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Wednesday, 25 February 2015

ज्योतिर्पुञ्ज

ज्योतिर्पुञ्ज  



कैसे निर्गम हो अंतर्कक्ष-तमस, एवं ज्योति-पुँज आव्हान

कौन से वे अभिज्ञ विषय हैं, जो तुच्छ मन द्वारा ज्ञेय इस?

 

क्या मेरी प्रकाश- पूँजी ही, कितना लाभान्वित हो पाता

क्या मेरी क्षमता में आता, कितना सदुपयोग कर पाता?

कौन से हैं उपलब्ध ऊर्जा-रूप, कैसे कार्यान्वयन संभव

प्रकाश-स्रोत समीप भी है, पर क्या स्विच अपने निकट?

 

कैसा मैं मानव हूँ, जो विश्व से बस सकल लिए है जा रहा

कितना देय सिर पर ही रखोगे, ऋण तो बढ़ता जा है रहा?

कैसे हिसाब दोगे, और कौन तुम्हारे नाम का चुकाएगा ही

निज लिए ही सब उत्तरदायी हैं, अतः दायित्व समझो भी॥

 

कई जगत-भोग हैं लिप्त मन-काया पर, मुक्ति-चेष्टा नहीं

फिर एक नियमित क़िस्त बना लें, करने को ऋण-मुक्ति।

जगत-गति न मात्र मनन से, चाहिए घन भौतिक-विकास

तेरा मन निज-क्षेत्र है, दूजे चाहते रोटी-कपड़ा व मकान॥

 

यदि श्रेष्ठ हो मन-तन शक्ति में, परोपकार में योग कर दो

परिवर्तन एक बेहतरी हेतु हो, ऐसे विपुल उपाय कर दो।

जहाँ बैठे लो वहाँ की जिम्मेवारी, अपना सर्वस्व झोंक दो

यदि एकाकी नहीं संभव है, अन्यों को भी साथ में ले लो॥

 

प्राण-लगाम कर-पकड़, कहीं रथ-अश्व पथ-विहीन न हों

हर इन्द्रि पर हो पूर्ण निग्रह, अधिकतम श्रेयष उपयोग हो।

उत्तम सेवक होने पर भी, स्वामी तो कर्मठ होना ही चाहिए

क्या-कैसे करें सबको सूचीबद्ध, अनुशासन-प्रबंधन लाइए॥

कितना भी स्वयं में श्रेष्ठ, उससे कितना जग-भला संभव

माना एक शठ कम, आवश्यकता मानव-रचना की पर।

क्षुद्र-स्वार्थ, नर- सुलभ दुर्बलताऐं, वीर-पथ न करती रुद्ध

विशाल उर-स्वामी सर्वहित में ही, देखा करते निज हित॥

 

एक परन्तप नर बनूँ, जिसकी परिधि हो सकल ब्रह्माण्ड

समस्त जंगम-स्थावर हैं शाखाऐं, जीवन हो इसका प्राण।

मानव को नहीं समझूँ दुर्बल, सब निज ढ़ंग से जीना सीखें

तुम्हीं न सब बुद्धि-स्वामी, अन्य भी चिंतन संग पैदा हुए॥

 

पर अवश्य ही कुछ ऐसे मार्ग, जो हमारी क्षमताऐं बढ़ाते

सब विद्यालय-प्रशिक्षण केंद्र, अग्रसरण-सहायता करते।

न आवश्यक भले अस्त्रों का, उपयोग भी उनके अनुरूप

अनाड़ी दुरुपयोग से, निज व अन्यों की हानि देते हैं कर॥

 

किंतु सब अनाड़ी न होंगे, प्रशिक्षक उत्तम प्रेरक हों यदि

सार्वभौम विकास भेद-भाव बिना समरसता में करे वृद्धि।

मनुज-विचार बढ़ें उच्च अवस्था में, परिणत हो कार्यरूप में

सकल अंग बढ़ें पृथ्वी के बराबर, निम्न-उच्च की दूरी पटे॥

 

विकास नर का मन-प्रतिबिंब, पर भौतिक तक न सीमित

भला संसाधन- प्रयोग, रचनात्मकता ही करता है प्रस्तुत।

पर श्रम कर निज क्षेत्रों में, अन्यों से अधिक पारंगता पा ली

अतः कोई भी न निम्न अन्य से, विकास वाँछित है तथापि॥

 

मैं भी एक क्षुद्र मनुज एकांत भाव में कुछ करता हूँ मनन

चेष्टा चाहिए सुदृढ़ करना तब, जिससे उन्नति हो सम्भव।

गिनो निज दुर्बलताऐं, सक्षमों से सफलता-विद्या लेने की

सीखो उपाय जो क्षमता बढ़ाऐं, भला करें अन्यों का भी॥



पवन कुमार,
25 फरवरी, 2015 समय 23:49 म० रा०  
( मेरी डायरी दि० 5 नवम्बर, 2014 समय 9:33 प्रातः से )   

Monday, 23 February 2015

ऋतु-संहारम : शिशिर

ऋतु-संहारम 
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सर्ग-५ : शिशिर ऋतु  
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 समस्त भूमि विस्तरित पकी शाली एवं ईक्षों से,
समीर बजा रही छिपे क्रन्दन क्रोंच पंछियों के।
रमणियों का मनभावन प्रखर उत्साह से प्रेम बढ़ता है, 
ओ मेरी प्रिया, सुनो ! सर्द अब यहाँ है।१।

