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जिनसे आवश्यक करो संपर्क, उसी में सबका कल्याण।
Every human being starts his life's journey with perplexed, enchanted sight of world. He uses his intellect to understand life's complexities with his fears, frustrations, joys, meditations, actions or so. He evolves from very simple stage to maturity throughout this journey. Every day to him is a challenge facing hard facts of life and merging into its numerous realms. My whole invigoration is to understand self and make it useful to the vast humanity.
हर दिवस यहाँ एक नवीन उद्भव,
कुछ प्रगति कुछ अवसाद
प्रतिपल एक परीक्षा लेता,
चोर-सिपाही का खेल है अबाध॥
जीवन-चक्र है अति विचित्र,
खूब खेल खिलाए, डाँटे-फटकारे
क्षीणता, अल्पज्ञता,
त्रुटियाँ ला समक्ष, यथार्थ पृष्ठ पर है पटके।
प्रहर्ष अधिक नहीं पनपने
देता, विशाल-चक्र में घिर जाते सदा
यह न तुम्हारा गृह एवं
स्व-संगी, अजनबियों से पाला है पड़ा॥
क्यों अन्य तेरी ही मानें,
कुछ न किया है अभी अधिक श्लाघ्य
माना आम कार्य भाँति
निष्पादित, अपेक्षाऐं कहीं अधिक पर।
दुनिया यूँ न संतुष्ट होती,
निज स्वार्थ अधिक प्रिय हैं तुमसे कहीं
सब डूबें विद्वेष-माया-मोह
लोभ में, उनको तुम्हारी कहाँ पड़ी॥
पूर्व में बलि-प्रथा प्रचलित
थी, अब भी कई स्थलों पर है चलन
निर्दोष-हत्या अपने
प्राण-त्राण हेतु, कहाँ का है न्याय- विवेक?
मनुज न देखे अपना कुचरित्र,
प्रकृति बना ली पर- दोषारोपण
निज जितना हो अधम, अन्यों से
तो अपेक्षित आदर्श-अत्युत्तम॥
जब तक निज-अंतः नहीं
झाँकोगे, अन्यों में देखते रहोगे त्रुटियाँ
परंतु तुम्हारा कल्याण न
होगा, क्योंकि चेष्टा में न है स्व-सुचिता।
डूब जाओगे तुम घोर तम, बड़ी
ठोकर लगेगी एवं होओगे घायल
संभल जाओ और मान करना सीखो,
सिखा देंगे बहु हैं विशेषज्ञ॥
कैसे कई वहम ही पाल रखे हैं
तुमने, अपने व अन्यों के विषय में
अपने विश्वास तो प्रिय लगते
हैं, जो हाँ में हाँ मिलाए वह उत्तम है।
'एक तो करेला है ऊपर
से नीम चढ़ा' स्थिति
से न संभव है उन्नति
यावत न आओगे तुम वृहद-संपर्क
में, कैसे ज्ञात होगा क्या गति?
एक चेष्टा है जग-शोर से
दूरी, किसी गुफा में बैठकर लगाए चित्त
विश्व व्यर्थ एक
ढ़कोसला-फटाटोप, निर्मल-चित्त होते हैं व्यथित।
सूफी-निर्गुण,
साधु-बाऊल-भिक्षु, नागा फक्कड़-जगत सुधामयी
इसको लेते एक अनावश्यक वजन,
त्यागने में अधिक हित ही॥
क्यों परम-ज्ञानी निर्मोही
बन, अस्वार्थी हों वृहद कल्याण हैं सोचते
हित भी वह जो भौतिकता से परे
हो, और संपूर्णता चित्त में भर दे।
दीन-दुनिया अपने दुखों में
गुमी है, वह किसका भला सोच पाएगी
यावत मानव निज से ऊपर ही न
होगा, कैसे सर्वहित होगी प्रवृत्ति?
