नर कभी न स्वयं-सहज, कभी
इस-उस ऊहोपोह में रहता
न चाहते भी गिर्द समस्याऐं
बुनता, उन्हीं में समय धकाता॥
क्या जिजीवाषा है जीव की,
शान्त मन-धारक न बन पाता
कभी इसे या उसे, सर्वदा कुछ
प्रतिद्वंद्वी घोषित कर लेता।
सामने वाला कितना भी अच्छा,
उसकी बुराई ढूँढ़ ही लेता
जरा ढ़ील क्या हो गई, एक
सज्जन भी दुर्जन लगने लगता॥
क्यों न विश्राम मन को,
ध्यान पर-छिद्रान्वेषण में ही है सदा
जिव्हा चले अति चपल,
परस्पर-बुराईयों में तो समय बीता।
माना मानव असहज स्वयं में,
औरों से तो होगी बड़ी अपेक्षा
अनेक विरोधाभास स्वयं में
लेते, व सदा करते हैं छटपटाया॥
क्यूँ यह एक शांत सा युद्ध,
जब सभी को जीना-मरना यहीं
एक मौन परम्परा सी बन गई,
यूँ ही बस असहज रहने की।
बहुदा मात्र पूर्वाग्रहों का
ही साम्राज्य, न वैज्ञानिक दृष्टिकोण
बस आलोचना यूँ करते रहेंगे,
मानो हमीं हैं सब पाक साफ़॥
कैसे बनता यह व्यक्तित्व,
किञ्चित सुन-२ दुनिया का रोना
हम स्वयं अंतः-अस्वस्थ, व
रोग किसी और पर चाहे थोपना।
न लेते जिम्मेवारी निज जीवन
की भी, औरों पर टालते रहते
विश्वास करना खुद न जानते
हैं, फिर भी आशा खूब करते॥
क्यों नर इतना शक्की, सदा
अपने को पाता पाशित -व्यूह
कोई क्या करेगा बुराई, जब
निज इरादों में पक्के हो तुम?
उद्योगशीलता-कर्त्तव्यपरायणता,
विश्वसनीयता लाती आगे
लोग फँसे रहते वाक-क्रीड़ा,
स्व व अन्य विव्हल हैं होते॥
क्यों नहीं सब आशा-अनुरूप,
जब मानते सब न एक जैसे
कोई कहीं चपल या विफल, सब
जगत-आयाम न मिलते।
सबकी परिस्थिति-सोच निज है,
सर्वत्र न हो पाता सामंजस्य
अभिरुचि-अनुरूप हो
कार्य-वितरण, कुछ हित हो संभव॥
पर वीर-हृदय नहीं
आलोचना-भीत, सदा कार्य-कर्मठ रहते
निंदक-वंचक, मिथ्या-भाषी,
नकारात्मक-मत हैं पीछे रहते।
माना सहायक हैं कमी-बताने
में, जो स्वयं अदर्शित है बहुदा
तो भी आलोचक स्व-उद्देश्य तो, प्रायः नकारात्मक
ही रहता॥
प्रश्न शुरू मन-क्रिया से,
जो सदा दूसरों से न खुश रह पाती
जब बड़ी समस्या सुलझती, अन्य
राई का पर्वत बना डालती।
बस उसी चक्र में घूमे जाते
बंधु, स्व-विकास में बाधा है होती
जब समय-सदुपयोग था संभव, कुछ
उत्तम स्व व अन्यों हेतु॥
यह 'खाली मस्तिष्क शैतान
का घर', सदा हमें रखता विव्हल
मिला समय बैठने का, औरों का
रोना लेकर जाते हैं बैठ बस।
जब अशक्त हैं समक्ष कहने
में, तो परोक्ष ही मन में बुदबुदाते
न जानते मन-प्रक्रिया, बस
कुछ ढूँढ़ लेते व व्यथित हैं रहते॥
पर नैसर्गिक मन-क्रिया, कठोर
निर्णय पर हितैषी है अंततः
मन समस्या से बिल्बता, पर हल
सबको खुश करने में न।
हमें भला लगे या बुरा, अपनी
गति से चला करता है जगत
प्रयत्न से कुछ तो सुसंभव,
पर यथा-स्थिति वादी असन्तुष्ट॥
यह किञ्चित न बदलना शैली,
चाहे अगला भला हो चाहता
निज खीज दूजों पर उतारे,
उधेड़बुन में समय व्यर्थ बीतता।
आलोचक अगर समालोचक बनें, और
उद्देश्य हो सर्व-लाभ
माना हम सत्य, तो भी
मन-प्रक्रिया का करें सार्थक प्रयोग॥
Ramesh Kadiyan : Very true sir.
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