जन अब कपाटों को सख़्त बन्द कर लेते, अलाव जलाते,
धूप से अपने को उष्मित करते और भारी वस्त्र पहनते।
वर्ष के इस काल में पुरुष सुन्दर युवतियों की संगति ढूंढते।२।

 चन्द्रिका में शीतल न किया जाता आर्द्र-चन्दन
अब न तो घने तुषार से शीतल पवन।
न ही प्रासाद-छतों पर आलोक शरत-चन्द्र,
इस सर्द-काल में कोई ऐसी युक्ति मन को न करती प्रसन्न ।३।

सर्द, सर्द, तुषार पात भारी,
शशि-रश्मियों की हिमानी चमक और सर्द बढ़ाती। 
चमकते सितारें अप्रतिम पीत-सौन्दर्य से कांतिमान,
अब लोगों को आनन्द नहीं देती रात्रियाँ।४।

पत्नियाँ प्रेमातुर होती,
कुमुद-मद्य से सुवासित होते उनके मुखारविन्द। 
कृष्ण-अगरु धूप से सुगन्धित निज शयनागारों में प्रवेश करती,
लेकर पान, शेफालिका और मादक इत्र।५।

बेवफा रहते साजनों की रमणियाँ
कडुवाहट से करती भर्त्सना। 
उनको घबराया और लज्जामय पाती, तब भी,
प्रेम की गहन आकांक्षा से, उनके दोषों को देती भुला।६।

दीर्घ रात्रि की लम्बी काम-क्रीड़ा के सुख अबाधित 
उनके मनोज युवा हृदयेशों द्वारा अनुराग,
कामेच्छा और न रुकने की अति।
नवोढया रात्रि के अंतिम प्रहर में निकल जाती
चुपचाप कक्ष से, पीड़ित उरु-ऐंठन से लडख़ड़ाती।७।

चारु चोलियों में कसे उनके वक्ष-स्थल, 
जंघाऐं गाढ़े रंग के रेशमी दुकूलों से हुई छिपी।
उनके केशों में लगे पुष्प - जूड़ें, 
कामिनियाँ सर्दर्तु हेतु सजती हैं फिरती।८।

सर्दी भगाने हेतु कामी प्रेमी
खिलते यौवन की ऊष्मा का आनन्द लेते। 
केसर से मले, सुवर्ण से चमकते स्तनों से चिपक कर,
सुप्त, कामुक मनोहरी रमणियों के।९।

 विलासिनी, पतियों संग मद्यपान से युवा कामिनियाँ
उन्मादित हो जाती, आनन्द-दायिनी,
वासना उर्ध्व-वर्धिनी, मदिरा श्रेष्ठ है - स्वादिष्ट अति। 
कुमुदिनियाँ लजीली मद्य में तैरती,
उनके सुवासित श्वासों के नीचे हैं काँपती।१०।

भोर होने पर जब काम-ज्वार जाता उतर,
एक युवा रमणी जिसके सख्त हैं स्तनाग्र,
अपने सखा की बाँहों से निकल कर,
ध्यान से अपने पूर्ण आनन्द भोगे गात्र को देखती है। 
मुदित सी हँसती है, और शयनागार से निकल
गृह के आवास-कक्ष में चली जाती है।११।

एक और प्रिय पत्नी, भोर होने पर पति को है छोड़ देती, 
सुडौल एवं चारु, छरहरी कटि, सुदृढ़ पुट्ठे व गहरी नाभि। 
खुले लटकते भव्य घुँघराले केश,
पुष्प-मालिका नीचे सरके है जाती।१२।

स्वर्ण-कमल सा कांतिमय मुख, लम्बे एवं द्रवित नेत्र
मादक लाल अधर, और स्कन्धों पर खेल रहे सुसज्जित केश।
 सुन्दर योषिताऐं इन हिमानी सुबहों में
    दमकती फिरती हैं अपने आवासों में।१३।

पुष्ट नितम्ब-भार से कटि पर किंचित झुकते हुए नव-यौवनाऐं,
अपने सीनों के वजन से क्लांत हैं, बहुत शनै चलती हैं।
प्रेम के मधुर अनुष्ठान हेतु रात्रि-वस्त्रों को शीघ्रता से उतार देती हैं,
और दिवस कार्य अनुकूल अन्य वस्त्र पहन लेती हैं।१४।

नख-चिन्हों से भर दिए गए स्तनों की गोलाई को निहारती,
और चुम्बन-मर्दित अवर अधरों के अंकुर को सावधानी से स्पर्श करती। 
नव-यौवनाऐं प्रेम-पूर्णता के इच्छित चिन्हों को देख मुदित होती हैं,
और भोर होने पर अपने चेहरों को सजाती हैं।१५।

सर्द ऋतु, जो प्रचुर होती स्वादु धान एवं ईक्ष से,
और जब स्वादिष्ट शक्करों के ढ़ेर लगे होते। 
 काम होता अपने गर्वित उफान पर
व प्रेम-क्रीड़ा होती अपने चरम पर। 
जब दूर आशिकों की विरह-व्यथा बहुत होती मार्मिक,
यह ऋतु आप सभी के लिए सदा हो मंगल-सूचक।१६।


(महाकवि कालिदास के मूल ऋतु-संहारम, सर्ग-५ : शिशिर का हिन्दी रूपान्तरण प्रयास ) 

