परिच्छेद – ७ (भाग -१)
"यह
तुम्हारी उपस्थिति में था कि मैंने
पांडुरिक की कठोर भर्त्सना
की, और उस संबोधन
पश्चात मैंने उसे क्रोध में त्याग दिया और अपने पुष्प-एकत्रण के कार्य को
छोड़कर अन्य स्थल चला गया। तुम्हारी विदाई पश्चात, मैं एक अल्प-काल
हेतु विलग रहा, और तब उत्सुक
बनकर कि वह क्या
कर रहा था, मैं वापस मुड़ा और एक द्रुम
के पीछे से स्थल का
परीक्षण किया। क्योंकि मैंने उसे वहाँ नहीं देखा था, मुझमें विचार उत्पन्न हुआ, उसका मन प्रेम-दास
हो गया है, और संयोग से
वह उसे अनुसरण करता है; और अब कि
वह जा चुकी है,
उसने अपनी चेतना पुनः प्राप्त कर ली है;
अथवा वह मुझसे क्रोध
में चला गया है, या मेरे अन्वेषण
में अन्य स्थल चला गया है।' अतएव विचार करते हुए, मैंने कुछ काल प्रतीक्षा की, परंतु अनुपस्थिति द्वारा दुखित जो मैंने अपने
जन्म से लेकर एक
क्षण हेतु भी कदापि नहीं
सहा था, मैंने पुनः विचार किया, : 'ऐसा हो सकता है
स्थिरता में अपनी पराजय की लज्जा में
वह कुछ हानि पर आऐगा; क्योंकि
लज्जा सभी कुछ संभव बनाती है; तब उसे एकांत
में नहीं छोड़ना चाहिए।' इस निश्चय के
साथ मैंने उसके हेतु उत्सुकता से अन्वेषण किया।
परन्तु क्योंकि मैं उसे देख नहीं सकता था, यद्यपि मैंने सभी ओर खोजा, अपने
सुहृद हेतु प्रेम द्वारा उत्सुक हुआ, मैंने यह अथवा वह
दुर्भाग्य चित्रित किया, और लंबा भ्रमण
किया, चंदन-वृक्षों की वीथियों में,
लता-कुंजों के वन-मागों
में, और सरोवरों की
तीरों पर। सावधानी से प्रत्येक दिशा
में पूर्ण दृष्टि डालते हुए। दूर पर मैंने उसे
एक वापी के निकट एक
लता-कुञ्ज में देखा, मधु हेतु एक निश्चित जन्म-स्थली, अति-रमणीय और इसकी सघन
वृद्धि पूर्णतया पुष्पों की, मधु-मक्खियों की, कोकिलाओं की, और मयूरों की
बनी प्रतीत हो रही थी।
जीविका की अपनी पूर्ण-अनुपस्थिति से, वह एक चित्रित,
अथवा अंकित, या अपाहिज, या
मृत, या सुप्त, या
ध्यान-समाधि में, वह गति-विहीन
था तब भी अपने
उचित मार्ग से भ्रमित था;
एकाकी, तथापि काम द्वारा पाशित; प्रदीप्त तथापि एक पीला मुख
चढ़ता हुआ; मस्तिष्क-शून्य तथापि अपने अंदर अपने प्रेम को एक स्थान
देता; मौन, और तथापि मदन
के महा-शत्रु की एक कथा
सुनाते; पाषाण पर बैठा, तब
भी मृत्यु-मुख में खड़े हुआ। वह काम-पीड़ित
था जो अभी तक
अनेक शापों के भय में
अदर्शित रहा था। अपनी महद निःशब्दता (स्थिरता) द्वारा वह इंद्रियों द्वारा
परित्यक्त प्रतीत होता था जो उसके
अंदर प्रेम को विचार करने
हेतु प्रवेश कर गई थी
जो उसके उर में निवास
करता था, और इसकी असहनीय
ऊष्मा के डर में
मूर्छित हो गया था,
अथवा अपने मस्तिष्क के उछाल पर
क्रोध में उसको छोड़ गया था। सतत निमीलित चक्षुओं से और कामदेव
की प्रखर अग्नि के धूम्र से
अंतः मंद, वह अपनी पलकों
के माध्यम से नीचे टपकते
अश्रुओं की एक वर्षा
अबाधित उड़ेलता था। निकट लताओं के तंतु उसकी
बाहर आती आहों में प्रकम्पित होते, उसके उर को जलाते
मदन की नवोत्थित गुलाबी
ज्वाला सम उसके ओष्टों
की लालिमा को धारण करता।
जैसे उसका कर उसके वाम
कपोल पर विश्राम करता
था, ऊपर उठते उसके नखों की स्पष्ट किरणों
से उसकी भ्रू अति-पावन चंदन का एक नूतन
तिलक धारण किए प्रतीत हो रही थी;
उसके कर्णावंतस पारिजात कुसुम को विलम्ब से
हटाए जाने से, उसका कर्ण एक तमाल पुष्प
अथवा भ्रमरों द्वारा नील-कमल से संपन्न था
जो काम को सम्मोहित करने
हेतु एक मंत्र गुनगुना
रहा था, उनके मृदु-गुंजन के आवरण के
नीचे जैसे वे एक चाह
में फैल जाते हैं उस सुवास के
शेष बचे रहने हेतु। एक अनुरागी रोमांच
में उठते अपने केशों के भेष में
वह अपने रोम-छिद्रों (कूपों) में मदन-शरों के कुसुमित दंशों
के टूटे अग्र-भागों की राशि अपने
अंग पर धारण करता
था। अपने दक्षिण-हस्त से उसने अपने
वक्ष पर एक मुक्ता-माला धारण कर रखी थी,
उसकी नखों की चमकती किरणों
द्वारा अंतर्गथित होने द्वारा, उसकी हथेली को स्पर्श करने
के सुख से प्रसन्नता में
रोमांचित हुई प्रतीत हो रही थी,
