषी जानते सब है माया, सब
शामिल इस खेल में॥
यह मेरा ही चिंतन-रूप है, या
और भी भ्रमित अतएव
संभव मन स्थापित हो गया है,
ऐसे भी मनन प्रकार में।
और भी औसत व्यवहार- ढ़ंग से,
निज में विद्यमान होंगे
तुलना न चाहूँ मैं किसी से
भी, सब स्वयं में महारथी हैं॥
यदि कुछ गुणी भी हैं, उनका
विदित होना चाहिए मार्ग
उससे तो किञ्चित लाभ ही है,
मुझे भी होगा पथ-ज्ञान।
प्रयत्न तो करता खाली क्षणों
में, व स्वयं से करता बातें
पर क्या यह उत्तम-मद्धम,
इसका कुछ भी न पता है॥
कहते हैं 'थोथा चना बाजे
घना', क्या जग-ध्वनि ही ऐसी
क्या मात्र स्वाँग करते हैं,
या फिर सचमुच में गंभीर ही?
यद्यपि कुछ व्यवहारों में,
दिखते हैं संजीदा व समर्पित
किंतु प्रस्तुत क्षण तो,
निरे ही सवेंदनहीन-अनिरूपित॥
फिर क्या जीवन-सार्थकता, जब
सच में कुछ ही न है
मनीषी-व्याख्या निज है, पर
मूल सत्य उससे ही परे।
इस अनंतता में हम,
निर्जीव-अघड़ित पत्थर से हैं पड़े
इसका प्रयोग न तो उनको पता,
न ही हमको ज्ञात है॥
मैं भी बैठा इस कथित ध्यान
में, कोई जैसा भी कह दे
कहते परम रहस्य खुलते, व
ज्ञान पा भी लिया उनने।
या कुछ क्षण-विभ्रम सा, कुछ
अनुभव कर ही है लिया
या पहुँचे उस परम में,
ओर-छोर अति-दूर जिसका॥
दिवस में चलन-विचरण है, अजीब
व्यवहार करते हम
इनको जागृत-क्षण कहते हैं,
पर निश्चित अति कमतर।
इतने लघु, ठीक से निज भाषा
प्रयोग भी न पाते हैं कर
लेख-पठन, व्यायाम, मनन-संवाद
तो हैं अति-मद्धम॥
कैसा गर्व स्व-विद्वता का,
जब इतने हैं अल्प-विकसित
अन्यों को समझते क्षुद्र, जब
स्व-स्थिति निम्नतर से निम्न।
कैसे करूँ मन-यत्न, और सत्य
स्थिति को जाऊँ ही जान
फिर अच्छी हो या बुरी, किसी
से कोई न है शिकायत॥
फिर मनन पर आता, कौन गूढ़
वस्तु इस चेतना-स्थित
क्या मार्ग दिखा सकती, यदि
कुछ है सामर्थ्य निहित।
या यह बाह्य भाँति, एक मद्धम
गति-वाहक व सामान्य
और कुछ भी अपेक्षित न,
क्योंकि तो असमर्थ सी यह॥
इस सोई सी अवस्था में, कुछ
मौत का साथी है लगता
क्यों नींद कुछ पूरी होने
पर, अर्ध-स्वप्नों में खो जाता।
अभी तो आभासित कि अर्ध-चेतन,
निस्पंद-मौन ही मैं
पर कह न सकूँ, स्थित हूँ
सत्य ही सच्चिदान्द रूप में॥
प्रभु !, आकांक्षा-पंख
लगाकर, उड़ान करा यथासंभव
मुझे सुस्वरूप से मिला, जो
है निश्चित समक्ष से पृथक।
होने दे फिर युद्ध-भयंकर,
प्रस्तुत और संभावनाओं में
अब नितांत सरल हो, निज औकात
जानना चाहता मैं॥
यहाँ कुछ पंक्तियों से, यह
कागज-पेट नहीं भरने वाला
इसे सतत हथोड़े-छीनी प्रहारों
से, अनिवार्यता तराशना।
नहीं तो कैसे संभव सुमूर्त,
इस अघड़ित प्रस्तर-खंड से
और तब स्थिति बनेगी कुछ
बेहतर, विश्वास जम सके॥
कोई तो मुझे किसी उत्तम
शिल्पकार के पास छोड़ दे
और उसे ठीक से समझा दे, कि
क्या कुछ बनाना है ।
फिर परिवर्तित होगा, एक लकड़ी
के कुन्दे से मैं वह
कोई कुछ कर्म करके, उसमें प्राण-प्रतिष्ठा देना
फूँक॥
तो बजने दो ढ़ोल-ढ़फली-नगाड़े,
खड़ताल-बीन-मृदंग
यदि कोई सर्वशक्तिमान-समर्थ
है, तो करूँ स्तुति चिर।
यदि न भी तो नहीं कोई चिंता
है, बेहतर बेशक दो ताने
फिर भी भाव, अंतः-बाह्य के
सुधारने का होना चाहिए॥
यहाँ कुछ सोचकर ही अन्दर से
करता हूँ प्रयास-प्रयत्न
बाहर वे अपनी बेहतरी हेतु, सदैव हैं कर्मयोग में
सुरत।
क्या तुम उनकी इसमें कुछ सहायता ही कर सकते हो
यदि आवश्यक हो, कोई प्रश्न पूछने में भी न
हिचको॥
मेरे उस मनन का क्या हुआ, ले
चला था मनीषी-चर्चें
क्या वे भी मेरी भाँति शून्य
ही हैं, या कुछ ढ़ोंगी उनमें?
या मेरे प्रयत्न में है कुछ
न्यूनता, और मार्ग उनका श्रेष्ठ
तब भी सीखना अनिवार्य,
बेहतर-आचरण हेतु कुछ॥
मेरी तूलिका यूँ चलती, कुछ
अन्वेषण करने को निज
प्रयास किञ्चित नहीं रुके, व
समस्त दिशाऐं हों भ्रमण।
निज विसंगतियों से परिचय, व
प्रदोष सकल हों बाहर
और नव-अध्यायों का भी करें
एक दायित्व से निर्वाह॥
मैं आया, खाया व खो गया इस
जग भूल-भलैया में
इस लाड़ली की कर खोज, चाहे
कुछ भी न पता है।
कर वह परम-आराधना, शायद
मार्ग जाए ही मिल
होंगे फिर वे अति-हर्ष के क्षण, जो हैं चिर-प्रतीक्षित॥
तब क्या मेरी प्राण-परीक्षा,
और कौन वे हैं सुपरीक्षक
मेरे विकास हेतु सब उचित ही
होगा, है विश्वास पूर्ण।
किंतु मैं न खोऊँ नींद में,
कुछ सार्थक संवाद लूँ कर
जानूँ स्वयं को शीघ्र व
अन्यों से भी ऐसी आशा कर॥
फिर आऊँगा जल्द ही, संग कुछ
नव अध्याय-मनन
और देखूँगा कितना बहु खोखला
अभी मुझमें लुप्त॥
No comments:
Post a Comment