पवन कुमार,
22 फरवरी, 2015 समय 22:56 रात्रि 
( रचना काल 26 जनवरी, 2015 समय 3:15 अपराह्न )

Friday, 20 February 2015

ऊहोपोह

ऊहोपोह 



नर कभी न स्वयं-सहज, कभी इस-उस ऊहोपोह में रहता

न चाहते भी गिर्द समस्याऐं बुनता, उन्हीं में समय धकाता॥

 

क्या जिजीवाषा है जीव की, शान्त मन-धारक न बन पाता

कभी इसे या उसे, सर्वदा कुछ प्रतिद्वंद्वी घोषित कर लेता।

सामने वाला कितना भी अच्छा, उसकी बुराई ढूँढ़ ही लेता

जरा ढ़ील क्या हो गई, एक सज्जन भी दुर्जन लगने लगता॥

 

क्यों न विश्राम मन को, ध्यान पर-छिद्रान्वेषण में ही है सदा

जिव्हा चले अति चपल, परस्पर-बुराईयों में तो समय बीता।

माना मानव असहज स्वयं में, औरों से तो होगी बड़ी अपेक्षा

अनेक विरोधाभास स्वयं में लेते, व सदा करते हैं छटपटाया॥

 

क्यूँ यह एक शांत सा युद्ध, जब सभी को जीना-मरना यहीं

एक मौन परम्परा सी बन गई, यूँ ही बस असहज रहने की।

बहुदा मात्र पूर्वाग्रहों का ही साम्राज्य, न वैज्ञानिक दृष्टिकोण

बस आलोचना यूँ करते रहेंगे, मानो हमीं हैं सब पाक साफ़॥

 

कैसे बनता यह व्यक्तित्व, किञ्चित सुन-२ दुनिया का रोना

हम स्वयं अंतः-अस्वस्थ, व रोग किसी और पर चाहे थोपना।

न लेते जिम्मेवारी निज जीवन की भी, औरों पर टालते रहते

विश्वास करना खुद न जानते हैं, फिर भी आशा खूब करते॥

 

क्यों नर इतना शक्की, सदा अपने को पाता पाशित -व्यूह

कोई क्या करेगा बुराई, जब निज इरादों में पक्के हो तुम?

उद्योगशीलता-कर्त्तव्यपरायणता, विश्वसनीयता लाती आगे

लोग फँसे रहते वाक-क्रीड़ा, स्व व अन्य विव्हल हैं होते॥

 

क्यों नहीं सब आशा-अनुरूप, जब मानते सब न एक जैसे

कोई कहीं चपल या विफल, सब जगत-आयाम न मिलते।

सबकी परिस्थिति-सोच निज है, सर्वत्र न हो पाता सामंजस्य

अभिरुचि-अनुरूप हो कार्य-वितरण, कुछ हित हो संभव॥

 

पर वीर-हृदय नहीं आलोचना-भीत, सदा कार्य-कर्मठ रहते

निंदक-वंचक, मिथ्या-भाषी, नकारात्मक-मत हैं पीछे रहते।

माना सहायक हैं कमी-बताने में, जो स्वयं अदर्शित है बहुदा

 तो भी आलोचक स्व-उद्देश्य तो, प्रायः नकारात्मक ही रहता॥

 

प्रश्न शुरू मन-क्रिया से, जो सदा दूसरों से न खुश रह पाती

जब बड़ी समस्या सुलझती, अन्य राई का पर्वत बना डालती।

बस उसी चक्र में घूमे जाते बंधु, स्व-विकास में बाधा है होती

जब समय-सदुपयोग था संभव, कुछ उत्तम स्व व अन्यों हेतु॥

 

यह 'खाली मस्तिष्क शैतान का घर', सदा हमें रखता विव्हल

मिला समय बैठने का, औरों का रोना लेकर जाते हैं बैठ बस।

जब अशक्त हैं समक्ष कहने में, तो परोक्ष ही मन में बुदबुदाते

न जानते मन-प्रक्रिया, बस कुछ ढूँढ़ लेते व व्यथित हैं रहते॥

 

पर नैसर्गिक मन-क्रिया, कठोर निर्णय पर हितैषी है अंततः

मन समस्या से बिल्बता, पर हल सबको खुश करने में न।

हमें भला लगे या बुरा, अपनी गति से चला करता है जगत

प्रयत्न से कुछ तो सुसंभव, पर यथा-स्थिति वादी असन्तुष्ट॥

 

यह किञ्चित न बदलना शैली, चाहे अगला भला हो चाहता

निज खीज दूजों पर उतारे, उधेड़बुन में समय व्यर्थ बीतता।

आलोचक अगर समालोचक बनें, और उद्देश्य हो सर्व-लाभ

माना हम सत्य, तो भी मन-प्रक्रिया का करें सार्थक प्रयोग॥



पवन कुमार,
15 फरवरी, 2015 समय 18:38 सायं 
( रचना काल 4 दिसम्बर, 2014 समय 7:47 प्रातः )     

Tuesday, 17 February 2015

ऋतु-संहारम: हेमन्त-ऋतु


ऋतु-संहारम 
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सर्ग-४ : हेमन्त ऋतु  
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प्रवाल नव-पल्लव यकायक फूँटकर बड़े

पुलकित लगते, लोधरा पुष्प पूर्ण यौवन पर हैं,

और पकी शाली (धान) स्वर्णिम है। 

सब कमल अब विलीन हो गए हैं, 

         घनी तुषार ने शिशिर में करा दिया प्रवेश है।१।

 

