प्रखर-ऋतु से भी न अति प्रभावित, कुछ उपाय ढूँढ़ लेते, निरंतरता न भंग।
बाह्य-दृश्य अति-प्रिय, चहुँ ओर घने श्वेत कुहरे की चादर से नभ-भू आवरित
स्पष्ट दृष्टि तो कुछ दूर तक ही, तथापि प्रकृति-सौंदर्य मन किए जाता मुदित।
घोर सर्द, तन ढाँपन जरूरी रक्षार्थ, पर अनेकों का अल्प-साधनों में ही यापन
निर्धन-यतीम बेघरों का भीषण सर्द में आग जला या कुछ चीथड़ों में ही गुजर।
चलो कुछ मंथन कि दृश्यमान विश्व में संसाधन-अल्पता बाह्य या मात्र कृत्रिम
धनी की अलमारी-बेड गरम वस्त्रों से पूरित, कईयों का तो न आता भी क्रम।
स्वामिनी भूली कि वो स्वेटर या कोट-पेण्ट कहाँ रखा, चलो अब पहनो दूजा
पहनने वालों के भी नखरे उत्तम न जँचे, दीन बस बोरी लपेट गुजर करता।
खाने का अभाव देखा जाता, लोग कहते कि खाने हेतु ही तो नौकरी करते
अन्न-दाल-शक़्कर-घी के भंडार भरे, रसना-अतृप्ति से उदरपिशाच बनते।
कब्ज-डकार-सिरदर्द-स्थूलता, कृश-टाँगें, हृदयरोग, मधुमेह व्याधियाँ हैं घेरें
मनुज सोचे ऐसा क्यूँ, आदतें तो अनियंत्रित, दुःख ही भोगना पड़ेगा बाद में।
माना प्रकृति में क्षेत्र-विविधता चलते, कुछ स्थलों पर है अधिक संपन्नता दर्शित
कुछ रेगिस्तान, शीत-पहाड़ी क्षेत्र, पठार, सघन-वन क्षेत्रों में जनसंख्या अल्प।
एक न्यूनतम समन्वय तो चाहिए जिससे मानव-जीवन सुघड़ता से गुजर सके
माना निद्रा-तंद्रा आत्मिक-आर्थिक उन्नति-बाधक, तथापि सब प्राण-साधन चाहें।
धनिकों पास कई-२ निवास, खेत-फैक्टरी, ऑफिस-व्यवसायिक केंद्र नाम निज
खरबों की संपत्ति, कई जायदाद अज्ञात, कोई रहते खेती-बाड़ी से रहा गुजर कर।
किसी भी वस्तु की कोई कमी ही न पर फिर भी धन-लोलुपता से अंतः को तपन
निज व्यवहार तो कभी न जाँचा, अनेक निरीह हो जाते एक ही मोटे के पालनार्थ।
माना समय-चक्र नित, निर्धन भी कल संपन्न बन सकता, धनी भी हो जाता कंगाल
तथापि वर्तमान दमन-चक्र पर हो कुछ अंकुश, सबकी मूलभूत जरूरतें हों पूर्ण।
दुर्गति निर्मूलनार्थ जीव को हाथ-पैर मारने पड़ते, पर खड़े होने की सामर्थ्य भी हो
माँ को बच्चा पाल-पोस बड़ा करना होता, सामाजिक काम का बनता योग्य हो।
यह तो न कि सब आबादी एक सघन क्षेत्र ही आवासित हो, हर स्थल की विशिष्टता
लोगों ने श्रम-पसीने से भीषण वन काट खेत बनाए, दुर्गम पर्वत चीरकर पथ बना।
नदी से नहर खींचकर मरुभूमि में हर घर जल पहुँचाया, दूर स्थल विद्युत् पहुँची
समुद्री खारा जल अलवणीकृत होकर पेय-योग्य बना, असंख्य नरों की तृषा बुझी।
पूर्व में संसाधन अत्यल्प थे, अभी निकट कृषि से प्रचुर मात्रा में पैदा अन्न-कपास
अनेक उदर क्षुधा-शमित हुए, जनसंख्या-वृद्धि तथापि लोग घोर भूख से रक्षा।
यातायात-साधनों से वस्तु, खाद्य-सामग्री अन्य स्थल पहुँची, दाम दो भूखे न मरोगे
इसके बदले वह ले, मेरे यहाँ यह वस्तु अधिक तेरे वह, दोनों सुखी हो सकते।
रुई से वस्त्र बहुतायत-निर्मित तो क्रय-विक्रय भी जरूरी, अनेक तन ढ़के जाने लगे
पहले कम के पैर में जूते थे कुछ कष्टदायी भी, उद्योग-उत्पाद से हर पाँव पहुँचे।