एक सागर-ऊर्मि है जो कभी
निम्न-उच्च, पवन वेग बढ़ाए आवृत्ति
सर्व-अणुओं को अपने संग
झुलाती, अनेक थपेड़े-अनुभव हैं देती।
अंतः-बाह्य परिवेश के हैं कई
दबाव, ज्वार-भाटे बैठने देते न शांत
वरन तो रुकती है प्रक्रिया,
सड़ता जल, कैसे पनपता बहु-जीवन?
जीवन भवंडर-खेल, पर कुछ
पुरुष एक सहज-शैली में हैं मुस्कुराते
क्या यह स्वभाव एक समरस बनना
ही, प्राण है तो नित फँसे रहेंगे।
क्या एक क्लेश हेतु ही जन्म
लिया या काम-चलाऊ स्थिति बना ली
बस अस्तित्व बचा रखो, जितना
हो सके टालो, न बने तो चल पड़ो॥
क्यों तजते ही हैं प्रदत्त
कर्त्तव्य, विपदा-निवारण तैयारी भी तो की न
दोषारोपण भाग्य-परिस्थितियों
पर, क्या किया है स्व-कर्म आकलन?
मात्र नितांत जरूरी ही
कर्म-निर्वाह है, जिनका न बहु-स्थगन संभव
कभी सोचा न कर्मयोगी बनना,
विश्व को दो शाप, निज करो शांत॥
नहीं अवलोकन किया स्व-कर्मों
का, कहाँ निष्ठ हो गुणवत्ता-स्तर पर
कैसे बने एक सम्मानजनक
स्थिति, क्या वाँछित सामग्री है हेतु उस?
जग परिश्रमी-प्रगतिवादी होना
माँगता, यूँ सस्ते में गुजर न होने देता
अति
प्रतिस्पर्धा-महत्त्वाकांक्षा चहुँ ओर, मात्र हानि ही निट्ठला बैठना॥
क्या शैली रचनात्मक है, व प्रतिपल
के महत्त्व का मोल चुका सकते?
या महज पलायनवादी संस्कृति,
अपना क्या अल्प में गुजर कर लेंगे।
क्या तव कर्म मनुज-जीवन में
सम्मान ही भरते, सार्थकता की प्रेरणा
निज अधिकार-क्षेत्र को जगाना
कर्त्तव्य, अकर्मण्यता-पाठ न पढ़ा॥
बंधु हम तो डूबेंगे पर तुमको
भी न छोड़ेंगे, ऐसी प्रवृत्ति अति-मारक
क्यों आयुध बनाते हो विनाश
के, मानसिक स्तर पर संवाद हैं निरत।
तुम न चेते कोई अन्य ही
चेतेगा, दौड़ में सदा समर्थ ही अग्रिम होंगे
समर्थ-रेखा वहीं से शुरू
जहाँ खड़े हो, तुम रोना लेकर रहना बैठे॥
संगठन-शक्ति तो बनाओ अवश्य
ही, क्योंकि `कलौयुगे संघ है शक्ति'
बुद्ध संवाद को अति-महत्त्व
देते हो, व्यग्रता से ही तो ज्ञान-क्षुधा बढ़ेगी।
न देखते कि औरों की कितनी
प्रगति है, स्वयं भी कुछ न ईजाद किया
न बनो मात्र सुविधा-भोगी ही,
अविष्कारों का मूल्य तो न सकते चुका॥
यह हाट का शोर-गुल,
नगाड़े-घंटी बज रहें, विक्रेता लगा रहे हैं हाँक
भूल-भलैया, अंध-गली,
स्व-नेत्र अर्ध-बंद, श्रवण-मनन शक्ति है अल्प।
सर्व-ज्ञानेन्द्रि काम न कर
रही हैं, भूखा हूँ पर जेब खाली, खरीदूँ कहाँ
कोई उधार न देता, पूर्व-लेखा
न चुकता, किधर जाऊँ यही विडंबना?