रक्त केसर वर्णी कुन्द-पुष्प मालाओं से मनोहर, 

चमकते जैसे तुषार-कण एवं चन्द्र।

       विलासिनी-स्तन मण्डल हो रहे हैं अलंकृत।२।

 

मतवाली चाल वाली कामिनियों के

पुष्ट पयोधर नूतन चोलियों में न समा पाते। 

नए रेशमी परिधान उनके नितम्बों से नहीं चिपकते,

      हस्त-कंगन और भुजबंद अंगों से सामंजस्य न बना पाते।३।

 

रमणियाँ अपने यौवन और सौन्दर्य गर्व में,

नितम्बों को कंचन-रत्न मेखलाओं से सजाती न।

उनके चरण-कमलों की पायज़ेबों का नूपुर-संगीत, 

हंस-ध्वनि सम होता है मधुर।४।

 

 नारियाँ अब सुरतोत्स्व (कामोत्सव) हेतु तैयार होती,

अपने केशों को कृष्ण अगरु धूम्र से सुवासित करती।

अपने कमलमुख पर पत्र-लेखा लगाती,

      और गात्रों को शुक्ल चन्दन चूर्ण से लेप करती।५।

 

प्रेम-क्रीड़ा थकन से पाण्डु हुआ मुख और खिंचा सा बदन,

नव-यौवनाऐं, जिनके अधर प्रेमी-चुम्बनों से रक्तिम हैं। 

जोर से हँसने से डरती हैं, 

       बेशक निकट कोई आनन्दोत्स ही न हो चाहे।६।

 

कामिनियों के कामुक सौष्ठव वक्ष इन्द्रियगोचर

करके, लेकिन उनको कड़ा मर्दन किए जाने से।  

भोर समय हेमंत रो सा पड़ता, अश्रु-बिन्दु गिराता,

जो दूब - तृणों के सिरों पर चिपक से जाते हैं।७। 

 

पकते धानों से खेत परिपूर्ण हैं, 

जहाँ मृगणियाँ झुण्डों में फिरती मंजुल। 

मादा सारस की नाद सुमधुर होती,

       आह! कितनी व्यग्रता जगाते हैं ये सब।८।

 

 जहाँ तालों में शीतल जल झिलमिलाता,

नील-कमल सुन्दरता से चौड़े खिलते।

बत्तखें अति-उन्माद में प्रेम जताती, ऐसे में

  सब हृदय असीमित आनंद को प्राप्त होते।९।

 

जमाते पाले में दुर्बल, रक्तहीन सा,

बहती पवन में सदा काँपता रहता जैसे एक

प्रमुदित बाला अपने कांत से हर ली गई हो।

अब प्रियांगु (श्याम बेल) पाण्डु है पड़ता,

ओ मेरी मोहिनी !१०।

 

पुष्प-मदिरा खुशबू से महकते मुख, 

मिश्रित श्वासों से अंग सुवासित। 

प्रेमी-युग्म सोते हैं परस्पर आलिंगन कर, 

प्रेम की मधुर कविता बनकर।११।

 

नीले अधरों पर प्रेम-चुम्बन के प्रखर निशान, 

स्तनों पर बलमा की चुटकियों के चिह्न। 

सब आवेशित विलास को स्पष्ट दर्शाते अनवरत, 

ये सुन्दरियों की यौवन-लाली में प्रथम।१२।

 

एक विशेष रमणी हाथ में दर्पण लिए, 

अपने दमकते कमल-मुख को सजाती है,

भोर की मृदु दिवाकर-ऊष्मा में धूप खाती है।

बड़े आनंद से मुख फुला कर प्रेम-चुम्बन देखती है,

      जो आशिक ने अधरों का मधुपान करते हुए छोड़े हैं।१३।

 

एक अन्य काँची की काया सुरतश्रम* से खिन्न है,

उसके पद्म-नेत्र दीर्घ रात्रि में जागने से रक्तिम हैं, दुखते।

गहन-निद्रा में सोती है मृदु भानु से होते उष्मित,

आकुल स्कन्धों से लटकते केश-बन्ध उसके।१४।

 

सुरतश्रम* : संभोग-क्लेश

 

अन्य छरहरी कान्ताऐं,

जिनकी देह उन्नत स्तन-वजन से किञ्चित नम हैं,

    अपने मस्तकों से केश हटाती हैं, पुनः सँवारती हैं।

रात्रि में सजा घन-नील वर्णी पुष्पहार कुम्हला गए हैं,

 जो एक बार आनन्द देकर खो बैठे सुवास अपनी हैं।१५।

 

एक अन्य मटकते नैनों वाली प्रिया

जिसकी लट उलझी है चंचल वक्रों में,

अपने अधरों की चारु शोभा को सहेजती है।

प्रेमी द्वारा आनन्दित काया को देखती है, 

फिर सावधानी से नखक्षत अंगों को तब

       हर्ष से भर उठती व चोली पहन लेती है।१६।

 

लम्बी कामुक युवा-क्रिया से क्लान्त

अन्य रमणियाँ शिथिल कोमल देहों की 

सुगन्धित तेलों से मालिश करती हैं।

शीतल पवन उनके पयोधरों (स्तन)

      एवं उरुओं (जंघा) में सिहरन छोड़ती है।१७।

 

