मृदुल मन-स्वामी या सेवक,
पुनः आपसे है अनुरोध
स्व-क्रियाऐं करो सयंमित,
नितत रखो अपने उद्योग॥
तन- इकतारा, मन की धुन में,
अपने को लगाए जा
लेकर नाम उस कर्ता का, दायरा
अपना बढ़ाए जा।
गर्मजोशी व प्रसन्न- मुख से,
प्रेम का सुर तू गाए जा
आत्मा होगी तभी पवित्र, जब
सबको गले लगाए जा॥
छोड़ो संकोच, बढ़ाओ सोच,
सर्वांगीणता की हो बात
सब अपने व मैं सबका, इस सोच
में सोच मिलाए जा।
बहुत बढ़े हैं आगे ऐसे, मन को
जिन्होंने विस्तृत किया
समय अल्प व कर्म अधिक,
क्षमता अपनी बढ़ाए जा॥
जीवन-पथ अति सुगम, यदि जीने
का ढ़ंग सीख लिया
फिर तान-सुर समय सब अपने
हैं, मन में तू गाए जा।
सर्व-मार्ग लब्ध हैं जग में,
उचित खोजना कर्म तुम्हारा
चलो चलते व ढूँढ़ते हैं, इस
आशा को अग्र बढ़ाए जा॥
अपने में उचित मस्त पर चिंता
मुझको इस जग की भी
कुछ तो कर्त्तव्य मैं पूरा
करूँ, ये बातें तू समझाए जा।
गाकर अपने मन के गीत, जग को
भी सुना तान कभी
कुछ अवश्यमेव लाभान्वित हैं,
हृदय पवित्र बनाए जा॥
लोभ, लंपट, कदाचार, गर्व,
ईर्ष्या यूँ ऊर्जा को नष्ट करें
परीक्षित सद्गुण अपना भाई,
जीवन सफल बनाए जा।
इस जग का कारक है तू, और
सबको तुमने काम दिए
फिर क्यूँ बैठा है खाली,
जीवन को कर्म में लगाए जा।
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