जगत का यह दीदार भी विचित्र,
सभी व्यग्र-संतापित, पर बात न करें
केंकड़े सम एक-दूजे की टाँग
खींचते, दोनों मरेंगे पर चढ़ सकते थे।
मेंढ़क संग प्रयोग शीतल
जलपात्र में, शनै ऊष्मा दी, उबाला जा रहा
प्रथम-स्थिति सक्षम था
बहिर्लांघन, पर नेत्र खोले करता मृत्यु-प्रतीक्षा॥
क्यों है यह
उदासीन-असंवेदनशील व संवाद-विहीन रहने की प्रवृत्ति
क्या दूजे इतने
त्याज्य-निम्न हैं, तुम बात करने में अनादर समझते ही?
क्या अथिति-सत्कार तव न
कर्त्तव्य, जग-रीत तो निभाओ कमसकम
न्यूनतम अपेक्षाऐं तो असभ्य
से भी हैं, स्व को कहते हो शिक्षित तुम॥
यदि खेलना तो समुचित खेलो,
और करो पालन कुछ यम-नियमों का
या निज को पूर्ण-सबल बना लो,
कि नहीं हो कोई अन्य-आवश्यकता।
पर मनुज तो एक सामाजिक
प्राणी, परस्पर सहकार से ही कार्य चलेगा
नहीं रहो मूढ़ सा आत्म-मुग्ध,
जागो-उठो-चेतो-देखो कुछ हित होगा॥
रिश्तें हैं प्राण- वाहक, हम
निकले उनसे, रक्त-संपर्क से युजित
कह सकते हैं सीधे जुड़े, किसी
औपचारिकता की न जरूरत॥
कुछ रिश्तें अति-प्रगाढ़ जैसे
माँ-पिता, दादी-दादा, नानी-नाना
भाई-बहन,
मामा-मौसी, चाचा-बुआ, चचेरा-फुफेरा, ममेरा-मौसेरा।
रक्त से अभिभावक-कुलों से
सीधे जुड़ते, शृंखला-गमन दूर तक
माना दूर तक ढूँढ़ना-निबाहना
कठिन, तथापि प्रयास से संभव॥
कितनी गहराई तक हैं
रक्त-मूलें, हम अधिक ध्यान न दे पाते
इस अल्प- जिंदगी में इतने
मशगूल, भूलते कोई और भी हैं।
अति- सुलभ अन्वेषण यदि
चाहें, गहन योग देह-आत्माओं में
प्रेम-भाषा बोलकर देख, सब
आऐंगे बाह पसारे गले मिलने॥
रिश्तें हमारा उद्गम-स्थल,
रक्त-वीर्य प्रवाह होता अति-दूर तक
एक-दूजे के गुण परस्पर
बाँटते, शक्लें-व्यवहार जाते से मिल।
अति स्थल-दूरी से संपर्क
बाधित, कुछ समय पूर्व था स्नेह-अति
विवाह-उत्सवों में मिलन-रीत,
परस्पर देख होती अति-ख़ुशी॥
हम आपस के सुख-दुःख बाँटते,
जानते अपना है हानि न करे
जैसे निज आत्मा का एक रूप,
कुछ न दुराव अपने भीतर है।
ख़ुशी- नाराजगी तो वहाँ भी
हैं, कह-सुनकर हल्का होता मन
सभी मनोभावों से हम गुजरते,
हर परिस्थिति नहीं निज-रूप॥
अनुवांशिक- गुण तो अति-
विस्तृत, विज्ञान से विस्तार-विवरण
माता-पिता, भाई-बहनें
निकटतम, रिश्तें हैं सुदूर तक वाहक।
हममें-उनमें अभिभावक-गुण
साँझे, अटूट योग है नित-सुदृढ़
अनेक ही उसमें युजित हो
सकते, जितना चाहे उतने संभव॥
रक्त- रिश्तें
अति-महत्त्वपूर्ण, माना सिमट जाते कुछ दूरी पर
जानते हैं अपने ही,
संसाधन-समय अभाव से दे पाते न ध्यान।
कुनबा-अवधारणा ज्ञान, माना
कि सदस्य भी आपस में लड़ते
तथापि न्यूनतम सदाश्यता,
अन्य- विरुद्ध सब हैं एक-जुटते॥
प्रेम की चहुँ ओर जरूरत है,
स्वार्थ से किंचित कृत-संकुचित
निज-कोटरों में ही दुबके,
बाहर आ अन्यों को न लगाते कंठ।
स्व-दामन सिकोड़ अनावश्यक, जब
अनेक जन समा सकते
मन को जब स्नेह-शून्य किया,
विश्व-बंधुत्व राह खुलेगी कैसे?
