संध्या समय है अपने घर में खाली बैठा, उधेड़बुन में क्या करूँ उत्तम
दो-दिवस की छुट्टियाँ यूँ ही बीत जाती, कोई रचनात्मकता न दर्शित।
कहीं पढ़ा डायरी के बजाय कुछ लेखक सीधा कंप्यूटर पर करें लेखन
उससे काम आधा हो जाता, पहले लिखने का व बाद में टाइपिंग का।
एडिटिंग तो करनी ही होती, कोशिश आज सीधा लिखने की हूँ करता
जानता कि टाइपिंग में बड़ी मशक्क्त होती, समय भी ज्यादा है लगता।
हिंदी टाइपिंग तो स्वयं कर लेता, इंग्लिश किसी ऑपरेटर से करवाता
उनको भी समय कम ही मिलता, समय लेते, कई बार कहना पड़ता।
अब यह व्यक्तिगत कार्य, अतः ज्यादा तो दबाव भी न दिया जा सकता
अंग्रेजी-कार्यों पर अधिक कार्य न हो रहा, एडिटिंग भी न कर पा रहा।
डायरी तो बहु लिखित पर एडिट /पोस्ट न, अतः उत्पादकता अल्प ही
इसके वर्धनार्थ कुछ उपाय करने चाहिए, पर मिलें तो पढ़ने वाले भी।
वर्णिक जान लगाकर लेख को एडिट कर के बाद रचना छापता जब
एकदम तो कम ही पूरा पढ़ते हैं, बाद में कुछ पढ़ते रहते ब्लॉगर पर।
लिखना निज में एक टेढ़ी खीर सा, पर कितने लोगों को ही रूचि पढ़ने में
फिर काव्य बहु समय लेता, सब एक जैसा लगता, कौन समय व्यर्थ करे।
ग्रंथालयों में अति श्रम से लिखित अनेक ग्रंथ, पर कितने उनका लाभ लेते
पाठय-पुस्तकें पठन विद्यार्थियों की मजबूरी, लेखक - नाम भी याद रखते
कुछ प्रसिद्धों को पढ़ते, पर यह संस्कृति-अंश कितनों की रूचि अक्षर में।
लोगों में स्वीकारोक्ति होना बड़ी बात, पठन-शौकीन तो कमसकम पढ़े
मित्रों समक्ष तो प्रस्तुत फेसबुक माध्यम होता, कुछ लाइक भी हैं करते।
पर कितनी पंक्ति पढ़ी यह तो अज्ञात, क्योंकि प्रथम पठनीयता कम ही
पर साहित्य-कर्म एक दिवसार्थ ही नहीं, धैर्य रखो शायद मिले यश भी।
लेखन स्वयं-सिद्धा प्रयास ही, साधारण मन जैसे समक्ष आता लिख देता
अच्छा-बुरा तो मन में न है, एक साधारण व्यक्ति कैसे बड़ा सोच सकता।
कुछ बड़े लेखकों को पढ़ने का यत्न भी करता, पर शैली नहीं चलती पता
क्रिएटिव-लेखन एक कोर्स भी, प्रोफेशनल तरह से सीखा है जा सकता।
गत वर्षों न बहु काम था, उच्चतर अध्ययन न कर लेखन में लगाया समय
कितनी गुणवत्ता आई एक विशाल प्रश्न, हाँ शब्द जरूर हो जाते अंकित।
उद्देश्य अधिकाधिक तक पहुँचने का, पढ़कर प्रतिक्रिया दें तो शोभनीय
पर न्यूनतम गुणवत्ता हो टिपण्णी हेतु, लेखक-धैर्य की परीक्षा होती नित।
मैं भी एक विचित्र इंसान हूँ, काम बीच में छोड़ फोन में व्यस्त हो जाता
इस आदत से तो सब बीमार हैं काफी व्यर्थती, मन अन्यत्र पहुँच जाता।
माना बीच में कुछ विराम चाहिए, पर तथापि सोचो मन में कुछ सुभीता
वैसे लेखन भी 'शोधित मनन-कार्य' ही, जितना डूबोगे उतनी गुणवत्ता।
सोशल मीडिया का लोभ छोड़ो, वहीं मिलेगा पर लेखन-समय न आएगा
आऐगा भी तो अब जैसा तो कतई न, लक्ष्य यहाँ है मौलिकता निकालना।
यावत न बैठोगे न अच्छा या निकृष्ट, प्रथम कर्त्तव्य शांत बैठ लीन होने का
कहते लेखन में आयतन की महत्ता, अधिक शब्दों से नव-विचार खिलेगा।