और ऐसा लगता था कि एक
असावधानी का ध्वज हो।
काम को साधने हेतु
एक चूर्ण सम उसपर वृक्षों
द्वारा पुष्प-रेणु छिड़का गया था; पवन द्वारा झूलती हुई अशोक-पल्लवों द्वारा उसका आलिंगन हुआ था, और उनकी गुलाबी
दीप्ति उसपर स्थानांतरित हो रही थी;
नूतन कुसुमों के गुच्छों से
मधु-बिंदु वन्य-लक्ष्मी द्वारा उसपर छिड़का गया था, जैसे मदन को अभिषिक्त कराने
हेतु जल; वह चंपक-मुकुलों
से कामेश्वर द्वारा प्रहार किया गया था, जो जैसे कि
उनकी सुवास मधु-मक्खियों द्वारा पी ली गई
थी और जो धूम्र
छोड़ते सब तीक्ष्ण कष्टकों
की तरह थे; वह दक्षिण-मलय
द्वारा छिड़काव किया गया था, जैसे कि वन की
अनेक सुरभियों द्वारा उन्मादित भ्रमरों के गुंजन द्वारा;
वह मधुमास द्वारा प्रमोहित था, जैसे कि अपने मधुर
आनंदातिरेक में कोकिलाओं द्वारा वसंत की जय हो'
गायन। उदित शशांक सम, उसने पीत वसन पहन रखे थे; ग्रीष्म में गंगा की धारा सम,
वह कृशता में सिकुड़ गया था; अपने उर में अग्नि
लिए एक चंदन-तरु
सम वह कुम्हला रहा
था। वह एक अन्य
जन्म प्रवेश
हुआ प्रतीत हो रहा था,
और एक अन्य पुरुष
भाँति विचित्र व अभिज्ञ था;
वह एक अन्य रूप
में परिवर्तित हो गया था;
जैसे कि एक बुरी
आत्मा द्वारा प्रवेशित होता है, एक महा-दैत्य
द्वारा शासित होता है, एक शक्तिशाली दानव
द्वारा पाशित होता है, मद्यपान सा किए, विभ्रांत,
अंध, बधिर, मूक, सर्वस्व प्रसन्नता एवं प्रेम लीन, वह स्मर (कामदेव)
द्वारा आविष्ट (पाशित) मन की दासता
चरम-बिंदु पर पहुँच गया
था, और उसका पुरातन-आत्म का अब ज्ञान
नहीं हो सकता था।
जैसे
मैंने एक नृत्य दृष्टि
द्वारा उसकी दुखित अवस्था का गहन निरीक्षण
किया मैं निरुत्साही हो गया और
अपने कम्पित उर में विचार
किया : यह एक सत्य
है कि कामदेव के
बल को कोई भी
रुद्ध न कर सकता
है; क्योंकि उसके द्वारा एक ही क्षण
में पुण्डरीक एक ऐसी दशा
में लाया गया है जिसका कोई
उपचार नहीं है। क्योंकि कैसे एक ऐसा ज्ञान-निधि सीधे ही अशक्य हो
गया ? दुर्भाग्य ! यह उसमें विस्मय
ही है जो बालपन
से ही दृढ़-प्रकृति
और अडिग-शील है, और जिसका जीवन
मेरे स्वयं तथा अन्य युवा-मुनियों का ईर्ष्या था।
यहाँ एक अधम नर
की भाँति ज्ञान तिरस्कार
करते, तपोबल की उपेक्षा करते,
उसने अपनी गहन-दृढ़ता उखाड़ दी है, और
काम द्वारा पंगु बना दिया गया है। एक युवा जो
कदापि डिगा नहीं है, वास्तव में विरला है। मैं आगे बढ़ा, और उसी पाषाण
(शिला) पर उसके निकट
बैठकर उसके कंधे पर अपना हाथ
रखते हुए, यद्यपि उसके नयन अभी तक बंद थे,
मैंने उससे पूछा : 'प्रिय पांडुरीक, मुझे बताओ इसका क्या तात्पर्य है।तब महद कष्ट और प्रयास से
उसने अपने चक्षु खोले, जो उनके निमीलन
से परस्पर चिपके से प्रतीत होते
थे, और निरंतर रुदन
एवं अश्रुओं से लबालब भरने
(अति-प्रवाह) से उसके लोचन
रक्तिम थे जैसे कम्पित हैं और कष्ट में
हैं, जबकि उनका वर्ण श्वेत-कौशेय में एक लाल गुलाबी
कुंज का था। उसने
एक अति-दुर्बल दृष्टि से दीर्घ तक
मुझे देखा, और तब गहरी
आह लेते हुए लज्जा द्वारा टूटे स्वरों में, वह शनै और
कष्ट संग बुदबुदाया : प्रिय कपिंजल, मुझसे क्यों पूछते हो जो तुम
जानते हो ? यह सुनकर, और
विचारकर कि पुंडरीक एक
अनोपचारित व्याधि में अतएव पीड़ित है, परंतु वह तथापि यावत-संभव एक दोषपूर्ण मार्ग
में प्रवेशित होता एक सुहृद है
जिसे जो प्रेम करते
हैं, द्वारा यथाशक्ति से वापस पकड़ा
जाना चाहिए। मैंने उत्तर दिया : प्रिय पांडुरीक, मैं भली-भाँति जानता हूँ। मैं केवल यह प्रश्न पूछूँगा :क्या
यह पथ जो तुमने
प्रारंभ किया है, तुम्हारे गुरु द्वारा शिक्षित हैं अथवा पावन-शास्त्रों में पढ़ा है ? अथवा क्या यह पुण्यता-विजय
का एक पथ है,
अथवा तप का एक
नूतन रूप है, अथवा किसी अनुशासन का प्रकार ? क्या
तुम्हारे लिए कल्पना करना भी उपयुक्त है,
देखना एवं बताना तो और भी
अल्प ? एक मूढ़ की
भाँति तुम नहीं देखते हो कि तुम
दुष्ट कामदेव द्वारा एक उपहास वस्तु
