कैसे निर्गम हो
अंतर्कक्ष-तमस, एवं ज्योति-पुँज आव्हान
कौन से वे अभिज्ञ विषय हैं,
जो तुच्छ मन द्वारा ज्ञेय इस?
क्या मेरी प्रकाश- पूँजी ही,
कितना लाभान्वित हो पाता
क्या मेरी क्षमता में आता,
कितना सदुपयोग कर पाता?
कौन से हैं उपलब्ध
ऊर्जा-रूप, कैसे कार्यान्वयन संभव
प्रकाश-स्रोत समीप भी है, पर
क्या स्विच अपने निकट?
कैसा मैं मानव हूँ, जो विश्व
से बस सकल लिए है जा रहा
कितना देय सिर पर ही रखोगे,
ऋण तो बढ़ता जा है रहा?
कैसे हिसाब दोगे, और कौन
तुम्हारे नाम का चुकाएगा ही
निज लिए ही सब उत्तरदायी
हैं, अतः दायित्व समझो भी॥
कई जगत-भोग हैं लिप्त
मन-काया पर, मुक्ति-चेष्टा नहीं
फिर एक नियमित क़िस्त बना
लें, करने को ऋण-मुक्ति।
जगत-गति न मात्र मनन से,
चाहिए घन भौतिक-विकास
तेरा मन निज-क्षेत्र है,
दूजे चाहते रोटी-कपड़ा व मकान॥
यदि श्रेष्ठ हो मन-तन शक्ति
में, परोपकार में योग कर दो
परिवर्तन एक बेहतरी हेतु हो,
ऐसे विपुल उपाय कर दो।
जहाँ बैठे लो वहाँ की
जिम्मेवारी, अपना सर्वस्व झोंक दो
यदि एकाकी नहीं संभव है,
अन्यों को भी साथ में ले लो॥
प्राण-लगाम कर-पकड़, कहीं
रथ-अश्व पथ-विहीन न हों
हर इन्द्रि पर हो पूर्ण
निग्रह, अधिकतम श्रेयष उपयोग हो।
उत्तम सेवक होने पर भी,
स्वामी तो कर्मठ होना ही चाहिए
क्या-कैसे करें सबको
सूचीबद्ध, अनुशासन-प्रबंधन लाइए॥
कितना भी स्वयं में श्रेष्ठ,
उससे कितना जग-भला संभव
माना एक शठ कम, आवश्यकता
मानव-रचना की पर।
क्षुद्र-स्वार्थ, नर- सुलभ
दुर्बलताऐं, वीर-पथ न करती रुद्ध
विशाल उर-स्वामी सर्वहित में
ही, देखा करते निज हित॥
एक परन्तप नर बनूँ, जिसकी
परिधि हो सकल ब्रह्माण्ड
समस्त जंगम-स्थावर हैं
शाखाऐं, जीवन हो इसका प्राण।
मानव को नहीं समझूँ दुर्बल,
सब निज ढ़ंग से जीना सीखें
तुम्हीं न सब बुद्धि-स्वामी,
अन्य भी चिंतन संग पैदा हुए॥
पर अवश्य ही कुछ ऐसे मार्ग,
जो हमारी क्षमताऐं बढ़ाते
सब विद्यालय-प्रशिक्षण
केंद्र, अग्रसरण-सहायता करते।
न आवश्यक भले अस्त्रों का,
उपयोग भी उनके अनुरूप
अनाड़ी दुरुपयोग से, निज व
अन्यों की हानि देते हैं कर॥
किंतु सब अनाड़ी न होंगे,
प्रशिक्षक उत्तम प्रेरक हों यदि
सार्वभौम विकास भेद-भाव बिना
समरसता में करे वृद्धि।
मनुज-विचार बढ़ें उच्च अवस्था
में, परिणत हो कार्यरूप में
सकल अंग बढ़ें पृथ्वी के
बराबर, निम्न-उच्च की दूरी पटे॥
विकास नर का मन-प्रतिबिंब,
पर भौतिक तक न सीमित
भला संसाधन- प्रयोग,
रचनात्मकता ही करता है प्रस्तुत।
पर श्रम कर निज क्षेत्रों
में, अन्यों से अधिक पारंगता पा ली
अतः कोई भी न निम्न अन्य से,
विकास वाँछित है तथापि॥
मैं भी एक क्षुद्र मनुज
एकांत भाव में कुछ करता हूँ मनन
चेष्टा चाहिए सुदृढ़ करना तब,
जिससे उन्नति हो सम्भव।
गिनो निज दुर्बलताऐं,
सक्षमों से सफलता-विद्या लेने की
सीखो उपाय जो क्षमता बढ़ाऐं,
भला करें अन्यों का भी॥
25 फरवरी, 2015 समय 23:49 म० रा०
Puran Mehra : I got chance to see your blogs. Sir you are a wonderful writer. you also write with purpose and objective. I have to learn a lot from you.
ReplyDeletePawan Kumar : Mr. Mehra, it is always enthusing to hear from learned ones. I try in spare time - result is in beholder's judgement. Thanks for applause. Regards.
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