यह सुखदायी हेमन्त काल

अपने बहुगुणों से रमणियों के चित्त हरता,

ग्राम सीमांत परिपक्व धन-धान्य* से परिपूर्ण हैं। 

जब क्रोंच विहंग पंक्तियाँ अति सुन्दर हैं, 

     यह तुषार काल आप सभी को मंगल दे।१८।

 

धन-धान्य* : शाली, धान

 

(महाकवि कालिदास के मूल ऋतु-संहारम, सर्ग-४ :  हेमन्त 

का हिन्दी रूपान्तरण प्रयास) 

 

पवन कुमार,

१६ फरवरी, २०१५ समय २०:२० सायं 

(रचना काल २५ जनवरी, २०१५ समय १०:१५ रात्रि)

Saturday, 14 February 2015

ऋतु-संहारम : शरद ऋतु

ऋतु-संहारम 
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सर्ग-३ : शरद ऋतु  
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पीत रेशम से काश-पुष्प अंशुक में, प्रफ्फुलित कमल सा मुख,

उन्मादित हंसों की किल्लोली, उसके नूपुरों का नाद मधुर।

किञ्चित झुकी सी, काया शाली* की पकती बालियों सी,

रमणीय रूप लिए वधू भाँति आती है, शरद अब।१।

 

शाली* : धान

 

मही* काश-पुष्पों से श्वेत चमकती, रजनी श्वेत चन्द्र-किरणों से,

सरिताऐं वन-हंसों से श्वेत, सरोवर श्वेत कुमुदों से। 

अरण्य सप्तच्छद वृक्ष कुसुम-भार से झुके,

उपवन शुक्ल सुवासित मालतियों से।२।

 

मही* : पृथ्वी 

 

नदियाँ सहज बहती एक गर्वित नव-यौवना सी,

कमर-बंद जिसकी दक्ष मीनें उछाल लगाती।

और अब उसकी मालाऐं तीर के श्वेत खग-वृन्द,

चौड़े तीरों पड़ी महीन बालू उसके नितम्ब।३।

 

एक जल-शुष्क मेघ-दल, सुन्दर, चाँदी-पीली सागर-सीपियों सा,

आगे-पीछे अति-सहज तीव्र हवाओं संग इतर-तितर स्वछन्द उड़ता।

आकाश प्रतीत होता एक महाराजाधिराज भाँति,

जिनको वात हिला रहे शतों चँवर रेशमी।४।

 

नभ एक चिकना काजल सा चमकता,

धूसरित मही जैसे बंधूक-परागकणों से उषा। 

सुरुचिर सुवर्णी निर्झरी* तट, खाद्यान्नों से भरे खेत-खलिहान,

ऐसी तरुणाई में किसका हृदय न होगा ग्रसित-चाह? ।५।

 

निर्झरी* : नदी 

 

इसकी उच्च-शिखाऐं हिलती एक शालीन बयार से,

सुरमयी पल्लव और पुष्प-प्रकीर्ण होता शिखर से।

टपकते मकरन्द पर पियक्कड़ से झूम रहे भ्रमर, इस

      कोविदार* तरु-लालित्य से बहकेगा किसका न मन?।६।

 

कोविदार* : कचनार

 

असंख्य तारकों से विपुल-आभूषित रजनी,

स्व को चन्द्र-प्रभा परिधान में लपेट लेती;

 जब शशांक अपने मुख को करते मन्द

अम्बुदों से मुक्त कराने का करता संघर्ष।

दिन पर दिन बढ़ती वह नव-यौवना सी,

     शालीनता से गर्वित स्त्रीत्व में बढ़ाते कदम।७।

 

वन-हंस का शोकाकुल नाद संगीत सा बजता,

तरंगिणी कमल-पराग रंजित लाल गुलाब सी बहती,

व घूमती लहरों से आंदोलित, जहाँ जल-मुर्गाबी डुबकी लगाती।

कृष्ण हंस व सारस पक्षियों की धक्का-मुक्की से किनारे शोरगुल,

चारों ओर जलधाराऐं मोह लेती हैं, दर्शकों का मन।८।

 

कांतिमान प्रभामंडल से नेत्र-प्रिय शशि सब दिल बाँध लेता,

वह प्रमोद-प्रणेता, तुषारों सी शीतल रश्मि बिखेरता।

वह अंगों को आत्मसात करता रमणियों के,

     जो घायल हैं, पति-वियोग के विषैले शरों से।९।

 

 एक पवन-झोंका भुट्टों को झुकाता झूमती मक्का के,

विशाल वृक्ष नृत्य करते, पुष्प-भार से नमस्ते करते।

सरोवर सिक्त हैं स्पन्दित अरविन्द पुष्पों से,

       और युवा दिलों को निर्दयता से व्यग्र करते हैं।१०।

 

 सरों की प्राणलेवा लहरती रमणीयता सुवासित

भोर-समीर से, जहाँ कमल एवं मकरंद खिलें तेज़ से। 

प्रेमानुरक्त वनहंस-युग्ल तैर रहे होते, सम्मोहित करते,

भर देती है यकायक हृदय को उत्सुकता से।११।

 

इन्द्र-धनुष छिप गया है मेघों के उदर,

अब और न चमकती है चपला आकाश-ध्वज।

बगुले पंखों से पवन को और न छपछपाते हैं,

     अब मयूर मस्तक उठाए नभ को न ताकते हैं।१२।

 

नृत्य-प्रदर्शन बन्द हुआ, छोड़ा मयूरों को आनन्द ने,

   सुनने हेतु मधुप्रिय सहगान वनहंसों के।

ललित, प्रवीण मञ्जरी काल, कदम्ब, कुटज, कुकुभ,

सर्ज और अशोक खिलते हैं सप्त-प्राण में अब।१३।

 

