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Saturday, 23 August 2014

उलझन

उलझन 


मन-प्रणाली की, समझ की कुछ आशा है जगी

लगता है कि जल्द ही किंचित बात बन जाएगी॥

 

मैं आता जाने हेतु, कुछ गुनगुनाता हूँ मन में

इसी अंतराल-वास ही तो जीवन का नाम है।

क्या कुछ करूँ, इसे ठीक से ही बिताऊँ कैसे

इसी को समझने में ही, समय बीत जाता है॥

 

मेरी ध्वनि कहाँ से निकलती है, खोज जारी है

कोशिशों को ढ़ूँढ़ूँ कहाँ, यही कोशिश जारी है।

यह ज्ञान तो है, कि सब कुछ पास ही में है मेरे

पर अल्प-बुद्धि कारण समझ न, हूँ विडंबना में॥

 

जानता कि नहीं जानता कि क्या जानने है योग्य

फिर भी हिम्मत-ढ़ीठता है, जानने में हूँ व्यस्त।

प्रक्रिया सतत खोज की है, और विरोधाभासों से

कुछ ठोस निकास की कोशिश सतत जारी है॥

 

देखो तो सही कितना सहज, निज को समझाना

पर उतना ही मुश्किल है, अपने नज़दीक आना।

ज़रूर पास बैठूँ स्वयं के, चाहे निरर्थक-पुनरावृत्त

स्व-भक्त बनूँ, कुछ अंतः-पल बनाऊँ ही सार्थक॥

 

इसी आशा और धन्यवाद सहित॥


पवन कुमार,
23 अगस्त, 2014 समय 18:17 सांय 
(मेरी डायरी 07 जनवरी 2012 समय 11:42 से )





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