बने हुए हो ? क्योंकि इन वस्तुओं में
प्रसन्नता की क्या तुम्हारी
आशा है जैसे अधम
द्वारा सम्मानित परन्तु उत्तम द्वारा तिरस्कृत ? वह कर्त्तव्य के
विचार के नीचे हलाहल-तरु को निश्चित ही
जल देता है, अथवा एक उत्पल-माला
हेतु खड्ग-पादप को आलिंग्न करता
है अथवा कृष्ण भुजंग पर अधिकार करता
है, कृष्ण-अगरु को धूम्र-रेखा
हेतु लेता है, अथवा एक रत्न हेतु
एक जलते अंगार को स्पर्श करता
है, और एक वन्य
हस्ती के दंड सम
दंत उखाड़ने का प्रयास करता
है, यह सोचते कि
एक अरविंद तंतु है; वह मूर्ख है
जो इंद्रिय-सुखों में प्रसन्नता रखता है और दुःख
में समाप्त हो जाता है।
और तुम, यद्यपि इंद्रियों की सत्यप्रकृति को
जानते हुए भी, क्यों अपने ज्ञान को इस प्रकार
लेकर घूमते हो जैसे खद्योत
(जुगनू) अपना प्रकाश, मात्र छुपने के लिए, उसमें
तुम अपनी इंद्रियों का निग्रह नहीं
करते हो जबकि वे
अपने अनुरागी आवेश में कलुषित धाराओं सम अपने पथ
में शुरू होती है ? न ही तुम
अपने विडोलित मन पर नियंत्रित
करते हो। कौन, निस्संदेह यह कामदेव है?
अपनी दृढ़ता पर विश्वास करते
क्या तुम इस दुष्ट को
धिक्कारते हो।'
"जैसे
मैंने अतएव उवाच किया, उसने अपने कर से अपनी
पलकों के माध्यम से
बहते अश्रुओं संग बहती नयनों को पौंछा, और
यद्यपि वह अभी तक
मुझ पर झुका था,
मेरी वाणी की निंदा करते
हुए उसने उत्तर दिया : "सुहृद, अनेक शब्दों की क्या आवश्यकता
है ? तुम न्यूनातिन्यून (कम से कम)
अस्पृश हो। भुजंग-हलाहल से निर्दयी कामदेव
के शरों की परिधि में
तुम अभी तक नहीं पड़े
हो। अन्यों को शिक्षा देना
आसान है। और जब अन्य
के पास अपनी ज्ञानेंद्रियाँ व अपना मस्तिष्क
है, और देखता है,
सुनता है, और जानता है
कि उसने क्या सुना है और शुभ-अशुभ को पहचान सकता
है, तब वह उपदेश
देने हेतु उपयुक्त है। परन्तु यह सब मुझसे
दूर है, स्थिरता, न्याय, दृढ़ता, मीमांशा एक अंत पर
आ गई है। मैं
महद प्रयास बिना कैसे श्वास भी लेता हूँ
? उपदेश हेतु समय दीर्घ व्यतीत हो गया है,
दृढ़ता व निर्णय ऋतु
बीत चुकी है। इस समय तुम्हारे
सिवाय कौन उपदेश दे सकता है
? अथवा मेरे आश्चर्य को नियंत्रण करने
का प्रयास कर सकता है
? तुम्हारे सिवाय मैं किसको सुन सकता हूँ ? अथवा इस विश्व में
तुम सम कौन सखा
है ? मुझे क्या व्यथित करता है कि मैं
अपने पर नियंत्रण नहीं
कर सकता हूँ ? तुमने एक क्षण में
ही मेरी अधम दुर्दशा को देखा है।
जब मैं श्वास लेता हूँ, मैं प्रेम-ज्वर हेतु किंचित उपचार की कामना करता
हूँ, जो विश्व-संहार
पर बारह सूर्यों की किरणों से
भी हिंसक है। मेरे अंग झुलस गए हैं, और
मेरा हृदय कम्पित है, मेरे नेत्र जल रहे हैं,
और मेरी देह अग्नि पर है। अतएव
उस उवाच पश्चात जो समय की
माँग हो, करो।' तब वह मौन
हो गया, और उस उवाच
पश्चात मैंने बारंबार जगाने का प्रयत्न किया;
परंतु जैसे कि उसने नहीं
सुना जबकि पौराणिक कथाओं के साथ, उसके
सम उदाहरणों से पूर्ण शास्त्रों
की पावन शिक्षा के शब्दों में
कोमलता व स्नेह से
प्रोत्साहित किया गया, मैंने विचारा : ‘वह बहुत दूर
तक चला गया है, उसे वापस नहीं मोड़ा जा सकता है।
अब परामर्श व्यर्थ है, अतः मैं उसके जीवन-परिरक्षण हेतु मात्र एक प्रयास करूँगा।'
इस व्रत के साथ मैं
उठा और चला गया,
और सरोवर से कुछ सरस
उत्पल-पल्लव काटे; तब जल द्वारा
चिन्हित कुछ अरविंद-पर्णों को लेकर, मैंने
सब प्रकार के कमल तोड़े
जो अंतः-सुरभित पुंकेसर की सुवास से
मधुर थे, और लता-मण्डप
में उसी शिला पर एक शयन
तैयार किया। और जैसे कि
उसने वहाँ निश्चिन्तता से विश्राम किया,
मैंने निकट चन्दन-तरुओं की इसकी प्राकृतिक
तनु-शाखाओं को घर्षण किया,
और प्राकृतिक मधुर व हिम सम
शीतल उनके रस से उसके
मस्तक पर तिलक बनाया,
और उसे शीर्ष से पाद तक
अभिषिक्त कराया। मैंने अपने कर में समीप
वृक्षों की फटी छाल
के रन्ध्रों से टूटी कर्पूर-रज चूर्ण द्वारा
श्वेद को अल्प किया,
और एक शुद्ध जल
में भिगोकर एक केले के
पत्ते से उसको वात
