कौन ज्ञान कहाँ-उदित, जब
सामान्यतया तो हम होते निस्पंद
विशेष परिस्थिति में विद्वान
बनें मनुज, भावमय होते हैं शब्द॥
कहाँ से व्याख्यान- शक्ति
मिलती, कौन जोड़ता तंतु-अवयव
कैसे भिन्न पहलू होते हैं
समन्वित, संचित होता कुछ अनुभव?
स्मृति पटल से बहु-तथ्य हैं
समक्ष, मस्तिष्क करता फिर योग
कर्म-ज्ञान इंद्रियाँ होती
संचालित, वाणी-प्रवाह करता उद्योग॥
प्रतिदिन बहु
जीवन-परिस्थितियों में, वक्ता है दर्शित ज्ञान-पुँज
सदा तो सामान्य ही दिखता, बन
कैसे जाता है सरस्वती-कुञ्ज?
विभिन्न विषयों या
स्व-क्षेत्र में, मूढ़ भी कई बार दर्शित है प्रवीण
‘अंधों में काना
राजा बनता', प्रत्येक समूह विशेष में हैं सर्वांगीण॥
सत्य ही श्रेणी है
अल्पज्ञ-सुविज्ञों की, यदि उपलब्ध ज्ञान हो वर्णन
पर आवश्यक न कोई हर जगह
पारंगत, सदा सर्वत्र हो धुरंधर।
सामान्यतया नर स्व-क्षेत्र
में श्रेष्ठ, तुलना करना है मात्र हास्यस्पद
विद्या कराती संपर्क
बहु-कलाओं से, जीव में सक्रियता-उत्तंग॥
कौन प्रेरणा सुप्तावस्था से
जागृत करा, सामान्य से निकाले पार
उद्योग मन-वाणी-कर्म से,
स्वछंद खग की सुदूर गगन-उड़ान।
मनुज मन-उद्विग्नता
निम्नावस्था की, हर उद्योग स्व-स्थिति सुधार
अप्रमुदित तम-रज वृत्ति-आचरण
में, सत्त्व में ही हो आविष्कार॥
कैसे मन के लवें बदलते,
परिष्कृत मनोभाव-आचरण-व्यवहार
संस्कृतिकरण या
उच्चावस्था-संपर्क प्रयास, बनता जीवन-भाग।
प्राणी श्रेष्ठता
ग्रहण-अधिकारी, विस्तृत विश्व प्रदत्त करे कर्म-क्षेत्र
जितना चाहो - चूम लो, फैलाओ
झोली होवों स्व-सीमा से अग्र॥
बहु-दोष प्राणी-तत्व में,
महत्वाकांक्षा कराऐ आदर्श-साक्षात्कार
एक गुण- संपर्क स्थापन
चरित्र में, अन्य प्रदोष शनै होते बाहर।
उत्तरोत्तर वृद्धि
विस्तृतता-दिशा में, मनुज बन सकता ब्रह्म-अंश
यह एक उच्च मन-भाव से
संपर्क, सर्व-युक्ति कराती निज-यत्न॥
कैसे मनन होता उच्चतम भाव
में, सर्व-प्रेरणा कराए अग्रसरित
मनुज देखता संभव श्रेष्ठ-तल
को, प्रयासरत सतत स्व-स्फुरित।
न आकांक्षा कर्म-कांड हो
जड़ित, बनूँ कुछ प्रज्ञान-विज्ञान भिक्षु
बुद्ध सम किंचित
स्पष्ट-द्रष्टा, सर्व-कल्याण को ही खोले हैं चक्षु॥
शिव सी निमील- अम्बकम
गहन-ध्यान मुद्रा, क्या अध्याय-चिंतन
क्या मात्र मनन-सुधार हर
ग्रंथि का, या सर्व-स्रष्टि हेतु है निमंत्रण?
बहु-अवरोध हैं आम जन को
निर्वाह में, शृंखला-निर्मूल हेतु प्रयास
हर कली विकसित पूर्ण पुष्प
में, प्रमुदित-समर्पण से फैले सुवास॥
कैसे ज्ञात हो परम-लक्ष्य मन
में, अति-पीड़ा अल्प-निम्नावस्था में
जप-तप, स्वाध्याय-प्राणायाम
साधना हेतु, दुर्लभ कर-बद्धता में।
मनुज तन मिला हैं अल्पकाल
हेतु, कितना हो सकता स्तर-वर्धन
रत्नाकर से वाल्मीकि बना है,
भंड से बाणभट्ट या सिद्धार्थ से बुद्ध॥
किस परमोचित के अन्वेषण से,
मन विव्हलित होता दिवस-निशा
न मात्र वाकपटुता-रुचि,
अपितु मौन-धैर्य-सहनीयता ही हैं दिशा।
निज श्रेष्ठ स्वरुप दृश्य भी
है अति-निम्नाकांक्षा, हाँ गुण प्रसार गति
आवश्यक न नित प्रमुदित भाव
हों, स्तर-ऊर्ध्व संघर्ष-घर्षण से ही॥
अनेक चिंतक हैं सर्वोत्तम
झलक को, सात्विक-भाव से मृदुल चिंतन
देव के विभिन्न नाम दिए जाते
हैं, गुण-दर्शन एवं आचरण में मंथन।
परम में लय तो बदला स्व-सकल,
दीन परिष्कृत है सर्वाधिक समृद्धि
आशीर्वाद श्रेष्ठ का तो
उन्नति निकट, चिंता न है किसी अवरोध की॥
इस अल्प को भी सुपथ दिखा,
दीर्घ-काल बीता है बेतुके संवादों में
जग के अन-सुलझे प्रपंचों से
बहिर्गमन, शक्ति निज-बात कहने में।
व्यवहार-निपुण बना
कर्त्तव्य-सुनिर्वाह को, स्थिति होगी सुसम्मानित
कार्य प्रदत्त तो पूर्ण
करेंगे ही, भागना न लक्ष्य, दर्शाना साहस-निज॥
कुछ अनुपम क्षण अतएव भी दो,
संपर्क पाकर तुमसे हो आत्मसात
सीमित मात्र मनन तक न रखना,
व्यवहार में भी अवश्यमेव सुभाव॥
१७ जुलाई, २०१६ समय ४:00 बजे अपराह्न
(मेरी डायरी दि० ११ फरवरी, 2016 समय ९:२८ बजे प्रातः से)
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