संख्या कम तथापि घोर गरीबी थी, औद्योगिकरण से सबकी जरूरत लगी होने पूर्ण
अब आबादी निस्संदेह अधिक पर पोषण हेतु साधन भी हैं, किञ्चित परस्पर पूरक।
नर ने बुद्धि से ऊर्जा-उपलब्धता के अर्थ ही बदले, प्रचलित साधनों के कई विकल्प आए
चूल्हों में खाना बनाने हेतु ईंधन-गोसा-काष्ट की जगह रसोई-गैस, बिजली-स्टोव आ गए।
पहले प्रकाश हेतु तेल के दिए की जरूरत थी, अब विद्युत्-कनेक्शन से दिवस-अनुभव
रात्रि में नर को इतनी स्वतंत्रता मिली कि बहुत काम होना संभव, प्रगति हुई है निस्संदेह।
पहले क्षुद्र रोग से भी मृत्यु-ग्रस्त होते थे अब उपचार उपलब्ध, कम ही मौत असामयिक
खाना-पीना, देखरेख बढ़ी, अगर कुछ पैसा हो तो अनेक सुख-सुविधाऐं सकता खरीद।
माना मनुज ने अनेक अन्य जीवों को हासिए पर ला दिया, पर निज जीवन तो सुधरा ही
काल संग पर्यावरण विद-प्रेमी भी हो गया, निज संग सब सहेजकर रखना चाहता भी।
पर प्रगति की इस कसमकस में या कुछ ने श्रम-युक्ति से अति संपदा इकट्ठी कर ली
माना देर-सवेर सब बँटेगा ही पर यदि आज कुछ के कष्ट मिट सकें तो भला होगा ही।
हम भविष्य के लिए संग्रह करते हैं कुछ गलत भी नहीं, पर अति संग्रह पर हो अंकुश
निज प्रयास से अधिकाधिक जीव सुखी होऐं उत्तम है, तुमपर भी अनुकंपाऐं हैं अनेक।
समृद्धि-वर्धन हेतु धन का प्रयोग आवश्यक, बाजार में स्पर्धा हो तो सस्ती होंगी वस्तुऐं
आशय है हरेक का जीवन पूर्णता लब्ध हो, प्रत्येक व्यवस्था में कुछ लाभ कमा सके।
आशय है हरेक का जीवन पूर्णता लब्ध हो, प्रत्येक व्यवस्था में कुछ लाभ कमा सके।
माना मनुज-प्रकृति संग्रह की है, पर संसार-चक्र में सर्वस्व करपाश तो न उसके बस
कितना ही धन चोरी हो जाता, छीना जाता, ठगा जाता, मृत्यु बाद हो जाता निष्क्रिय।
हम सब मात्र लोभी ही नहीं हैं, कुछ करुणा-स्नेह-कल्याण भावना से द्रवित होते भी
तभी परस्पर वस्तुऐं बाँटते बिना किसी स्वार्थ के, प्राणी-सहायता करनी चाहिए ही।
यही भाव तो हमें देवत्व समीप ले जाता, एकरूप हो विश्व के कुछ मृदु-दायित्व लेते
जितना संभव जग-परिवेश सँवार ले, लोग जब मृदु चरित्र देखेंगे तो सहिष्णु भी होंगे।
पवन कुमार,
१५ मार्च, २०२० रविवार, समय ६:२६ बजे सायं
१५ मार्च, २०२० रविवार, समय ६:२६ बजे सायं
(मेरी डायरी दि० २७ दिसंबर, २०१९ समय ८:३४ प्रातः से)
वर्तमान परिस्थितियों का बेबाक चित्रण।
ReplyDeleteसाथ ही उन परिस्थितियों से उबरने का मार्गदर्शन।
अत्यंत व्यवहारिक।
🙏
वर्तमान परिस्थितियों का बेबाक चित्रण ।
ReplyDeleteपरिस्थितियों से उबरने का मार्गदर्शन भी।
एक ऐसा अभिव्यक्ति जिसे पढा, समझा और अमल किया जाए।
वर्तमान परिस्थितियों का बेबाक चित्रण ।
ReplyDeleteपरिस्थितियों से उबरने का मार्गदर्शन भी।
एक ऐसा अभिव्यक्ति जिसे पढा, समझा और अमल किया जाए।
Thanks Mr. Singh ji. You are my old friend, your views are great & inspiring for me. Regards.
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