कबाड़ीवाला
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आ गया, कबाड़ीवाला आ गया, आपकी गली-द्वार, रूपए -पैसे लो,
पुराना सामान लोहा-प्लास्टिक-बोतलें दो, बदले में रुपए पैसे लो।
पुराना सामान लोहा-प्लास्टिक-बोतलें दो, बदले में रुपए पैसे लो।
कुछ समय पूर्व गली में यह शोर लगा था, मैंने इसका वाहन भी देखा है
एक पुराने छोटे चौपहिए पर ड्राइवर-सीट साथ लाऊड स्पीकर लगा है।
पीछे खुले सामान हेतु जगह, मोटर से कम समय में होती ज्यादा दूरी तय
प्रायः गलियों में घूमता, दिन में दुकान पर कुछ लेना-देना होता शायद।
कौन हैं ये कबाड़ी, घर के पुराने सामान-अख़बार, व्यर्थ जगह घेरे जंक ग्राही
सामान के बदले में दाम देते हैं, घर वाले को भी लगता कुछ मिल गया ही।
अभी फिर कबाड़ी की आवाज सुन रही, पुराने सामान के बदले रुपए-पैसे
साइकिल पर दूजा कबाड़ी ऊँची आवाज लगाते, निकला सामने की गली से।
बचपन से ही कबाड़ी देखता, गाँव में पुराने अख़बार शहर में कबाड़ी को विक्रय
एक कबाड़ी साइकिल-रिक्शा पर आता, पुराना लोहा-तार-टिन आदि लेता क्रय।
शहर ले जाकर बड़े कबाड़ी की दुकान पर बेच देता, कुछ लाभ भी मिल जाता
दुकानवाला तरीके से अलग करके, बड़े सप्लायर को लाभ के साथ बेच देता।
एक शृंखला सी है घर के फालतू सामान की, परिणिति कहाँ होगी, अज्ञात सभी
पर धीरे-२ बड़ा कबाड़ा इकट्ठा होता, एक समय आता है बाहर करना होगा ही।
यावत पुराना न निकलेगा, जगह खाली न होगी, नव-प्रवेश उसके बाद ही संभव
सीमित जगह, पुनर्निर्माण-पैकिंग की भी सीमा, पुराने को नए हेतु होना तैयार।
मैंने बहुत से कबाड़ियों की दुकान देखी, कुछ छोटी, काफी बड़ी जगह में कुछ
पुरानी पॉलीथीन, दूध की प्लास्टिक-थैलियाँ, पुरानी बोतलें, लोहा व धातु अन्य।
पुराने पेपर, बच्चों की कापी-किताबें, डब्बे-ग्रिल, किवाड़-खिड़की, कुर्सियाँ-तार
सामान यत्र-तत्र बिखरा, कुछ बच्चे-बड़े उसे साफ कर तरतीब से रखने में रत।
दिल्ली में देखता, सड़क- किनारे की लेन में नागरिकों हेतु रखे कूड़े के डस्टबिन
घरों से काम वाली या सफाई वाले, पुराना कूड़ा-कचरा इन डब्बों में देते हैं फेंक।
यदि कुछ चीज लाभ की लगती तो उठा भी लेते, पर ज्यादातर फेंका जाता बाहर
प्लास्टिक-थैलियाँ-धातु-बोतल कूड़ा बीनने वाले उठा लेते, कबाड़ी को देते बेच।
नन्हें हाथों को कूड़े की थैलियाँ खाली करते देखता, सब्जी-कबाड़ा अति-दूषित
बाहर से ही एक गंदी सी गंध आती है, भद्र लोग नाक बंद करके जाते हैं गुजर।
पर बेचारे नंगे हाथ ही मुँह-नाक पर बिना किसी कपड़े के ही मौन बीनते कूड़ा
नाजुक त्वचा-गले-फेफड़ों पर दुष्ट असर, गरीबी कारण इलाज भी न हो पाता।
ऐसे दृश्यों से अन्यंत दुःख होता, लगता समाज संग मैं भी स्थिति हेतु उत्तरदायी
कई बालों को सस्ता नशा भी करते देखा, बूढ़े होने लगते युवा होने से पहले ही।
कुछ से बात भी की व्यसन त्यागो, कबाड़े के पैसे खाने व बचाने में करो प्रयोग
पर न घर-ठिकाना, आत्म-संशय, समाज से कटे, एक अस्पृश्य सा जीवन वहन।
कई बार प्रश्न मन में आता क्यों नहीं सरकारें इन बच्चों का पुनर्वास कर सकती
हमारे पास फालतू चीजों हेतु तो बड़ा पैसा है, पर जन-कल्याण में तो न रूचि।
नेता-अधिकारी-उद्योगी सब निज-चिंतित, देश के असल विकास प्रति अपरवाह
जब बड़ा शैशव भूख-बेकारी-अशिक्षा-बेहाली में, कैसे विकास-परक चिन्हित।
इस देश में बड़ा आंदोलन आवश्यक, अनेकों का हो सकारात्मक भाग्य-परिवर्तन
शिक्षा-खाना-कपड़ा-घर मूलभूत जरूरतें, पूर्णता पर ही है निर्मल पक्षों में रूचि।
कितने ही छोटे बच्चे सड़क-चौराहों पर भीख माँगते, भविष्य उन हेतु संजोते क्या
जल्द ही अबल-वृद्ध हो जाऐंगे या नशे-अपराध जग प्रवेशित हों करेंगे प्राण खपा।
मानवीय दृष्टिकोण जरूरी सब प्रबुद्धों को, निकट-परिवेश सँवारे, बढ़ाऐ अग्र
एक नर- दायित्व पूरी कायनात हेतु, सर्वहित-कार्य करें संजीदा होकर कुछ।
उस दिन अत्यधिक खुश हूँगा जब निज दायित्व पहचानने लगेंगे सरकारें-शहरी
बच्चे विश्व-धरोहर व आधारशिला, उनका समुचित विकास सबकी जिम्मेवारी।
खैर कबाड़ से शुरू किया, नन्हें बच्चों पर पहुँचा, पक्ष जुड़ते जाते हैं अनायास ही
उत्तम-लेखन लक्ष्य महद कल्याण ही वाँछित, फिर कलम तो है ही पथ-प्रदर्शिनी।
पवन कुमार,
३ फरवरी, २०१९ समय 00:३५ मध्य-रात्रि
(मेरी डायरी दि० ६ जून, २०१८ समय ९:५१ प्रातः से)
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