किया, जबकि वल्कल अंशुक जो उसने पहन
रखा था उसके वक्ष
पर रखे चंदन से आर्द्र हो
गया था; और जैसे मैंने
पुनः-२ नवनूतन कमल
शयन पर छितरित किए,
और उसे चंदन द्वारा अभिषिक्त किया, और श्वेद को
हटाया, और लगातार उसे
अनिल दी, मेरे मस्तिष्क में विचार उदित हुआ, 'निश्चय ही मदन हेतु
कुछ भी कठिन नहीं
है। क्योंकि वह प्रकृति से
सरल और अपने वन्य-आवास द्वारा संतुष्ट, एक मृग सम
पाण्डुरीक व गंधर्व राजकन्या
महाश्वेता, महिमाओं की आकाश-गंगा
को कैसे इतना दूर देखेगा; सत्य ही मदन हेतु
विश्व में कुछ भी कठिन नहीं
है अथवा दुष्कर है अथवा अनियंत्रित
है, अथवा असंभव है। वह उपेक्षा से
कठिनतम कार्य साधन करता है, कोई भी उसे नियंत्रित
नहीं कर सकता। इंद्रियों
से संपन्न जीवों के बारे में
बोलना है क्या जब
ऐसा हो उसे प्रसन्न
करो, बिना ज्ञानेन्द्रियों की वस्तुओं को
भी संगठित बना सकता है। क्योंकि रात्रि के कमल-कुञ्ज
अरुण-अंशुओं (रश्मियों) संग प्रेम में पड़ जाते हैं,
और दिवस-उत्पल शशि के अपने विद्वेष
को छोड़ देता है, पर निशा अह्न
(दिवस) से जुड़ जाती
है, और शशि-ज्योत्स्ना
मालिन्य (अंधकार) की प्रतीक्षा करती
है, और छाया प्रकाश
के मुख पर खड़ी हो
जाती है, और तड़ित मेघ
में निश्चल रहती है और वृद्धावस्था
यौवन का संग लेती
है, और एक पाण्डुरीक
के अतिरिक्त क्या अधिक दुष्कर वस्तु वहाँ हो सकती है,
जो अप्रमेय गहराई का एक महासागर
है, अतएव दूब की तनुता पर
लाना चाहिए ? उसका पूर्वतन (पूर्व) का तप कहाँ
है, और कहाँ उसकी
वर्तमान स्थिति है ? सत्य ही यह उपचार
रहित व्याधि है जो उस
पर पड़ी है ! अब मुझे क्या
करना अथवा प्रयास करना चाहिए, अथवा किधर जाना चाहिए, अथवा क्या शरण अथवा सहायता या उपाय अथवा
योजना, या गति है
जिससे उसका जीवन अनवरत रह सके ? अथवा
किस कुशलता, यंत्र, या साधन, या
सहारा, या विचार, या
आश्वासन से वह अभी
तक जीवित रहे ? ये और अन्य
अतएव विचार मेरे अधोमुखी उर में उदित
हुए। परंतु पुनः मैंने सोचा, 'इस वृथा विचार
पर रहने से क्या मिलने
वाला है ? उसका जीवन किसी भी प्रकार, अच्छे
या बुरे से बचाना चाहिए,
और इसे बचाने का उस (महाश्वेता)
के संग इसके जुड़े रहने के अतिरिक्त कोई
अन्य पथ नहीं है;
और जैसे कि वह अपने
तारुण्य के कारण भयभीत
है और उससे भी
अधिक अपने व्रत के विपरीत अशोभनीय
प्रेम-विषयों में मदद करता है, और अपने को
एक हास्यस्पद बना दिया है, अपने अंतिम श्वास पर भी अपने
द्वारा उसको पाने की अपनी अभिलाषा
से संतुष्ट नहीं होगा। उसके प्रेम की यह व्याधि
किसी विलंब को प्रवेश नहीं
देती है। उत्तम पुरुष सदा कहते हैं कि एक मित्र
का जीवन एक निंदनीय कृत्य
द्वारा भी बचा लिया
जाने चाहिए : जिससे यद्यपि यह एक लज्जायुक्त
और अनुपयुक्त कृत्य है, यह अब तक
मेरे हेतु अनिवार्य बन गया है।
और क्या किया जा सकता है
? क्या अन्य मार्ग वहाँ है ? मैं निश्चित ही उसके पास
जाऊँगा। मैं उसको उसकी दशा बताऊँगा।' यह विचारते हुए
मैंने कुछ उपालंभ (बहाने) से स्थान छोड़
दिया, और उसको बिना
बताए यहाँ आया जिससे संयोग से वह अनुभव
करे कि मैं एक
अनुचित उद्यम में न लगा हूँ,
और लज्जा में मुझे वापस रोक ले। विषयों की यह अवस्था
होने से, तुम कामिनी, इस समय क्या
किया जाना आवश्यक है की निर्णायक
हो, एक इतने महद-प्रणय के उपयुक्त, मेरे
आने के उपयुक्त और
अपने स्वयं के लिए उचित
इन वचनों के साथ वह
मौन गया, मेरे मुख पर अपनी दृष्टि
स्थिर करके यह देखने हेतु
कि मुझे क्या कहना चाहिए। परन्तु मैं, उसको सुनकर गोता लगा गई जैसे कि सुधामयी
प्रसन्नता सरोवर
हूँ, अथवा प्रणय-माधूर्यों महासमुद्र
में डूब गई हूँ, सभी
हर्षों से अश्रु तैरते,
सभी कामनाओं पर शिखर पर
चढ़ते, प्रमुदता की चरम पराकाष्ठा
पर विश्राम करती मैंने अपना हर्ष स्पष्ट, विशाल और भारी प्रसन्न-अश्रुओं द्वारा दर्शित किया, क्योंकि मेरे पक्ष्म (पलक) बंद नहीं थी, अपने निरत अनुक्रमण द्वारा एक माला की
भाँति गुँथी हुई, और अपने कपोलों
