निरत निनाद विहंग-वृन्द ध्वनित है प्रातः, प्रेरित करें बनो शाश्वत
अन्य भी चहकते लघु चेष्टाओं
में, प्रमुदित हों करें दिवस आरंभ॥
ये हैं साम-गीतिका के ऋषि,
प्रातः नीड़ों से निकल गुंजन करते
आशय तो निज मन ही समझें,
हमें तो प्रायः अनुशासित दिखते।
पंख-फड़फड़ाहट, शाखाओं पर
फुदकें, अदाऐं सदा मन-मोही
भाँति-भाँति के गीत गा रहें,
सुनता हुआ मैं मनन-लेख में सोही॥
ये मित्र प्रातः ६ बजे ही
जगा देते हैं, क्यों सोऐ हो बाहर तो आओ
हमारे लिए भी तो समय
निकालों, निज मृदुल-काव्य में समाओ।
हम भी तुम्हारा ही जीवन-
भाग, मधुर गायन से वातावरण सुंदर
संग ही निवास द्रुमों के
पर्ण-नीड़, आनंद-संतोष हैं स्व- धरोहर॥
न किसी से ही है याचना,
दिवस-परिश्रम, पंख फैलाते सुदूर तक
नन्हें चूजों हेतु चुग्गा
लाते हैं, मानव सम तो रखते नहीं उपकरण।
जीवन लघु पर हम उसमें
आनंदित, जितना हो सके करते प्रयास
प्रत्येक क्षण मधुर-यापन में
प्रयोगित, व्यर्थ चेष्टाओं में नहीं स्वार्थ॥
मानव तो बड़ा बन बैठा, छोड़
प्रकृति-चिंतन, सबको किया तीर
अरे भाई हम भी आऐं धरा पर
पूर्व, अग्रज हैं कुछ सको तो सीख।
बहुत कुछ देखा है प्राचीन
समय से, वसुंधरा- रूप बनते-बिगड़ते
पर काल संग अठखेलियाँ, समस्त
कायनात में अनुकूल विचरते॥
भोर में सूरज के उगने से
पूर्वेव, हम तत्पर सहज जीवन यात्रा हेतु
प्रातः नर्तन-गायन हमारी
शैली, बिना मनन-प्रार्थना करते न शुरू।
देखो सुबह के मधुर-राग, गीत
का महत्व हमारे जीवन में तो बहुत
लघु तन में कंठ-फेफड़ें सुदृढ़, उर-धड़कन,
आरोग्य-क्रिया सरल॥
देखो न हमारी आदतें, अल्प
-संतुष्ट, पर जीवन का है पूर्ण-आनंद
व्यर्थ की न मारा-मारी,
प्रकृति विशाल, प्रयास से ही लेते पेट भर।
समन्वय सीखा है हमने जीवन में, अज्ञात या विदित
भी न देते कष्ट
हम नभचर पंख प्रयोग जानते हैं, न कोई कयास साँसत
में व्यर्थ॥
बैठते हैं वृक्ष-शाखों,
भवन-कगूरों, बिजली-तारों व छत-मुँडेरों पर
जहाँ आसरा वहीं स्व-क्षेत्र,
पिंजर-बद्धता न सुहाती, हम उन्मुक्त।
झूलती उच्च शाखाओं पर
दूर-दृष्टि, किंतु हमें अपने काम से काम
दूजों के मामले में
हस्तक्षेप न, हाँ परोक्ष रुप से देते अनेक लाभ॥
सामान्यतया यूँ सहज रहते, एक
वातावरण निर्माण हेतु दीर्घ वय
धीमान तुमसे पर समझते स्वयं
को, सत्य अर्थ बताऐ कोई समर्थ।
आत्म-अतिश्योक्ति न करते,
आंदोलन-यत्न हेतु निज सहज-यापन
प्राप्त पर्याप्त उदर-पूर्ति
हेतु, उपलब्ध समय आनंद ही निकेतन॥
मानव लुब्ध प्रकृति में,
अन्यथा अन्य लेते हो परमावश्यक जितना
जब सब कुछ यहीं ही है रहना,
किराए के मकान से मोह कैसा?
यह हमारी पूर्वज- संपदा,
इसकी पवित्रता सहेजना निज कर्त्तव्य
खाऐंगे-पियेंगे,
जिऐंगे-मरेंगे यहीं, आगामी हेतु भी छोड़ना सत्व॥
किसके हैं ये नन्हें पाँव,
किसके पंखों की है छाँव, किसकी हैं ये-
नीली आँखें, शीश निराला
किसका है, बतलाओ जी किसका है
मधुरतम कंठ किसका, कौन द्रुत
उड़ान से दूरी पाटन-समर्थ है।
किसकी अपने निकट-पड़ोस में
ही रुचि, कौन ध्रुवों के पार जाते
कैसे दिशा-स्थलों के
परीक्षक, एक समय बाद पुनः लौट आते॥
कैसी योगी-मुद्रा उनकी, सब
जानते-देखते हुए शांत-मुस्काते हैं
वृक्ष पर बैठे जैसे
चिंतन-रत, क्या चलता है उस लघु तन-मन में?