मुझे लेखन की दिशा निर्धारित करनी चाहिए, यूँ ही गँवाओ मत समय
एक उत्तम विषय लो पूर्ण झोंक दो, देखो कितना गुणवत्तापूर्ण है संभव।
लोगों ने बड़े-२ अनेक ग्रंथ लिखे, वे ध्यानाकर्षण से ही उद्भासित हुए हैं
तुम अन्य संदर्भों का भी सहारा लो, लोग बड़े नामों का उल्लेख चाहते।
कई बार चिंतित कि जीवन में जितना करना चाहिए, उतना न हो भवत
छुट्टियों का बड़ा भाग सोकर बीता, उपयोग उन्नति-कर्मों में था संभव।
आर्थिक प्रबंधन, स्वाध्याय-लेखन, लोकहित-कर्म, मित्र मेल-वार्ता पर्याय
परिवार संग समय बिताना भी अच्छा, साथ ही और भला सोचो प्रयोग।
कुछ महानरों की प्रतिदिन जीवन-शैली पढ़ो, क्या वैसा कुछ हो कर रहे
महावाक्य न जँचे जब तक स्वयं तत्त्वज्ञी न, लक्ष्य महान होना ही चाहिए।
प्रथम तो आत्म से ही संतुष्टि चाहिए, अन्य सही आकलन न सकते हैं कर
यही पीड़ा लेख-शब्दों में व्यक्त, पर पूर्ण अभिव्यक्ति कार्यों में अदर्शित।
अबतक एक सुकथा न भी रचित है, नरों ने बहु कृतियाँ जीवन में ही रची
जन पढ़ते-सरहाते, वाक्यों से सूक्ति निकालते, उद्धृत कर देते संदर्भ भी।
पाठक चाहे कम या ज्यादा विशेष भेद न, पर बनाओ तो पूर्व आधार एक
चाहे कुछ मौनव्रती से स्व से जूझो, सततता अपना प्राचीन मनीषियों सम।
निश्चित ही मनन-आवश्यकता, अभी जॉब में हूँ, ५ दिन कार्यालय में व्यस्त
जब ७ वर्ष बाद रिटायर हूँगा तो क्या घर पर ही, और कैसे बीतेगा समय।
कोई सामाजिक कर्मी तो न हूँ, मितभाषी सा बस, अतः उत्तम सोचो उपाय
रिक्तता एक महादंड सा, एक शैली अतएव बने लोग कर सकें स्वीकार।
कुछ शैली बना लो उम्दा व पक्की, जग में उससे एक पहचान सके बन
विख्यात होने की चाहत कोई बुरी न, यदि ईमानदारी से हो रहा प्रयत्न।
कुछ योग्य मनुज मित्र भी बने, अभिरुचि-विस्तार में सहायता सकें कर
लेखन में कई सहाय वाँछित, यावत तो अचिन्हित यथाशीघ्र ढूँढ़ो अतः।
विश्व में एकाकीपन से न ज्यादा अग्रसरण, सहारा लो, कई मिलेंगे दाता
यावत किसी से संवाद न, उन्हें कैसे ज्ञात तुमको क्या है आवश्यकता।
उन्हें भी पढ़ो - सराहो, तभी तव कार्यों पर टिपण्णी करने में मजा लेंगे
सत्य आधार पर बात हो, लोग जरूरत बोधेंगे व वर्धन-सहायक बनेंगे।
एक परियोजना तो बने, कुछ को शामिल करो, चाहे चुकाना भी पड़े दाम
त्रुटियाँ तो अनेक हैं, पर कौन सुधारे बड़ा प्रश्न, यहीं मित्रता आएगी काम।
निज में हम अतिकृश, साथ में लें तो शक्ति वर्धन, हो जाता उत्साह-वर्धन
एक निश्चित जीवन-काल ही सब हेतु, उपलब्ध में से निकाल लो महत्तम।
आज सीधा कंप्यूटर-लेखन प्रयास, आगे भी हो, प्रिंट ले बने डायरी प्रारूप
बाद में जो एडिट होगा देखा जाएगा, मूलरूप सहेजने का स्वतः आनंद।
कार्य-सहकर्मियों में सकारात्मक पहचान बनानी, प्रशिक्षण सा देना पड़ता
कुछ लोग बड़े रूखे-बेहूदे, क्रोध न कर धैर्य संग उनको काम में जोड़ना।
धन्यवाद।
पवन कुमार,
(२१ नवंबर, २०२१ समय २१:०१ बजे रात्रि )
(मेरी दिल्ली डायरी २३ नवंबर, २०१९ समय २०:४० सायं से)
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