को स्पर्श न करती, क्योंकि
मेरा आनन आकस्मिक लज्जा में किंचित मुड़ा था; और मैंने एकदम
विचार किया और हर्ष वह
प्रेम उसको : और हर्ष, वह
प्रेम उसको व मुझको एक
साथ प्रतिबद्ध (फाँसता) है, जिससे कि मुझको पीड़ित
करते हुए भी, उसने आंशिक रूप में दयालुता है; और यदि पुण्डरीक
सत्य में एक ऐसे पलायन
में है, कामदेव ने मुझको क्या
सहायता नहीं दी है, अथवा
उसने मेरे हेतु क्या नहीं किया है, अथवा उसके भाँति कौन मित्र है, अथवा एक मिथ्या कथा
कैसे हो सकती है,
जो शांत-आत्मा कपिंजल के ओष्टों से
निकलती है ? और यदि ऐसा
भी हो, मुझे क्या करना चाहिए, और उसकी उपस्थिति
में मुझे क्या कहना चाहिए ? जब मैं अतएव
मनन कर रही थी,
एक प्रतिहारिणी ने शीघ्रता से
प्रवेश किया, और मुझसे कहा
: 'राजकन्ये, अपनी परिचारिकाओं से महारानी जी
को ज्ञात हुआ है कि तुम
अस्वस्थ हो, और वह अब
आ रही है।' यह सुनने पर,
एक महद जमघट के संपर्क से
भीत हो यह कहते
हुए शीघ्रता से उठा : 'राज्यकन्ये,
महद विलम्ब का एक कारण
उदित हुआ है।त्रिलोकों मुकुट-रत्न अब डूब रहा
है, अतः मैं विदा लूँगा। परंतु मैं अपने मित्र की जीवन को
बचाने हेतु एक तुच्छ भेंट
की रूप में अभिवादन में कर उठाता हूँ;
वही मेरी महानतम निधि है। तब, मेरे उत्तर की बिना प्रतीक्षा
किए, कठिनता से उसने विदाई
ली क्योंकि परिचारकों के आगमन द्वारा
द्वार बाधित था, जो मेरी माताश्री
के अग्रदूत थे। स्त्री-द्वारपाल सुवर्ण-दंड धारण किए वहॉं थी; प्रलेप, प्रसाधन, पुष्प और पान लहराते
चँवरों को धारण किए
कंचुकी (सेवक); और शृंखला
में मंथर (कुबड़ा), बर्बर, बधिर व्यक्ति, नपुंस, वामन, और बधिर-मूक
थे।
"तब
महाराज्ञी मेरे पास आई और एक
दीर्घ भ्रमण उपरांत निकेतन गई; परंतु जब वह मेरे
साथ थी उसने क्या
किया, बोला या प्रयत्न किया,
मैंने कुछ भी ध्यान नहीं
दिया, क्योंकि मेरा उर अति दूरस्थ
था। हरिताल कपोतों सम शुभ्र सूर्य
के अश्वों संग जब वह गई
जो उत्पलों का प्राण-स्वामी
और चक्रवाक-सखा, विश्राम हेतु अस्त हो चुका था,
और प्रतीच्य (पश्चिम) आनन गहरा रक्तिम था, और कमल-कुंज
हरित हो गए थे,
और प्राची (पूर्व) नीलिमा में परिवर्तित हो रहा था,
और नश्वर-विश्व कालिमा द्वारा अभिभूत था, जैसे पाताल-मृदा से कलुषित अंतिम
प्रलय की सागर-ऊर्मि
सम हो। मैं नहीं जानती थी कि क्या
किया जाना चाहिए, और तारालिका से
पूछा, "तुम नहीं देखती हो, तारालिका, कैसे मेरा मस्तिष्क भ्रमित है ? मेरी इंद्रियाँ अनिश्चितता से व्याकुल हैं,
और मैं स्वयं के अल्पतम-दर्शन
में भी असमर्थ हूँ
कि मुझे क्या करना चाहिए। क्या तुम मुझे बताओगी कि क्या करना
उचित है, क्योंकि कपिञ्जल अब जा चुका
है, और उसने तुम्हारी
उपस्थिति में अपनी कथा सुनाई है। क्या यदि एक निम्न-कुल
कन्या भाँति लज्जा त्याग दूँ, आत्म-नियंत्रण छोड़ दूँ, विनय परित्याग कर दूँ, जन-दोषारोपण की अवहेलना करूँ,
उत्तम व्यवहार का उल्लंघन करूँ,
शील को कुचल दूँ,
उत्तम-जन्म का तिरस्कार करूँ,
एक प्रेमान्ध-पथ की अपकीर्ति
स्वीकार कर लूँ, और
बिना अपने पिताश्री से आज्ञा लिए
अथवा अपनी माताश्री की स्वीकृति लिए,
क्या मुझे उसके पास जाना चाहिए और अपना पाणि
अर्पण करना चाहिए ? अपने अभिभावक-इच्छा के विरुद्ध यह
अतिचार एक महद विधर्म
होगा। परंतु यदि, अन्य पर्याय (विकल्प) को लेते हुए
मैं कर्तव्य-पालन करती हूँ, मैं प्रथम ही स्थल में
मृत्यु स्वीकार कर लूँगी, और
अतएव मैं उस वंदनीय कपिंजल
का उर भी छेदित
कर दूँगी, जो प्रथम उसे
स्नेह करता था, और जो यहाँ
उसके हेतु ही आया। पुनश्च,
यदि दुर्योग से उसकी आशाओं
को नष्ट करते मेरे कृत्य द्वारा उसकी प्राण-हानि होती है, तब एक तापसी-मृत्यु का कारण बनना
होगा एक महद पातक
होगा।' जब मैंने अतएव
विचारा, प्राची चंद्रोदय-ज्योत्स्ना के मंद प्रकाश
से शुभ्र हो गया, जैसे
कुसुम-रेणुओं संग मधुमास में वनों की एक अवली।
और शशि-ज्योति में पूर्व दिशा श्वेत दिखती थी जैसे कि
सिंह शशांक द्वारा गज-मस्तक के