संबंधी सब आर्थिक-सामाजिक
स्थिति में, निर्धन से दूरी अग्रों में
जब समुचित जानते अपने ही,
तटस्थता-भाव दिखाते स्वार्थ में।
ज्ञान का क्या लाभ यदि न
व्यवहार-दर्शित है, किए दूर निज भी
संबंधियों को तज अन्यों से
संपर्क बढ़ाते, धीरे दूरी बढ़ती जाती॥
स्व-रुचियाँ हैं
महत्त्वपूर्ण, न आवश्यक रिश्तेदारों से पूर्ण-मेल
अपने-२ गुट बना लेते, समय
आने पर यह या वह पक्ष है लेत।
स्पर्धा-स्पृहा अधिक परस्पर
में, आगे-पीछे टाँग भी खींच देते
एक-दूजे का मज़ाक भी बनाते,
जैसा उचित जँचे निभा लेते॥
मित्रता एक वृहद-अध्याय, इस
पर विस्तार से चिंतन कभी
अभी विषय रक्त-रिश्ता, कैसे
मिठास है डाली जा सकती?
उसके अतिरिक्त संबंधी भी,
भले प्रत्यक्ष रूप से नहीं जुड़ते
मेल-जोल से ही निज बनते,
अपनापन सा हो जाता शनै-२॥
जहाँ हृदय-समीप वहाँ
माधुर्य, प्रेम से परस्पर वर्धन-उत्साह
सभी कुछ सहन चाहे कत्ल भी
हो, प्रेम सर्वोपरि लेगा स्थान।
अभिभावक-संतानों में न है
स्पर्धा, झेल लेते उच्छृंखलता भी
बंधु-भगिनियों में आदर,
अति-गुणवत्ता संभव अस्वार्थ यदि॥
एकत्रित करें
संबंधी-कुटुंबियों को, घर जाकर दिखाऐं स्नेह भी
वे भी हमारे प्रेम के भूखें,
मिलने-जुलने से तो निकटता बढ़ेगी।
यदि परस्पर स्नेह-समझदारी,
एकजुटता से तो शक्ति-विश्वास
एक-दूजे को सहना भी श्रेष्ठ
गुण, जीवंतता से है वर्धन-सौहार्द॥
सबमें सब भाँति के गुण,
उत्तम को अपनाऐं क्षीणता को तज
सहनशीलता निज-पालक, आगे बढ़ो,
सबको लगाओ कंठ॥
मनन यह क्या चिंतन हो,
निर्मल-चित्त तो वृहत-आत्मसात कहते
हम सब उसी के ही भिन्न अवयव,
पूर्णता से जुड़ पूर्ण ही बनेंगे॥
लेखन भी है अद्भुत विधा, कुछ
न भी दिखे तथापि पथ ढूँढ़ लेती
कलमवाहक को बस माध्यम बना
लेती, उकेरेगा जो यह चाहती।
माना लेखक की सोच का पुट होता,
पर शक्तिमान तो कलम ही
यह परिवर्तित करती कर्ता को
भी, उसके भावों को सुदृढ़ करती॥
चलते आज इसके संग ही,
नवीन-प्राचीन या भावी अथाह में कुछ
जो समक्ष आएगा उकेरा जाएगा,
निज का न कोई है विशेष पक्ष।
मात्र कलम संग है एकीकरण,
परस्पर-वार्ता से निकलेंगे कुछ सुर
हेतु क्षण अति
महत्त्वपूर्ण-अमूल्य हैं, इनमें स्थित हो हुआ निर्मित॥
अवसर तो जीवन देता हर पल,
आवश्यक मात्र संजीदा हो विचारें
क्या हम वर्तमान नियुक्ति