बीजों का स्थान-परिवर्तन
करते, प्रकृति उपज में होती सहायता
जितना आवश्यक उतना करें, जो
बचा निज ही कहीं न जाएगा॥
माना विविधता बहु
कार्य-कलापों में, तो भी है ढ़ंग-संदेश निराला
प्रेरणामय नर सतत मनन हेतु
की, फुर्सत में बैठ स्व को जाँचता।
क्यों असक्षम हो उन योगी सम
अंत: संभालो बहि: को त्याग कर
यह अंतः -मंथन पैमाना स्थिति
का, उत्थित होवो सब समय तुम॥
इन नन्हें पँछियों ने मुझ
निष्प्राण-नीरस में, प्राण-प्रवाह चेष्ठा है की
आभारी हूँ मैं इस नव- स्वरूप
से, संचेतना का क्षेत्र तो बढ़ेगा ही।
पर कैसे प्रतिस्थापित करूँ
पर्याप्त, निज उत्तम अग्र-स्थिति में भी
महद-आनंद हेतु रूपांतरण
आवश्यक है, प्राण-पूर्णता अनुभूति॥
प्रकृति ने मुझे गढ़ा है मनुज
रूप में, पर अन्य रूप भी हैं मेरे ही
अंतिम प्राकृतिक विकास-क्रम
के, सब जीव-अवस्थाऐं पूर्व की।
क्या विवेचन है सक्षम
सोपानों का, जिन पर चढ़ पहुँचा यहाँ तक
असल-आनंद तो गति-अवस्था में
है, स्मरण पूर्व मूल से जोड़ें पर॥
विकास-क्रम तो नित्य-सतत,
कहाँ ले ही जाएगा नितांत अविदित
मनन-कर्म प्रक्रिया, वर्तमान
अवस्था में नव-दिशा करेगी इंगित।
सतत यात्रा असंख्य चेतन-देह
स्वरुपों में, मैं भी भागी खेल में इस
मम विकास की यह जन्म-सीमा,
पर वंशानुगत जींस करेंगे अग्र॥
पर सोच-कथन-श्रवण, पठन-पाठन,
तर्क-विमर्श-दर्शन भी वाहक
मनीषी-प्रबुद्धों ने
सदा-चिंतन से ही किया है परिवेश सद्प्रभावित।
अनेक ही परोक्ष कारक-संवादों
की प्रक्रिया है, होगा संगति-असर
ज्ञानी-सुजन संपर्क अनुपम वर
है, अमूल्य समय उपकार हम पर॥
कीर्ति-अपयश की न चिंता है,
सर्वोत्तम मम हेतु क्षणों में उपलब्ध
क्या मुझसे कुछ निर्माण
संभव, जो जगत-सुगति में हो सहायक?
प्रकृति दत्त एक मंच-समय,
दिखाओ तो अपना अभिनय अनुपम
टूटने दो भ्रम अन्यों के तव
विषय में, वीतरागी हो रहो अनवरत॥
बी.के.एस आयंगार की 'Tree of Life' पढ़ रहा,
बताते मुद्रा-ध्यान
न मात्र अन्यों की नकल पर,
अंदर से नया निकसित करो विचार।
योगीजन ढ़ंग से प्रभावित
करें, क्या मुझमें भी सकारात्मक रूचि
मम जीवन भी अन्यों सम ही,
उचित सुधार से बना दो तेजोमयी॥
कैसे निकलूँगा अधो-स्थिति से
इस, यम-नियम तो बतलाने होंगे
न विराम लेने दूँगा सहज, गहन
मुक्ति-आकांक्षा है इसी जन्म में।
जीवन मिला तो घड़ सुकृति में,
किंचित आत्म- संतोष ही निवृत्ति
कह सकूँ बुद्ध सम 'सत्य
मिल गया', निर्वाण देह-मन सहज ही॥
इन मित्र-पंछियों से कुछ
सीखो, वसंत है अति-मधुर गुनगुना रहें
सुनता हूँ उन्हें निकट ही,
रह-रह कर उपस्थिति आभास जताते।
तुम प्रबुद्ध जगाओ
तम-सुप्तावस्था से, अनंत-यात्रा राही बनाओ
एक ज्ञान-पथिक मैं बनूँ सतत,
प्रमदता त्याग अपूर्व से संपर्क हो॥
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