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Friday, 23 January 2015

मन का बली

मन का बली 


बहुत एकाकी क्षण मेरे, किंकर्त्तव्य-विमूढ़ क्या ही करूँ

सोकर बिताऊँ, मनन में लाऊँ या सार्थक चित्रित करूँ?

 

समय ने फिर करवट सी बदली, एकांत में धकेल दिया

पुनः कठोर झझकोरा या कहूँ, एक अन्य अवसर दिया।

निकाल निज सर्वोत्तम बाहर, जग प्रति किञ्चित समर्पित

 बना स्व को कुछ योग्य, भावी पल हो पूर्ण जीवन-परक॥

 

स्व-निर्माण एक प्रक्रिया है, गुणवत्ता तो हर पक्ष में वाँछित

यह है भवन या अन्य निर्माण जैसा, हर पहलू महत्त्वपूर्ण।

नहीं छोड़ा जा सकता है यह, अनाड़ी-नौसिखियों के हाथ

समस्त प्रबंधन-बिंदुओं का, अत्यावश्यक यहाँ योगदान॥

 

कुछ उम्र-वर्ष बिताए हैं, कुछ यूँ ही इधर-उधर से जोड़ा

न सोचा पर घड़ता चला गया, अज्ञात हूँ योग्य है कितना?

प्राचीन नृप-होनहार सज्ज किए जाते थे, एक विधि-तहत

प्रत्येक क्षेत्र विज्ञान-पारंगतता, एक निर्माण करती समर्थ॥

 

बनें अभूतपूर्ण तन-मन भर्ता, कुछ करने का आया हुनर

सम्भालते अपने काज सुयत्न से, व करते श्रेष्ठ कर्म-मनन।

विज्ञ नृप अनुपम लाभ, प्रखर-बुद्धि उचित निर्णय कराती

मात्र न दुर्बलता-पुतले, अपितु नर सबल निर्माण करती॥

 

रचित हूँ अल्प-सामग्री से मैं, न परिवेश अति-समृद्ध पाया

जो मिला, काटा-छाँटा, गलत-ठीक से स्वयं को है बनाया।

प्रायः क्षणों में नहीं श्रेष्ठ निर्णायक, तो भी हूँ एक बुद्धि-उपज

उसी की सम्यक है बनाया, सकल अग्रिम कर्मों का प्रेरक॥

शोभित-सुयोग्य, जितेन्द्रिय, स्वयं-सिद्धा, सब हैं स्व-निर्मित

उन्मुक्त-भाव, निर्मल-निर्भय, अति-सूक्ष्मता, शनै हैं युजित।

अनंत मन-प्रवाह, चक्षु-तीक्ष्ण, निज सब दोष-गुण हैं खोजते

मन के बली फिर बनें प्रहरी, प्रत्येक स्व-दोष दूर हैं करते॥

 

जो भी दत्त हैं जग-कर्त्तव्य, सुभीता ज्ञान उनका होता उन्हें

कदापि न शंका स्व-क्षमता पर, निर्भयता से बात हैं कहते।

पल-२ विवेक-संगी दुर्धर, प्रतिबद्धता पर न कोई चिन्ह-प्रश्न

जहाँ देखे, वहीं अवसर, उनकी उपस्थिति देती विश्वास एक॥

 

ज्ञान-वाहक, उद्यमी, साहस-पुँज, असीमता में नज़र गड़ाते

न जो महज बाह्य-दर्शित से, अपितु अपरिमिता के संगी हैं।

जीवन-दर्शन माना गूढ़ है, अति-सूक्ष्म, उनको हर अंश-ज्ञान

चलें सदैव उच्च लक्ष्य-पूर्ति को, न करते हैं कोई गर्व-प्रमाद॥

 

वे हैं एक अनन्त प्रवाह-साथी, हर क्षण चैतन्य का होता फिर

विशेष-अनुभव करने में सक्षम, सकल भूत-वर्तमान-भविष्य।

चिंतन है अति पवित्र-सार्वभौम, उन्नायक व यथार्थ- समर्थक

एक विश्वास सुधरने-सुधारने में, विद्या-ग्रहण में होते प्रशिक्षु॥

 

मैं भी कुछ ऐसे समर्थों सा बनूँ, यह विश्वास मन में लिया धर

प्रयोग कर अद्यतन अनुपम क्षण, निज और घड़ूँगा बेहतर।

हर पल का हो यहाँ पूर्ण-उपयोग, रचनाऐं बहुत हों सार्थक

श्रेष्ठ पुस्तकें बनें सुहृद यहाँ, तन-मन तो करूँ पूर्ण-स्वस्थ॥

 

एक विद्वान पद निजार्थ बना, क्या संभव उपाधि- योग भी

क्या कुछ विज्ञ-श्रेणी में आगमन, स्थली निज बना सकती?

करूँ कुछ बेहतर अपेक्षाऐं, और फिर यत्न पाने का करूँ

एक सार्थक-रचना का अनुपम अवसर, आत्मसात करूँ॥


पवन कुमार,
23 जनवरी, 2015 मध्य रात्रि 00:25 बजे 
(मेरी डायरी दि० 16 सितम्बर, 2014 समय 8:40 बजे से )    

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