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Sunday, 17 August 2014

भोर-संजीवन

भोर-संजीवन 


मेरे इस मन-क्षेत्र में अति-आह्लाद का प्रवाह करो

देह के हर रोम में तो पूर्ण जीवन का संचार करो॥

 

स्वयमेव आया मैं इस जगत, या फिर भेजा हूँ गया

किंतु सत्य कि असंख्यों को पार्श्व छोड़ यहाँ आया।

फिर यह संजीवन मिला है, अति रमणीय व रोचक

आओ इसको सहेज लें, और कर लें कुछ इज्जत॥

 

जीवन के उन्नत-रूपांतरण का, आत्म-प्रयत्न करो

तुरंत जागो, इसमें कुछ भले प्राण संचारित करो।

आत्म को परिवर्तित करूँ, सर्वश्रेष्ठ स्थिति में एक

करूँ तो ललित शब्द गठन-संकलन हेतु सुलेख

करूँ आराधना-चिंतन ही, निकालने को श्रेष्ठतम॥

 

इसे मुस्कान-सुवास तो दूँ, फैले तब ये ओर चहुँ

जलती एक मशाल बन, औरों को प्रदीप्त करूँ।

कैसे कर्त्तव्य जानूँ, क्या है उनकी सारणी बनाई?

तभी तो होगा उन पर, कार्यान्वयन और सुप्रयोग

परिणाम उत्तम आना तो, उसके बाद की स्थिति॥

 

अब जी लो, जिला दो और बना लो जीवन सुयोग्य

उठाओ प्रथमतः आत्म को, अन्य भी सीखें कुछ।

कवि रविंद्र तो, सूक्ष्म मन -अभिव्यक्ति तक जाते

कुरेद अपना अंतरतम, अति श्रेष्ठ बाहर ले आते॥

 

फिर क्या है दर्शन -पथ, जिससे कुछ सीख सकूँ

कुछ तो योग्य कर सकूँ, अन्तर स्वच्छ कर सकूँ।

बहु सामग्री जमा वहाँ, आवश्यकता है संभालना

पहचान को चिन्हित है करना, सहेजना-संवारना॥

 

उपयुक्तों का मान करना, और प्रयोग में लाने की

अंततः किसी भी भाँति, प्राण-सफल ही बनाने की।

जीवन को पूर्ण जीना ही तो, मनुज की है सफलता

कवि के मनोभाव लेख से ही है, उसकी मान्यता॥

 

मन व हृदय शून्य हैं, पर इनसे ही कुछ निकालना

सरस्वती-कृपा हो तो संभव, अपनी पहचान पाना।

तब श्रेष्ठ जन -संग होगा और श्रेष्ठ ही बाहर आएगा

प्रयास निरत रहे, काव्य सुंदर होता चला जाएगा॥

 

जाओ प्रकृति-गोद में, व मृदुल स्पंदन करो अनुभव

जागृत तब अप्रतिम चेतना, प्राण-काव्य हो सिहरन।

मन का भोर, तन का भोर, इस में नाचे मन का मोर

इस भोर का आनंद उठा, जगा दो सुप्त पोर -पोर॥

 

जब कलम हस्त में ली, तो कुछ श्रेष्ठ लिख डालो ही

चाहे बहुत रमण न भी बनें, प्रयास तो कर डालो ही।

बहुत-संभावनाऐं समक्ष हैं, न कोई निराशा-बात अतः

शब्द तो मिल ही जाऐंगे, प्रयास निज रखो अनथक॥

 

अनेकों ने इतिहास रचा है, अपने से बाहर ही निकल

तुम भी निस्संदेह विपुल करोगे, फिर आगे बढ़े चल।

सुरमय-चितवन, पुण्य-बुद्धि, सकल प्रेरणा हैं निकट

सब सामान उपलब्ध यहाँ, देरी किस बात की फिर?

 

प्रयास करो, और सुप्त बाल्मीकि को अपने जगाओ

पलट लो पन्ने, उठाओ लेखनी, कुछ लिखते जाओ।

पुरातन में ही नूतन छिपा है, उसके पास जाओ तुम

ढूँढ़ो-महकाओ आत्म को, व मुखर हो जाओ सर्वत्र॥

 

सब कुछ है निज-निकट, बस कमी तो पहचान की

चाहे विकसित कुछ कम, यही राह अग्र-गमन की।

मत बैठो हाथ पर हाथ धर, चले रहो विनम्र अनुनय

निज सफल बन, संगियों का भी जीवन करो धन्य॥

 

चलूँ ज्ञान-पथ व अंतः से बाहर निकालूँ गुह्य महानर

प्रज्ञान कि वह यहीं है निकट, व होगा शीघ्र संभव॥

 

कुछ और सुंदर, अनुनय, विकसित, मधुरतम, प्रेरणा

विशाल अनुभूति, अभिराम, अभिव्यक्ति, अनुशंसा।

मनोरम-दक्ष, सुवृत्ति, सुखकारी, प्रयत्नशील, जिज्ञासा

प्रकृति -प्रिय, कवि-हृदयागार से करो शब्द-रचना॥

 

धन्यवाद॥



पवन कुमार,
  17 अगस्त, 2014 समय 22 :59 रात्रि  
(मेरी डायरी दि० 29 जनवरी, 2012 से )

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