तम को फाड़कर खोले
मुक्ता-चूर्ण सहित हो। अथवा प्राची पर्वत की अप्सराओं के
वक्षों से गिरते चंदन-रेणु से पीत, अथवा
ज्वार द्वारा एक द्वीप में
ऊपर उठते रेत सहित प्रकाश, जो सदैव-गतिशील
महासागर की ऊर्मियों पर
मलय द्वारा आंदोलित किया जा रहा था।
शनै चंद्र-प्रकाश नीचे फिसला, और रात्रि के
आनन को शुभ्र बना
दिया, जैसे कि यह उसके
दंत-कांति हो जब वह
इंदु-दर्शन पर ममंद-स्मित
करती हो; तब संध्या चंद्र-वृत संग चमक रही थी, जैसे कि जब यह
पाताल से उदित हुई
हो, पृथ्वी के मध्य को
तोड़ता हुआ शेष-फणों के
वृत्त हों; उसके पश्चात, रात्रि इंदु-वृत्त द्वारा श्वेत हो गई नश्वर-विश्व को प्रसन्न करता
है, प्रेमियों का हर्ष, अब
अपने शैशव को पीछे छोड़
रहा था और कामदेव-सहायक बन रहा था,
अंदर से उगती एक
तरुण-ज्योति संग काम-सुखों के आनंद हेतु
मात्र उपयुक्त प्रकाश, सुधामयी अभिनय करते तरुण संग गगन-मंडल में चढ़ते।तब मैंने उदित होते हिमांशु को देखा जैसे
कि यह सागर, जिसको
अभी इसने छोड़ा है, के मूंगे के
साहचर्य से लाल था,
पूर्वी पर्वत के सिंह के
पंजे द्वारा घायल किए गए इसके मृग
के रक्त से गहरा रोहित,
रोहिणी के चरण-लक्ष
से चिन्हित, जैसे कि उसने अपने
स्वामी को एक प्रेम-कलह में अस्वीकृत कर दिया हो,
और नव- संदीप्त ज्योत्स्ना संग गुलाबी हो। और यद्यपि मेरे
अंतर में कामाग्नि जल रही थी,
मैंने अपने उर को तमस
में कर लिया, यद्यपि
मेरी वपु तारालिका के अंक में
विश्राम कर रही थी,
मैं मदन के कर में
एक बंदी थी; यद्यपि मेरे चक्षु शशि पर स्थित थे,
मैं मृत्यु पर देख रही
थी और मैंने सीधे
सोचा, "मधुमास है, मलय-पवन है, और अन्य सभी
वस्तुऐं परस्पर एकत्रित कर लाई गई
हैं, और इसी स्थल
में यह पातकी खल
चंद्रमा असहनीय है। मेरा उर इसको सहन
नहीं कर सकता है।
इसका उदय अब ज्वर द्वारा
एक ग्रसित को अंगारों की
एक बौछार सम है, अथवा
सर्द द्वारा व्याधिग्रस्त पर हिमपात, अथवा
हलाहल से फूले हुए
एक मूर्छित पर एक कृष्ण-भुजंग का दंश।" और
जैसे कि उसने अतएव
विचार किया, जो दिवस-कमलों
को म्लान कर देती है।
मगर शीघ्र ही मैंने पंखा
झलने और व्याकुल तारालिका
के चंदन-लेप द्वारा पुनः चेतना प्राप्त कर ली, और
उसे रुदन करते हुए देखा, उसका मुख अबाधित अश्रुओं द्वारा मंदित था मेरे मस्तक
पर एक आर्द्र मूंगे
(रतन) के एक बिंदु
को दबाते हुए, और निराशा की
मूर्त द्वारा पाशित प्रतीत होता था। जैसे मैंने अपने लोचन खोले, वह मेरे चरण-पतित हो गई, और
स्थूल-चंदन लेप से अभी तक
आर्द्र करों को उठाते हुए
बोली : "राजकन्ये, क्यों अभिभावकों हेतु लज्जा अथवा अनादर का विचार करती
हो ? करुणावती बनो; मुझे भेजो, और मैं तुम्हारे
उर-प्रणयी को लेकर आऊँगी;
उठो अथवा वहाँ स्वयं जाओ। इसके पश्चात तुम इस कामदेव को
सहन नहीं कर सकती हो
जो एक सागर है
जिसकी बहुरूपी अनुरागी उतलिकाऐं (उर्मियाँ) एक शक्त-इंदु
के उदय पर फूल रही
हैं।' इस संवाद पर
मैंने उत्तर दिया : "मूढ़ बाला, मेरे पर यह क्या
प्रेम है ? यह चंद्र, चाहे
निशा-मृणालों का भर्ता है,
जो समस्त संदेह हटाता है, पलायन द्वारा हेतु सभी अन्वेषण दुर्बल करता है, सभी कठिनाइयों को गुह्य करता
है, सभी संदेहों को भगाता है,
सभी भयों की उपेक्षा करता
है, सभी लज्जाओं को उखाड़ फेंकता
है, मेरे प्रेमी के पास मेरे
जाने की पातक चंचलता
को आवरण करता है, सभी विलम्बों त्याग करता है, और मात्र मुझे
या तो पांडुरीक अथवा
मृत्यु के पास ले
जाने को आया है।
अतः उठो क्योंकि जब तक मुझमें
जीवन है मैं उसका
अनुसरण करुँगी और उसका सम्मान
करूँगी जो जैसा कि
प्रिय है, मेरे उर को विदीर्ण
कर देता है।" अतएव कहते हुए, मैं उठी, उसके ऊपर झुकते हुए क्योंकि मेरे अंग अभी तक मदन द्वारा
लाई गई मूर्च्छा की
दुर्बलता से अस्थिर थे,
और जैसे ही मैं उठी,
मेरी दक्षिण लोचन स्फूर्त (फड़फड़ाना) शुरू गई, बुराई के पूर्व-लक्षण
बताते हुए, और आकस्मिक भय
में मैंने सोचा : "दैव द्वारा भयभीत यह क्या नव-वस्तु है ?"