खेल-खेल में परस्पर ठेलते, श्वेत-लाल राजीव से,

सुखद शीतल प्रेम-विव्हलित कम्पित होते।

पल्लवों के किनारों से ओस-बिंदु पोंछते,

         उषा काल समीर उर कँपाती उत्कट इच्छा से।१४।

 

देखकर ग्राम्य-सीमाऐं जन-मानुष प्रसन्न होते,

जो भरी होती अबाधित अनेक गो-झुण्डों से।

वहाँ पड़े हैं खाद्यान्नों के ढेर खलिहानों में,

        पवन सुनाती क्रन्दन-नाद वनहंस व सारसों के।१५।

 

हंस-चाल मात देती एक मादक-कामिनी के चरण-आनन्द को विरले,

पूर्ण-खिलित कमल चमकते, सोम-मुख की दीप्ति से भी स्पर्धा करते।

नील-जलकुमुदिनियाँ कामोन्मादित नेत्र-लावण्य को भी पीछे छोड़ती,

      व कोमल लघु तरंगों की रमणीयता, गरिमामयी भौंह मटकाने की।१६।

 

श्याम बेलें कोमल फूलों से भरी शाखाओं से मुड़ी होती,

और रमणी के आभूषित अंगों की शोभा को लोहा देती।

ताज़ा चमेली अशोक-पुष्पों के मध्य से झाँका सी करती,

और शशि प्रकाश के सौंदर्य को भी पीछे छोड़ती।१७।

 

नव-यौवनाऐं भरी होती चमेली कलियों की छटा से,

रात्रि-मध्य उनके घने केश लगते छोरों पर घुँघराले।

विभिन्न नील-कमल वे लगा लेती हैं,

       अपनी सुन्दर सुवर्ण कर्ण-बालियों के पीछे।१८।

 

सुडौल स्तन सजे हैं चन्दन वर्ण मोतियों से,

उनके चौड़े नितम्ब नूपुर बंधित मेखलाओं से।

     बहुमूल्य पायजेब उनके कमल-चरणों से अब मधुर संगीत बजाती,

            अन्तर में अति प्रसन्न खिली सी, यामिनियाँ स्व-चारुता बढ़ाती।१९।

 

शशि एवं असंख्य नक्षत्रों से जड़ित मेघ रहित नभ,

जवाहिर चमक सम उत्कृष्ट ताल-सौम्यता रही दमक। 

खिले शशि-कमलों सी है विस्तृत,

       और प्रशान्त सा तैर रहा है एक राजहंस।२०।

 

विस्मयी मेघान्त गगन, निशा छितरी हुई सितारों से,

 शुद्ध आलोकित चन्द्र-रश्मियों से, शीत लावण्यमयी हैं नभ-दिशाऐं।

जमघटी पावस धराधरों से वसुधा शुष्क, जल विशुद्ध स्वच्छ है,

समीर शीतलता से बहती है मिलकर राजीवों से।२१।

 

प्रातः रश्मियों से जागृत, अब खिल जाता,

 दिवस पंकज एक मनमोहिनी कामिनी के मुख सा।

पर चन्द्र-कमल शशि अस्त होने पर कुम्हला जाते हैं जैसे,

वे सजनियाँ, जिनके बालम घर से दूर परदेश गए हैं।२२।

 

अपनी प्रेयसी के कृष्ण-नयनों की लाली, नील-कमलों में देखते,

सुवर्ण मेखला के नूपुर-सुर, प्रेमोन्मादित वनहंस-कलरव में सुनते।

उसके अवर अधरों की लाली, बंधूक के भड़कीले गुच्छों में

                   स्मरण करते यात्री, ख्यालों-उन्माद में खोए से अतिरंजित होते।२३।          

 

निशीथ* भरता सुन्दरियों के चेहरे आभा में,

वनहंस-श्रुति सरगम भरती उनके रत्नाभूषण पायलों में।

आकर्षक बन्धूक-पुष्प लालिमा मिलती उनके निचले होंठों को

    उदार प्रचुर शरत-वैभव अब बिछुड़ रहा, जाने कहाँ कौन?।२४।

 

निशीथ* : चन्द्रमा 

 

पूर्ण-खिलित अरविन्द पीत गुलाबी सा उसका मुख,

खिलती गहरी नील कुमुदिनियाँ जैसे उसके कृष्ण नयन।

ताज़े शुक्ल काश-पुष्प दीप्तिमान परिधान उसका, भव्य चन्द्र सा चमकता;

प्रियतमा जैसे तेरे प्रेम में खो गई, यह अप्रतिम सुख दे तेरे उर को ऐसा।२५।

 

(महाकवि कालिदास के मूल ऋतु-संहारम, सर्ग-३ : शरद 

के हिन्दी रूपान्तरण का प्रयास)

 

पवन कुमार,

१४ फरवरी, २०१५ समय १४:१७ अपराह्न 

(रचना काल २४ जनवरी, २०१५ समय १०:२६ प्रातः)


Thursday, 12 February 2015

ऋतु-संहारम :पावस

ऋतु-संहारम 
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सर्ग-२ : पावस 
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जलाच्छादित मेघों संग चिंघाड़ते धृष्ट मतंग*,

