कैसे नर-उपजित कलाकार-कवि रूप में, प्रायः तो सामान्य ही
देव-दानव वही, एक स्वीकार दूजे से भीत हो कोशिश दूरी की।
यह क्या है जो अंतः पिंजर-पाशित, छटपटाता मुक्ति हेतु सतत
मुक्ति स्व-घोषित सीमाऐं लाँघन से, कितनी दूर तक दृष्टि संभव?
दूरियों से डरे, किनारे खड़े रहें, लोग आगे बढ़ते गए व दूर-गमन
आत्मसात की प्रबल आकांक्षा, मन को प्राप्ति हेतु करना तत्पर।
एक महा-स्वोन्नति लक्ष्य, भौतिक-आध्यत्मिक एवं निज-व्याख्या
उदधि-पार द्वीप-वृक्षों का दर्शन, पतवार चढ़ चक्कर लगा आना।
वहाँ स्थित वे प्रतीक्षा कर रहें, उठो तो प्रकृति-संसाधन दर्शनार्थ
विपुल-साम्राज्य तव हेतु ही, घुमक्कड़ी-बेड़ा तैयार कर लो बस।
कुलबुलाहट-क्षोभित, क्या व्यथा-कारण सुलगते अग्नि बनने हेतु
अति ऊष्मा-ईंधन आवश्यकता, ज्वाला बन भी क्या लक्ष्य होगा?
क्या महज स्व-हित ही चाहते, या पूर्ण-विश्व को भी दिखाना दिप्त
त्रस्त-तमोमयी आत्मा बस जी रहीं, व्यर्थ प्रपंच फँस प्राण-व्यर्थ।
पर प्रथम कर्त्तव्य तो स्व-त्राण, व्यवधानों से न हुआ व्यक्त निर्मल
जब दीप्त-कक्ष के कपाट बंद हों , कौन कुञ्जी दिलाएगी प्रवेश?
अति-सूक्ष्म द्रष्टा तो न हूँ माना, पर प्रयास कि हो एक कवि-जन्म
बाल्मीकि तो क्रोञ्च-विरह अनुभूति से ही, निर्मल श्लोक उद्गीरत।
कैसे व्यास सम नर, कहाँ छुपा अपरिमित ज्ञान व सामर्थ्य-कथन
किस परिवेश-सान्निध्य से गणेश-गुहा प्रवेश, बैठ लिखे जाते ग्रंथ?
जो सहायक पूर्णतार्थ, ललकारते भी, मूलतः निज ही अभिव्यक्ति
बाह्य-निनाद परे एकांत कारक-सामंजस्य, कामायनी सम कृति।
विशेष प्रेरणा संग विटप प्रति आवश्यक, अंकुर-निर्माण तभी संभव
प्रक्रिया उपनयनित शिक्षार्थ, कालोपरांत प्रबुद्ध भाव भी हो उत्पन्न।
कुछ नित चयन-प्रक्रिया त्याज्य-त्याग, ग्रहणीयों के लब्धार्थ प्रयास
गुण-संकलित तो अभूतपूर्व ऊर्जा उदय, अनेक संग हित -सक्षम।
जीवन प्राप्त भाग्य से ही, कुछ पदार्थ संग्रह करो मननार्थ चित्त-दान
पर कितना प्रयुक्त सत्य-सार्थक, या व्यर्थ-अनर्गल ही गल्प-प्रलाप।
विद्वद-उक्ति अथाह संभावना पुण्य-कृत्यों हेतु व सर्व-लोक कल्याण
प्रवीणता इस अदने शख्स में भी, पर आवश्यक है अन्वेषण-उपाय।
संसाधन यदि संयोजित, निपुण रचनात्मकता स्वतः ही अग्रचरणित
ज्ञानी तो नित-अतंद्रित, विदित जीवन ही व्यापकता हेतु समर्पित।
निर्मल-चित्त, विश्व-व्यापी, सबके प्रति न्याय-प्रेम व भाव प्रगति-पथ
समय व्यर्थ एक मरण सी स्थिति, स्व को ललकारना लगता उत्तम।
एक कवि आत्म-क्रांत दर्शन में समर्थ, सर्व-सौंदर्य मुखरण-त्वरित
निष्पक्ष विश्व-दर्शन में सक्षम, अत्याचारों-कष्टों प्रति दयालु-नरम।
एक उज्ज्वल सदा मन-देह में, विवेकी नीर-क्षीर भेदन में है सक्षम
सरस्वती वाणी-निवासित, न्यून सम न नकार, अति अंतः-समृद्ध।
इस चित्त-बुद्धि में सर्वस्व समा सकता, वृहद-वक्ष किधर से उत्पन्न
