तात-स्मरण
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आज है ६ दिसंबर, मैं सुस्त सा पर मस्तिष्क चाहता कुछ करूँ सार्थक
बेबसी सी होती जब जो चाहते वह न कर पाते, आदमी हो जाता मायूस।
आज पिता की ८ वीं बरसी, कई दिन से याद पर स्मृति में न कुछ लिख पाया
बाबा साहेब अंबेडकर का महापरिनिर्वाण दिवस भी, देश श्रद्धांजलि दे रहा।
सामान्य नर अधिक बड़ा न करते, पूर्वज स्मरण करना भी भले से न जानते
हर विषय गहन इच्छा-शक्ति व प्रशिक्षण माँगे, याद करना भी एक कला है।
आठ वर्ष कम भी न, हाँ इस बार माता-पिता की संयुक्त फोटो करवा ली फ्रेम
ड्राइंगरूम-दीवार पर टांगी, उनकी छवि हर दिन दिखे, याद रखें सारे जन।
पिता अकेले की फोटो भी प्रिंट करवा ली, उसे बाद में कभी फ्रेम करवा लेंगे
कई वर्षों से बड़ी इच्छा थी, पिछले सप्ताह कार्यान्वयन हुआ, कुछ सुकून है।
माँ-बाप तो सदा किसी के साथ न रहते, पर जाने बाद बचपन ही गया छूट
अज्ञात कि संवेदनशील-विवेकी भी हूँगा, कई त्रुटियाँ-न्यूनताऐं नित दर्शित।
कैसा जीवन स्व-शासन भी न, जानते हुए भी भटकता, रह-२ कर दुहराता
बहु दोष तो अज्ञात ही हैं, असीम संभावनामय बस जीवन व्यर्थ सा हो रहा।
पूर्ण तो कोई न बन शक्य, कुछ संभावनाऐं अग्रचरण की, प्रयास पर निर्भर
जितना संजीदा, परिणाम वैसा ही होगा, पर मनुज अत्यल्प प्रयोग रहा कर।
लोग एक मनोस्थिति-ग्रसित, क्षुद्र-बवालों में घुसे रहते, पुनः-२ त्रुटियाँ दुहराते
मैं भी वैसा ही हूँ, विशेष न कर पाया, अनेक आवश्यक कार्य लटकते रहते।
देह-मन में कुछ बल एकत्रित करो, अधिकाधिक सचेतनता की कोशिश हो
बूढ़े नहीं कि उठ न सको, जब तक स्वयं को न ललकारोगे, अल्प ही रहोगे।
प्रज्ञावान को आगे देखना चाहिए, जीवन का हर पल कीमती है, पूर्ण मूल्य दो
जब तक निखरोगे न, उन्नति अल्प ही, आओ जीवन में बड़ा करने की सोचें।
प्रश्न है कि जीवन कैसे पूर्णता ओर बढ़े, आनंद तभी सर्वस्व सिक्त हो अनुभूत
उत्तर अति कठिन, जीवन अल्प, बालपन से भी उभरे कि ढ़लने लगती उम्र।
मनुज समझ ही न पाता क्या करे, पर फिर भी ऊपर से गुजरता है सब कुछ
हाथ में अत्यल्प हैं, कारक दुर्धुर्ष, नर वाँछित शक्ति-विहीन व दर्शन संकीर्ण।
यह भी कि काफी उम्र इसी उधेड़बुन में निकल जाती, क्या-कैसे जाए किया
आदमी सोचता तो रहता, हल दिखता नहीं, समय हाथ से जाता है फिसलता।
व्यर्थ अभिमान-व्यसन मन में पाल हैं रखे, सुधरने की घटती जाती संभावना
एक मूढ़चित्त है, गुण-ग्राह्यता ह्रास, कैसे हित हो, कौन सहायता को आएगा।
मेरे तात ने प्रयास किया अपने ढंग से जग समझने का, पर पूर्ण तो न सके बन
सबके प्राण-संघर्ष, ठोकरें खाकर कुछ योग्य बनते, जी लिया जो आया समक्ष ।
पर अच्छे इंसान थे इसमें शंका नहीं, किसी की बुराई में कदापि सहभागी न रहें
सदा सब हेतु अच्छा ही सोचते-कहते, करते भी थे, उत्तम भाव एक श्रेष्ठ गुण है।
निकटस्थों के प्रति समर्पित, पिता जरूरतबंदों की सहायता करने में सदा आगे
मृदु अल्पभाषी, किसी से अनावश्यक पंगा न लेते, पर अपनी बात थे बोल देते।