"गगन
अब शशि-ज्योत्स्ना से पूरित था
जैसे कि यह चंद्र-वृत्त हो, जो अभी तक
उदित नहीं हुआ था, ब्रह्मांड-देवालय की जल-सारणि
सम, आकाश-गंगाओं की एक सहस्र-धाराओं को मुक्त करते,
एक अमृत-उदधि की ऊर्मियों को
अग्रलीन करते, अनेक चंदन-द्रव के जल-प्रपात
छोड़ते, और सुधा-प्लूतों
को धारण करते; विश्व यह सीखता प्रतीत
हो रहा था कि श्वेत-महाद्वीप में जीवन क्या था, और सोम-भूमि
के दृष्टि-आनंद को लेता; गोलक
पृथ्वी इन्दु द्वारा एक आकाशीय-समुद्र
की गहराइयों से बाहर उड़ेली
जा रही थी जो महावराह
के गोल दन्त सम था; चंद्रोदय
की भेंटें प्रत्येक आवास में गृहिणियों द्वारा विकसित उत्पलों से सुवासित, चंदन-द्रव संग अर्पित की जा रही
थी; सुंदर ललनाओं द्वारा प्रेषित, सहस्रों स्त्री-संदेशवाहकों सहित राजपथ भरे हुए थे; नील-कौशेय में आवरित और शुभ्र चंद्र-प्रकाश के भय द्वारा
स्पंदित अपने प्रेमियों को मिलने जा
रही तरुणियाँ यहाँ-वहाँ दौड़ रही थी, जैसे कि वे श्वेत
दिवस-कमल कुञ्जों की अप्सराऐं हों
जो नीलकमलों की भव्यता में
छुपी हों; निशा-सरिता में नभ एक जलोढ़
(कछारी) द्वीप सा बन गया
था, प्रफुल्लित रात्रि-उत्पलों के कुंजों के
स्थूल रेणु द्वारा श्वेतिमा अपने केंद्र केंद्र सहित; जबकि निकेतन-जलाशयों में निशा कमल-कुंज जागृत थे, जिसके प्रत्येक पुष्प पर भ्रमर झूम
रहे थे; जलधि भाँति नश्वर-विश्व चंद्रोदय-हर्ष को समाहित करने
में असमर्थ था, और प्रेम, उत्सव,
हर्ष और तनुता से
निर्मित हुआ प्रतीत होता था : संध्या प्रसन्नता में मुखरित मयूर-नाद से प्रसन्न थी
जो मूंगों के जल-सारणियों
से पतित जल-प्रपात सम
था।
"तारालिका
चूर्ण, परिमल (सुगंधि-द्रव्य), प्रलेप, तांबूल और विभिन्न कुसुम
लेकर मेरे संग चली, और मैंने भी
वह पिचु (रुमाल) ले रखा था,
जो चंदन-प्रलेप से आर्द्र था
जो मेरी मूर्च्छा में मुझपर लगाया गया था, और जिसके रोम
किंचित अव्यवस्थित थे और यह
चिपके चंदन-चूर्ण के अर्ध-शुष्क
चिन्ह सहित मलिन था; माला मेरे कंठ में थी; पारिजात-कुसुम मेरे कर्ण-छोर को चूम रहे
थे; लाल-कौशेय में आवरित वह पदमराग (लालमणि)
की किरणों से रूप-प्रदत्त
की हुई प्रतीत होती थी; किसी भी मेरे सेवानिष्ठ
अनुचरों द्वारा न देखी गई
मैं अपने आवास की छत से
उतरी। अपने पथ में मैं
भ्रमर-झुण्ड द्वारा अनुचरित थी; पारिजात कुसुमों की सुवास द्वारा
आकर्षित कमल-कुञ्जों को छोड़कर और
उपवन त्यागकर जो क्रीड़ा से
मेरे गिर्द एक नीला-आवरण-निर्माण की शीघ्रता कर
रहे थे। मैं आनंद-कुंज के द्वार से
बाहर निकली और पाण्डुरीक-मिलन
हेतु प्रस्थान किया। जैसे ही मैं गई,
मात्र तारालिका द्वारा ही अपनी सेवा
में प्रस्तुत देखकर मैंने सोचा : "जब हम सर्वाधिक
प्रिय की इच्छा करते
हैं तो परिचारक-वर्ग
की क्या आवश्यकता है ! तब निश्चित ही
हमारे अनुचर मात्र उपस्थिति का उपहास करते
हैं, क्योंकि प्रत्यंचा चढ़े धनुष पर शर लिए
मदन मेरा अनुसरण कर रहा है;
एक दीर्घ कर बढ़ाकर इंदु
मुझे एक हस्त की
भाँति पकड़ता है; पतन के भय से
अनुराग प्रत्येक चरण पर मुझे सहारा
देता है; लज्जा को पीछे छोड़कर
मेरा उर इंद्रियों सहित
शीघ्रता करता है; निश्चित ही कामना की
वृद्धि हुई है, और मेरा नेतृत्व
कर रही है।" मैंने जोर से कहा : 'ओ
तारालिका, क्या यह दुष्ट शशांक
अपनी रश्मियों से उसके केशों
को पीछे से पकड़ लेगा
और मेरी भाँति उसको आगे खींच लेगा।" जैसे ही मैंने अतएव
उवाच किया, उसने मुस्कुरा कर उत्तर दिया
: ''तुम मूर्ख हो, मेरी राजकुमारी ! शशि पाण्डुरीक से क्या चाहता