अनेक विश्व-रहस्य विदित, गुह्य-जटिल तथ्य सुलभ हो होते समक्ष।
वह है श्रेष्ठ नियम-धर्ता, पालन-कर्ता, करुणा-दृष्टि में सब एक सम
पर बाह्य विश्व में कई भाट भी, जिनकी कवि-कृति मात्र निर्वाहार्थ।
रचनात्मकता है आयामों में मनन-सामर्थ्य, निज ही से कुछ रचना
जब कृति विश्व-धरोहर तो कह सकोगे, मैं भी कुछ भागी-विपुलता।
निज तो न कुछ सब प्रकृति-पूंजी, मात्र उपयोग करना सीख लिया
तन-मन-धन सब उसी का उपहार, विजयी-गर्वशून्यता ही थाती।
वह कवि तो अति-महान चरित्र घड़ लेता, अनेक गुणों का समावेश
एक कथानक बुनने में समर्थ, कुछ प्रेरणा-मनन सदैव रहती साथ।
निज-विस्मृति समर्थ चाहे कुछ काल ही, मात्र प्रयोजनों में ही लुप्त
विद्या-निवासिनी संग, हर शब्द परीक्षित, वाक्यांशों पर और बल।
मन-कवि कहाँ बसता, न निकसित, इस कलम का ही सत्य-संघर्ष
उत्तम रचनार्थ तो सदा प्रयासी, पर कब संभव विधि को ही विदित?
अवश्यमेव संकीर्णता-मुक्ति, क्रांतदर्शी मन करे शुरू बहुल दर्शन
निर्मल भाव अंततः होगा पर तावत प्रतीक्षा, जैसा संभव रहो चलित।
कोई साहित्य-प्रशिक्षण तो न, स्व से ही कुछ ली शब्द-संकलन शिक्षा
निस्संदेह कालि-व्यास-सूर-कबीर-शैक्सपीयर-प्रसाद सी तो न गूढ़ता।
पर किञ्चित यह कुछ जीव उदितमान, अल्पाधिक निर्मल देगा ही रच
सतत-अभ्यास इसकी भी सीढ़ी, कला-पारंगतता असीम धैर्य का नाम।
माना आम मनुज न गूढ़ साहित्य-रसिक, पर दूरात तो स्तुति कर देता
पर सत्य-कवि न यशाकांक्षी, वह स्व-विकार ही मर्दन करना चाहता।
दूरगामी दृष्टि से नक्षत्रों के पार चरम ब्रह्माण्ड-छोर तक गंतुम-समर्थ
एक अति-विशालता से सतत परिचय, प्रत्येक अंश से लगाव महद।
एक आह सी मुख से निकलती, उत्तम न ज्ञात कैसे हो दुर्गम पथ पार
संपूर्ण शक्ति इसी पर, सदा व्यक्त रहें निर्मल-सर्वकल्याणक उद्गार।
कुछ परिवेश-स्वच्छता जिम्मा भी लेता, हर क्षण का प्रयोग समुचित
सर्व दंभ निर्मूलित, साहसी भी कि सत्य-कथन में न तनिक झिझक।
जिस दिवस हो यह अंतर्भय अंत, सर्व-मानवता हेतु उपजेगा करुण
एक कालखंड वासी को अमरत्व, पर न अतिश्योक्ति-आत्ममुग्ध।
ऐसा साहित्य विश्व निजता-गर्व कर सके, क्या इस लेखनी से संभव
संवेदनशील, समय-परीक्षा से परे, गागर में सागर समाना साहस।
कुछ निर्मल-हृदय योग हो इस वृहद अभियान में, कुछ हो सहायता
प्रशंसा तो आ ही जाती, पर कोई उर से कृति स्वीकारे तो आए मज़ा।
कुछ विवेचना हो, दोष भी निकाले जाऐं, ताकि व्यक्तित्व हो परिपक्व
एक कवि-दार्शनिक भाव मन में आए, तो जग-आगमन हो सार्थक।
अद्य-प्रयास स्वयं से परिचित होना, जिससे कुछ कवित्व हो प्रदर्शित
मम लेखन यदि विस्तृत बन सके, मृदुल-भाव रचना हो पाए रचित।
पवन कुमार,
१६ अप्रैल, २०२० वीरवार, समय ६:०१ बजे सुप्रभात
(मेरी महेंद्रगढ़ डायरी दि० १७ मई, २०१९, शुक्रवार, समय ७:५५ बजे प्रातः से)
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