में, या जीवन-यापन सफल समृद्धि में।
कैसी भी स्थिति में तो
होंगे, सर्व-दिशाऐं आव्हान करती निमन्त्रण
प्रतिपल अनुभव ही जीवन, चलो ज्ञानेंद्रियों से
करो प्रकृति-स्पंदन॥
आशान्वित होना है
अग्रिम-पलों में, मानव को देता नित गति-प्रेरण
हाँ सब पल तो एकसम न हैं, पर
न चलें तो निश्चित ही रहेंगे मन्द।
मन-देह का न पूर्ण उपयोग है,
स्थिर-जल बहु-संभावना सड़न की
चलेंगे-भिड़ेंगे तो
घर्षण-संघर्ष, प्रक्रिया में ही बनेंगे गोल-उपयोगी॥
पाषाण-शैल सम निश्चल, यूँ
तटस्थ प्रकृति-निकटता का ही दर्शन
अनेक जीव-पादप पोषक हैं,
सूर्य-चन्द्र-तारक-ऋतु से आत्मसात।
अनेक सर-सरिताऐं इस देह से
हैं गुजरते, प्रवाह बहु-अवयव संग
तव मिलन सागर साथ ही,
दिशा-पवन सुनाती हैं सुदूर के संदेश॥
माना प्रकृति अचलता की है,
विपुल देह संग गति तो अति-दुष्कर
कमसकम प्रकृति-कारकों से तो
साहचर्य-प्रवृत्ति, तभी हो जीवंत।
जब कुछ त्याग कर सकोगे, तभी
तो रिक्तता बनेगी नव-ग्रहण की
चाहिए आदान-प्रदान ही
प्रक्रिया, परस्परता से पूर्णता-राह बनेगी॥
अनेक भिन्न अवयव निश्चल से
हैं, सूक्ष्म-दर्शन से ही होती गति स्पष्ट
स्पंदित, प्रकृति-रस आस्वादन
तो है सदा, सहयोग से चले ब्रह्मांड।
भले अदर्शित हो पर हर की
पूर्ण-भागीदारी, रिक्तता से मूल्य ज्ञात
अतः जरूरत परस्पर-सम्मान की,
सहभागिता से ही बनती बात॥
तथापि कुछ अति-गतिमान भी
हैं, अनेक निश्चलों में भी प्राण भरते
अवयव आदान-प्रदान में सहायक,
निम्न की भी गुणवत्ता हैं बताते।
सर्वत्र है संभावना-उदय, मैं
अति-दूर से आया हूँ तुम भी सकते जा
विश्व में अनेक स्थल
प्रगतिरत, नेत्र खुलें तो मन-विकास भी होगा॥
अनेक अविष्कार नित घटित हैं,
सहभागिता दिखाओ नव-निरूपण
जब और कर सकते तो तुम क्यूँ
नहीं, अनावश्यक शक़्ल चाहे कुछ।
क्यों सोचते हो तुम स्वीकृत
न होवोगे, चलोगे तभी तो सुराह दिखेगी
नव-अनुभव से गतिमान होवोगे,
स्थिर-कारकों से तो से घिसोगे ही॥
जीवन में नित प्रायः एकसम ही
घटित, लगता कि इस हेतु ही जन्म
व्यापन में मौलिक-समर्पण
जरूरी है, हो लाभ उपस्थिति का तव।
हाँ परिवर्तन यकायक प्रकटन
होता, चाहे प्रसन्न या न जँचे उपयुक्त
वृहद विश्व- प्रणाली में तुम
मात्र पुर्जे हो, चाहने से ही न सब संभव॥
ध्यान से देखो, प्रयास भी
हो, पर प्रवाह संग ही होगा तो सुदूर-गमन