है ? नहीं, जबकि वह स्वयं जैसे
कामदेव द्वारा विक्षत, ये सब चीजें
तुम्हारे लिए करता है; क्योंकि अपने प्रतिबिंब के स्वांग के
नीचे स्वेद-बिंदुओं से चिन्हित तुम्हारे
कपोलों का चुंबन करता
है; कम्पित किरणों द्वारा तुम्हारे शुभ्र वक्ष पर पड़ता है;
वह तुम्हारी मेखला-रत्नों को स्पर्श करता
है; तुम्हारे चमकते नखों में उलझा वह तुम्हारे चरणों
पर पड़ता है; इससे भी अधिक, इस
प्रेम-पीड़ित चंद्र की मूरत ज्वर
द्वारा शुष्क एक चंदन-लेप
के पीतपन को जीर्ण करती
है; वह मृणाल-पल्लव
सम श्वेत अपनी किरण रूपी करों को बाहर खींचता
है; अपनी प्रतिच्छाया के वेश में
वह स्फटिक पथों पर पड़ता है;
केतकी के अंतर-केसरों
से रेणु सम मलिन अपने
किरण-पदों सहित, वह उत्पल-सरों
में छलाँग लगाता है; एक बार बिछुड़े
अपने चक्रवाक-युग्लों संग वह दिवस-अरविंद
कुंजों को घृणा करता
है।" समय के उपयुक्त अतएव
संवाद संग, मैं उसकी संगति में उस स्थल पर
पहुँच गई। तब मैंने हमारे
पथ पर लता-पुष्पों
से पतित रज से मलिन
कैलाश-तीर से बहते, चन्द्रोदय
द्वारा द्रवीकृत, कपिञ्जल के आवास के
निकट एक स्थल में
जहाँ इंदु-मणि का एक निर्झर
था, में अपने चरण धोऐ, और वहाँ, सरोवर
के वाम तीर पर मैंने दूरी
द्वारा मद्धम, एक मनुष्य की
रुदन-ध्वनि सुनी। प्रथमतया मेरी दक्षिण-लोचन फड़कने से मुझमें किंचित
भय उदित हुआ, और अब कि
मेरा उर इस क्रन्दन
द्वारा अभी तक अधिक ही
फट गया था, जैसे कि मेरा खिन्न
मन अन्तः की भयावह समाचार
बता रहा हो, मैंने भय में क्रंदन
किया : "तारालिका, इसका क्या अर्थ है ?" और कम्पित अंगों
से मैंने निश्वास की शीघ्रता की।
"तब
मुझे दूर से रात्रि-निः-शब्दता में स्पष्ट एक शोकमयी रुदन
सुनाई दिया : अहोभाग्य, मैं अकृत (नष्ट) हो गया हूँ।
मैं उपभुक्त (रिक्त) हो गया हूँ।
मैं वंचित (छली) गया हूँ। यह क्या है
जो मेरे ऊपर पतित हुआ है ? क्या घटित हुआ है ? मैं निर्मूल हो गया हूँ।
निर्दयी दैत्य मदन, पातकी व अकरुण, तुमने
क्या लज्जाजनक कृत्य होने दिया है ? अरे छली-व्याभिचारिणी महाश्वेता, कैसे उसने तुमको हानि पहुँचाई है ? आह दुष्ट, कामुक
चंद्र-चांडाल, तूने अपनी कामना-प्राप्ति की है। दक्षिण
की निष्ठुर मंद-समीर, तेरी मृदुता जा चुकी है,
और तेरी अभिलाषा पूरित हुई है। जो किया जाना
था, हो चुका है।
जाओ, अब जहाँ तुम
चाहो। दुर्भाग्य, आदरणीय श्वेतकेतु, स्व पुत्र-स्नेही, क्या तुम नहीं जानते हो कि तुम्हारा
प्राण तुमसे छीना गया है ! धर्म, तुम निराधिकार हो ! तप, तुम अरक्षित हो ! सरस्वती, तुम विधवा हो गई हो
! सत्य, तुम अभर्ता (स्वामी-रहित) हो ! स्वर्ग, तुम शून्य हो ! मित्र, मेरी रक्षा करो। मैं तब भी तुम्हारा
अनुसरण करूँगा ! मैं तुम्हारे बिना एकाकी एक पल भी
नहीं रह सकूँगा ! तुम
यकायक मुझे कैसे छोड़ सकते हो, और एक अपरिचित
सम अपने पथ पर जाते
हो जिस पर मेरे लोचन
कदापि ठहरते न थे ? कहाँ
से तुममें यह महद कर्कशता
आई है ? कहो, किधर, तुम्हारे बिना मैं जाऊँ ? किससे मैं अनुनय-विनय करूँ ? क्या शरण मैं लूँ ? मैं अंधी हुआ हूँ ! मेरे लिए गगन शून्य है ! जीवन अलक्षित, तप व्यर्थ, विश्व
हर्ष-रिक्त ! मैं किसके संग भ्रमण करूँगा, किससे बोलूँगा, किसके साथ संवाद करूँगा ? क्या तुम उठते हो ! मुझे उत्तर दो। मित्र, मेरे हेतु तुम्हारा पुराना प्रेम कहाँ है ? कहाँ है वह स्मित-स्वागत जो मुझे कभी
निराश नहीं करता था।"
......क्रमशः
हिंदी भाष्यांतर,
द्वारा
पवन कुमार,
(0९ फरवरी, २०१९ समय २0:३३ सायं)
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