दामिनी-ध्वज लिए व गर्जन तालियों की ढोल थाप।

प्रेमियों का स्वागत है, गगन-चुम्बी गौरव,

नृप की भाँति आती है ऋतु पावस,

 ओ मेरी प्रिया !१।

 

मतंग* : हाथी 

 

चहुँ दिशा घनघोर घटाओं का घटाटोप,

नभ नीलकमल पंखुड़ियों की गहन चमक सा प्रतीत होता।

कृष्ण जगह-जगह जैसे हमवार मिश्रित काजल का ढेर,

    दीप्त चहुँ ओर जैसे माता ने शिशु वक्ष से चिपका रखा।२।


महद तृष्णा त्रसित चातकों के अनुनय-विनय से,

विपुल जल-राशि के भार से नीचे हुए लटकते।

विशाल बादर शनै-२ बढ़ते, मूसलाधार बरसते,

और कर्ण प्रिय हैं गर्जन-स्वर उनके।३।

 

प्रक्षेपित वज्रपात एक भय सा करता उत्पन्न,

चपला धारियों से पिरे हैं इंद्र-धनुष।

प्रखर तेज बौछारों को ढीला छोड़ते - उत्तम सधे निर्दयी शर,

निर्दयी अम्बुद गेह-दूरस्थ पति-हृदयों को करते हैं आकुल। ४।

 

वसुंधरा नरम तृण-फूँटों का आवरण पहन लेती, चमकती

यथा पन्ना, जो प्रकाश-किरण सम्पर्क से लगता कंपकंपाने।

कांडली* की पल्लव कलियाँ खिल उठती, और इन्द्रगोप*

   चकित कर जाते, जैसे एक रमणी लदी हरे-लाल रत्नों से।५।

 

कांडली* : बिच्छू-बटी; इन्द्रगोप : लेडीबर्ड

 

सारंगों* का बड़ा वृन्द सदा आनन्द-नाद करता,

उत्सुकता से इन उत्सवी क्षणों को निहारता।

चोंच-लड़ाई और दुलार की हड़बड़ाहट में है फँसा,

भव्य पंख पूरा फैलाए अब नृत्य करने है लगा।६।

 

सारंग* : मयूर

 

सरिताऐं पंकिल जलराशि से फूली हुई हैं,

प्रबल शीघ्रता से सागर ओर दौड़ पड़ी हैं।

 अपने तीर-तरुओं को हिलाए, गिराए जैसे

     व्यभिचारिणी कामुक-कल्पनाओं से भरी है।७।

 

हरी-भरी हरियाली दूब नरम-फूँटों से सुशोभित,

शाकाहारियों के मुखों से गिरी, बिखरी इतर-तितर। 

 किसलय के वृक्ष मनोहर, कन्दराऐं-विन्ध्य

 अब दर्शक का कर लेती है उर-वश।८।

 

नदी-निर्झर रमणीयता से प्रमुदित समस्त बियाबान चिह्न,

आसानी से भौचक्के होते मृगों को देते हैं आश्रय।

 विस्मित करते जैसे नीली-कुमुदिनियों से, काँपते उनके नयन,

और यकायक बेकरारी से कसमसाने सा लगता है हृदय।९।

 

धराधर* उच्च स्वर में बारम्बार गर्जना करते,

रात्रियाँ घोर तिमिरमय हैं।

मात्र तड़ित-प्रकाश ही मार्गों को दीप्त करता तथापि गुप्त भेंट

करने प्रेमातुर कामोन्मादित तरुणियाँ अपने पथ पर हैं।१०।

 

धराधर* : बादल

 

मेघ फूट पड़ते, भयंकर गड़गड़ाहट से

कोलाहल करते, दामिनियाँ चमकती। 

भीत ललनाऐं काँपती बिस्तरों में, अपने भर्तारों से हैं चिपक जाती,

   हालाँकि, ये नर निज कुत्सित व्याभिचारी प्रवृत्तियों के हैं दोषी।११।

 

नील-पंकज से प्रिय नयनों से, पके बेर से अश्रु पड़ते

कोमल अधरों पर, जिनके पति विदेश यात्रा गए हैं।

वे पत्नियाँ दुखित हैं और अपने आभूषण, पुष्प एवं

सुगन्धि एक ओर उतार फेंकती हैं।१२।

 

कीट, मृदा एवं तृण-तिनकों से लिपटा,

वर्षा-सर्प मटमैले वर्ण का एक।

मुण्ड नीची किए अपने पीड़क पथ पर धीरे-२ बढ़ता अग्र,

  उसे बड़ी उत्सुकता से रहा है देख अधीर टोडर-दल।१३।

 

त्याग देते वे सर जहाँ पद्मों ने कर दिए पल्लव क्षिप्त,

भ्रमर मधुर गुनगुनाते हैं, मधु के प्यासे हैं, वे मूर्ख ।

नृत्य करते मयूर-पंखवृत्त गिर्द बना लेते जमघट सम,

इस आशा में कि ये नूतन कोंपलें हैं अरविन्द।१४।

 

प्रथम मेंह अम्बुधर के गर्जन से

वन-हस्ती क्रोधित हैं, पुनः-२ चिंघाड़ते हैं। 

शुभ्र-नीले कुमुदों से ताल पूर्णतया आच्छादित हैं,

उनके विशाल कर्ण अपने ऊपर झुंड बनाती

मक्षिकाओं की फैलाव-रेखाओं से।१५।

 