प्रज्ञ थे दुनिया-प्रयोजन शायद ठीक जाँचते, न्यायसंगत थे, टिपण्णियाँ ठीक देते
और कैसे समझते यह और बात, पर आदमी स्वयं हेतु जिम्मेवार हो और वे थे।
उनके जीवन-दर्शन में जा पाना बड़ा मुश्किल, अब पास भी नहीं, पूछ ही सकूँ
एक बड़ा इतिहास हाथ से सरका, परिवार बड़ा था, पर अब संज्ञान में कुछ ही।
बड़े कष्टों में पले-बढ़े थे, छोटी नौकरी होते भी शुचिता से कुटुंब को समग्र पोसा
सबको योग्य बनाते हुए मन में बड़ा सुकून था, हाथ से कईओं का भला किया।
स्वाभाविक ही है कि कुछ गुण हममें प्रवेश हुए, पर कैसे संजोयेंगे हमपर निर्भर
जितनी भी शिक्षा प्राप्त पूर्ण प्रयोग, ज्ञान विस्तार किया, बाँटने का भी पूर्ण यत्न।
सभी वर्गों में उन हेतु आदर था, कैसे कोई समन्वयता से रह सकते उनसे सीखे
किसी से उनका अपयश न सुना, चाहे कष्ट में रहे हों, अल्प में भी प्रसन्न रहते।
अब कैसे याद करूँ सर्वस्व थे, जल में जल मिल गया, नीर अबूझ ही मैं कौन
कुछ ऐसा उपाय भी न कि अन्वेषण संभव, आत्माऐं कहाँ जाती सब हैं मौन।
वैसे पूरा जान भी न सकते, स्थान-संवाद-अनुभव दूरी पूर्णतया न देती जुड़ने
फिर सबके निजी जीवन, कुछ गूढ़-रहस्य भी, सबके साथ वे न बाँट सकते।
माँ-बाप का संग सर्वोत्तम प्रकृति-वरदान, दीर्घ साथ रहा पर छूट गया फिर
मानता कि वे १५ वर्ष और जीवित रह सकते थे, पर साँसें हैं ईश के अधीन।
नर बेबस हो जाता, अंग संग छोड़ने लगते, खुद को निढ़ाल सा हुआ देखता
फिर गमन-समय निकट, स्वयं को कुदरत के रहमो-करम पर छोड़ देता।
यह कैसी विडंबना है, आदमी एक समय आकर अपने दिन गिनने लगता
सोचता कि कभी भी अब बुलावा आ सकता है, जो जी लिया वह है अपना।
दुविधा कि अज्ञात कहाँ जाना, कुछ धार्मिक परंपरा-किवंदतियाँ मानी सत्य
नास्तिक भी स्व को प्रकृति समर्पण कर देता, मिट्टी से बने उसी में मिलन।
अमुक जीवन जैसा भी हो, मौत कटु-सत्य, सबको आएगी चाहे तैयार हों या न
कुछ महात्मा इस हेतु उद्यत रहते, मन को समझाते, जाना है तो क्या विस्मय।
आश्चर्य कि एक स्थायी विलुप्ति, रहस्योद्घाटन न, जग-व्याख्याऐं भ्रामक नितांत
विडंबना कि जीते जी न है वाँछित आदर, अति-माननीय हो जाते मरणोपरांत।
मानता कि स्व-अभिव्यक्ति आनी चाहिए, गमन बाद यदि कोई चाहे तो लें पढ़
नर कर्त्तव्य समाज हेतु उपयोगी बनना है, जीवन एक संभावना, तलाशो पूर्ण।
प्रयास पूर्ण हो, जीवन को अधिकाधिक जी लें, ताकि कोई मलाल न रह जाए
पर यह मन-स्थिति विरलें ही पाते, भले नर अपने संग अनेकों का भला चाहते।
पिता का आज हृदय से स्मरण है, उनकी आत्मा हममें बसी चाहे अनानुभूति
कस्तूरी-मृग सी स्थिति, सुगंध नाभि में बाहर मारे फिरते, मूर्ख सम है शैली।
संभल जाओ, कभी बैठकर वह अहसास अनुभव करो, जब थे उनके निकट
विरासत तो उन्हीं की बस संभाले बैठा हूँ, अनुभूत हो जाए यही प्रार्थना बस।
पवन कुमार,
६ दिसंबर' २०२१, सोमवार, समय ०६:२१ प्रातःकाल
(मेरी डायरी ६ दिसंबर' २०२०, रविवार, समय २३:५० बजे मध्य रात्रि से)
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