क्यों विलोम-दिशा बहाव,
ऊर्जा-क्षय, हाँ अत्यावश्यक तो करो वह।
एक पुण्य-विचार में ही हाँ
मिलाओ, तुम्हारी मौलिकता है निज पूँजी
विरोध भी एक सभ्य- प्रकार
का, उचित को लोक- हृदय स्वीकृति॥
बहु-कारक वाँछित गति-शैली निर्माणार्थ,
निज को तो पूर्ण जीना ही
जीवन अमूल्य है सँवरता
देह-अंग-मन द्वारा, जो स्वतः ही अद्वितीय।
विपुल समृद्धि पर प्रयोग
मद्धम है, कोई सुविज्ञ कहेगा यह अत्यल्प
प्रयत्न से इस कल को चलाओ,
जो निज कर में सँवारो उसे प्रथम॥
किसको ज्ञात है आगे क्या
होगा, पर वर्तमान में तो झोंक दो सर्वस्व
विश्व-सहायता करो उत्तम-वहन
में, बहुकाल से प्रतीक्षा है रहा कर।
निज-संग भी हो अनुरूप
दिशा-चरण हो, मनन से कानन सुवासित
कर्म संग तो मनन स्वतः ही,
सोचो और अल्प-वृहद से जाओ जुड़॥
देखना तुरंत शुरू करो
अति-दूर तक, स्व-लघुता का होगा अहसास
व्यर्थ शिकायत- वादों में मत
उलझो, सुविचार से ही लो उत्तम-राह।
कार्य-क्षेत्र तो सदा
प्रतीक्षा करता, आगे बढ़ करो सब विभ्रम ही ध्वंस
श्रम से निश्चितेव सुपरिणाम,
किञ्चित नहीं रुद्ध, सहायों का लो संग॥
सब लोग भी तुम सम अपने से
सोचते, मन व्यथित होता यदि न रुचे
निज पक्ष समझाओ
विराट-समर्पणार्थ, स्व-लोभ त्याग करने हैं पड़ते।
परिश्रम किस हेतु कर रहे हो,
ग्राहक को तो चाहिए ही ज्ञान मूल्य का
यदि सम्मान दें तो
अति-सुंदर, अन्यथा भी तो निज कर्त्तव्य है करना॥
ध्यान से देखो बहुत नर कितने
हैं, घोर दुःखी- असन्तोषी व विव्हलित
नकारात्मकता तो है मन में,
माना सकल विश्व के दुःख उनके ही संग।
विलोप सकारात्मक पक्ष का भी
है, काल बीतता ही खुलता है नव-पथ
जीव को एक निस्वार्थी बनना
चाहिए, आत्म-ज्ञान से ही है राह प्रकट॥
सकारात्मक- परिवेश
नित-आवश्यक है, सब प्राणियों का ही सहयोग
किसी को भी नगण्य मत समझो,
सहयोग से है अति-करणीय सक्षम।
बोलो मृदु- वाणी, मन- संगीत
फूटे, प्रहर्ष में लोग घना काम हैं करते
हटा दो पर्दा भ्रम- शिकायत
का, उज्ज्वल पक्ष देख, सहयोग करेंगे॥
बस विराम देता आज-वार्ता को,
निर्मल-चेष्टा हेतु सदा रहो प्रयासरत
अन्यों को बहुत अपेक्षाऐं
हैं तुमसे, सब न सही कुछ तो ही करो पूर्ण।
माना निज भी समय- ऊर्जा
चाहता है, प्रतिबद्धता है कार्यक्षेत्र में भी
आशा लाओ सब सहयोगी- मनों
में, सदा उत्तमार्थ करो प्रोत्साहित॥