सब दिशाओं पर जड़ित चमकते जल-प्रपात,

मयूरों से परिपूर्ण, जो कर रहे हैं अपना नृत्य प्रारम्भ।

शिला चूमते, अल्प ऊँचाई पर लटके, बारिश भरे मेघ,

पर्वत लगाते हैं असहनीय तड़पन।१६।

 

कदम्ब एवं सर्ज-कुञ्जों से बहती, और

केतकी एवं अर्जुन तरुओं को हुई हिलाती,

जो अपने कुमुदों की महक से हैं सुवासित।

मेघों का संग करती, वर्षा-जल से शीतल होती,

          बताओ ऐसी बयारें किसे तमन्नाओं से न देंगी भर? ।१७।

 

 केश नितम्बों के नीचे आते हैं, सुवासित पुष्प

कर्णों के पीछे गुँथे, मोती-मालाऐं करती स्तनों से प्रेम-स्पर्श।

मदिरा श्वासों को सुगन्धित करती, इन सबसे रमणियाँ

अपने महबूब-हृदयों में लगाती हैं अग्न।१८।

 

इन्द्र - धनुषों की झलक से, 

चपला-स्फुरण से महीन सुवर्ण-नक्काशी सा काम,

जीवन-दायक बादल नीर से भरे, लटकते।

 कामिनियाँ जवाहिर-जड़ित बालियों से चौंधियाती,

और कमर-बन्द नूपुरों की माला से सजे,

       ये दोनों मिलकर विदेश गए साजनों के दिहैं चुराते।१९।

 

योषिताऐं घुँघराले केश नव कदम्ब-पुष्पमाला से गूँथती,

केसर-कली व केतकी-पत्र व कर्णों ऊपर बाली सी लगाती।

अर्जुन की पुष्पण शाखाओं को, और इन सबको अति

मनोहर आकृतियों में हैं सजाती।२०।

 

पुष्प-सुवासित शानदार केश और

आर्द्र चन्दन व कृष्ण घृतकुमारी लेपे कोमलांगी ललनाऐं,

बादर-गर्जन सुनकर, कुछ डरकर ही प्रथम रात्रि प्रहर में। 

अपने ज्येष्ठों के आवास से निकल कर जाती,

     व शीघ्र ही प्रवेश कर जाती शयन-कक्ष में ।२१।

 

आसमानी वर्ण के पंकज-पल्लव से गहरे नीले बुलन्द जलधर,

वारि भरे, नीचे झुके, करते बौछार हैं इंद्र-धनुषी ज्योति संग

अलक्षित रूप से गति करते द्वारा समीर मंद

वे कामिनियों के जी को निकाल लेते, जो अपने

          नाथों के अति-दूर जाने से पहले ही हैं अति-क्लांत।२२।

 

पावस की प्रथम झड़ियाँ, अकाल दुर्बल करती, प्रसन्नता से

झूम उठती वन-स्थलियाँ, जैसे कदम्ब यौवन में बढ़ाते कदम। 

केतकी की सुनहली पल्लव-कलियों के दृश्य से होती पुलकित,

    नृत्य करती व तरु पवन-झोंकों से दिखाते भाव झूम-२ कर।२३।

 

वर्षा काल में सजते बकुल-पुष्पहार, मालती कलियों संग,

नव-यौवनाओं के मस्तकों पर ताजा खिले यूथिका कुमुद।

जैसे एक अनुरक्त पति का प्रेम और नूतन

       कदम्ब-लड़ियाँ लिपटती उनके कर्णों पर।२४।

 

तरुणियाँ सुंदर वक्षों को सजाती मोती-शेफालिका से,

महीन पीले रेशम-दुकूल से सुडौल वक्र-कटि ढक लेतीं

जिसके नीचे की एक महीन रेखा नाभि तक ऊपर है चढ़ती,

मिलन हेतु शीतल सिहरती, ताजी वर्षा-बिन्दुओं का सम्पर्क पाने हेतु,

कितने मनोरम हैं वे बन्ध, जो लीक खींचते हैं कमर में उनकी।२५।

 

केतकी-पराग से महकती, स्वच्छ मेंह की नव-फुहारों

से शीतल, जिसको नृत्य का आदेश दिए जाती है बयार,

गाछ पुष्पों के वजन से झुक जाते हैं। 

           ये सब विदेश गए पुरुष-हृदयों को अचेत कर देते हैं।२६।

 

यह महान विंध्याचल हमारा सुदृढ़ आलम्बन,

मेघ जल-भार से दोहरे जाते हैं झुक

पावस बदरा झुक के नीचे अपनी फुहारों की सौगात देती

और अति प्रसन्न होती दारुण झुलसती विन्ध्य की पर्वतिका,

      ग्रीष्म की भीषण जंगली ज्वालाओं से, जो दावाग्नि लगाती।२७।

 

चित्तहारी रमणियों के लिए सम्मोहक स्रोत,

वृक्ष, विटप एवं लताओं का चिर-बन्धु,

सब जीवों का निर्विकार प्राण-दायक।

यह जलद-समय इन मंगल कामनाओं में,

        तुम्हारे कल्याण के सर्व मनोरथ करे पूर्ण।२८।

 

(महाकवि कालिदास के मूल ऋतु-संहारम, सर्ग-२ : पावस 

के हिन्दी रूपान्तरण का प्रयास)

 

पवन कुमार,

१२ फरवरी, २०१५ समय ९:५० प्रातः 

(रचना काल १६.०१.२०१५ समय १०:१९ प्रातः)