मन-मकरंद, तन -उज्ज्वल, कुछ
स्वस्थ चिंतन- भ्रमण
लम्बी सैर नहीं यदि संभव,
यत्न हो भरने को कुछ पग॥
नहीं चाहिए मुझे उपालम्भ,
पूर्व ही बहुत हानि हो चुकी
जीवन के सीमित कोष से,
अपव्ययता अति हो चुकी।
संसाधनों के उचित प्रयोग से,
स्व को योग्यतर तराशो
हरेक क्षण इसका अमूल्य-मोती,
उनसे माला बनाओ॥
निकल इस पीड़ा-जंजाल से, बचा
चेष्टा से ऊर्जा कुछ
लक्ष्य कुछ महत्तर बनाकर,
उसमें ही सर्वस्व लगाकर।
एक-एक ईंट से बनता महल,
बूंद-२ से विशाल सागर
हर श्वास बनाता पूर्ण जीवन,
पर सदुपयोग आवश्यक॥
एक क्षीणता-सारणी भी आवश्यक,
चिन्हन हेतु उत्तम
प्रत्येक को तब दूर कर,
स्वस्थ करना निज तन- मन।
कोई प्रमाद न प्राण-देह में,
हर क्षण में है पूर्ण-आयाम
संचेतना-क्षेत्र को बढ़ा,
साम्राज्य अपना करो विशाल॥
हर दिवस गुरु-चिंतन से,
कोंपल-उत्कृष्टता ही फूटेंगी
उत्तरोत्तर संशोधन होगा शैली
में, गुणवत्ता यूँ महकेगी।
निज-शब्दों पर होगा गर्व सा,
स्व-श्रम से संतुष्ट लेखनी
मन में उठेंगी हिलोरें,
इच्छा समर्थों में जगह पाने की॥
बदलते दौर से गुजरता,
अस्पष्टता -सम्भावना भी संग
जल्द होगा स्थान-परिवर्तन,
नव वातावरण से संपर्क।
स्वयं को संपूर्ण-उतार, करना
होगा ही कर्त्तव्य-पालन
करना कर्मक्षेत्र-सुनिर्वाह,
मील-पत्थर में प्रतिस्थापन॥
अग्रिम-चित्रण,
दिशा-निर्धारण, वर्तमान से है अग्र-वर्द्धन
पता जरूरी क्या बनना, जग को
निज लघु दान- सक्षम।
क्या अपेक्षाऐं स्वयं से,
कैसे विस्तार हो क्षुद्र वस्तु में इस
क्या आयाम-दिनचर्या के,
सबल-समर्थ बनाने में सक्षम?
तथागत बुद्ध, महावीर, नानक,
लाओत्से, सुकरात सम
या फिर मुँहफट योगी कबीर सम,
पर्दाफ़ाश हर भ्रम।
या स्तुति तुलसी-सूर सम, धर
चरित्र प्रभु को मन- निज
या धीर-वीर अरविन्द, रमण सा
योगी, स्व ही तल्लीन॥
क्या बनाना चाहूँ इस तन्तु
का, जो पूर्ण-रूपेण अघटित
सर्व भी सक्षम-संभावना में,
यह निज-क्षमता पर निर्भर।
निर्माण कला-वस्तु, जुटा
यंत्र, व साजो-सामान किञ्चित
बैठ एक कलाकार सम एकचित्त,
बनाओ चित्र विचित्र॥
मेरे लिए तो स्व ही अबूझ
पहेली है, इसका हल दे बतला
द्रुत-गति से जीवन दौड़ रहा
है, इसे कुछ उत्तम सिखला।
कुछ चेतना जो पारितोषिक में
मिली है, प्रयोग समुचित दो
न रुकना, चाह दो जूझने,
संभावनाओं से भीत न होने दो॥
यहाँ न आया चैन से सोने,
कर्मभूमि करती बड़ा इंतजार
मनुजता संत्रस्त है,
गिद्ध-निगाहें निरीहों को बनाती ग्रास।
नर- बुद्धि का अल्प-उपयोग,
अल्पज्ञता का आलम सर्वत्र
मैं मूढ़ इस अनाड़ी शहर में,
कहाँ है सुकून हेतु ही स्थल?
चाहे आँधी- भवंडर चलें,
किंतु यह प्रसुप्त आत्मा जगा दो
खाऐं हिचकोलें विचित्र
-अनुभवों में, पर सत्य-रूबरू हो।
चाहूँ यह सबल बने, व विवेक-
मनन से उत्तम-बुरा विचारें
तंतु चाहे बिखरेने दो, तन तो
खाक ही में मिलेगा अंत में॥
मेरी युक्ति में बस युक्त
लगा दे, झंझावत से चाहे हो संपर्क
कराओ सामना तुम कृष्ण की
वाँछित कलाओं ही समस्त।
न डर यहाँ कोई भी क्योंकि,
भला-बुरा सबके संग रहता ही
जब स्वयं हो भंडार-स्वामी,
सर्व शुभ-अशुभ के होंगे साक्षी॥
अतः बहने दो सुरभित मलय, और
करो तुम हर रोम-स्पंदन
पुलकित कर तुम चेतना को,
कलम-वाणी में तेजस्विता भर।
समय-बाधा न हो कोई भी चलन
में, सततता को बना आदत
और एक अथाह-ज्ञान रश्मि का
पुञ्ज, इससे बना साथ निरत॥
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