स्व-उत्थान लब्ध किस श्रेणी तक, नर मन का चरम विकास
क्या अनुपम मार्ग अनुभवों का, स्वतः स्फूर्त परम-उल्लास।
भरण-पोषणार्थ तन नित्य-दिवस, माँगता आवश्यक कार्य
ऊर्जा-बल प्राप्त अवयवों से, जग-कार्य संपादन में सहयोग।
उससे मन-रक्त संचारित रहता, उचित कार्यान्वयन परिवेश
पर सत्य आहार चिंतन विरल का, सहायक उन्नयन प्रवेश।
कौन दिशा विस्तृण-संभावना, या सर्व-दिशा एक सौर सा वृत्त
मेरा विकिरण कितना प्रभावी, करूँ श्लाघा सामर्थ्यवान तक।
क्या यह मन संपूर्ण देख पाता, अपूर्वाग्रह सब मनुज-दृष्टिकोण
निज-संतुष्टि या सर्व प्रकृति को भी, कर्तुम सक्षम आत्म-स्रोत।
कैसे बढ़े यह लघु-मन सीमा, क्या आवश्यक यज्ञानुष्ठान हव्य
महर्षियों सा अनुपम-चिंतन, अपने विधान में ब्रह्मांड समस्त।
स्व-धर्म-ध्वजा बस अग्र-प्रेषक हो सके, हों सब वितण्डाऐं पार
स्व-धर्म-ध्वजा बस अग्र-प्रेषक हो सके, हों सब वितण्डाऐं पार
अनेक रत्न बिखरें इस मार्ग, बनाओ सुंदर-समृद्ध मुक्ता हार।
कैसे स्थिर वर्तमान में एक ही क्षेत्र, वृद्धि अदर्शित मृदुता ओर
हर शब्द पर है कलम रुध्द, कुछ चिंतन हो भला करे विभोर।
कैसे एक ज्ञान-सीढ़ी निर्माण, शीघ्र निश्चित हो वह महद लक्ष्य
बंद हैं गलियाँ अंधकार चहुँ ओर फैला, कैसे निकलूँ सूझे न।
किस पंथ-मनस्वी से मेल खाता, कैसे उनका आत्म-पाश निर्गम
पथ अज्ञात गंतव्य अनिश्चित, पर छटपटाहट तो है अन्तःस्थल।
कूप-पतित कुछ भी न सूझे, शून्यावस्था में यूँ गोते लगाऊँ बस
अस्तित्व नितांत ही विस्मृत, किञ्चित ओझा सा स्व-मंत्र ही मस्त।
क्या संदेश दे रहा स्वयं को, या निज कूपान्धता का ही उक्ति
पर जैसी स्थिति तथैव कथित, जो न उसकी क्या अतिश्योक्ति।
प्रजाजन लुब्ध-प्रवृत्ति में, कुछ महापुरुषों का बस महिमा-मंडन
पर क्या नर स्व की चरमावस्था हेतु है प्रयासरत व करते प्रयत्न।
पर क्या मम प्रयास इन शून्य-क्षणों में, कलम-रेखाओं के अलावा
क्या परिणति ऐसे प्रयोग की, न किसी बाह्य-दीप्ति से बहलावा।
उच्च-श्रेणी मन एक भाव ले चलते, कुछ सार तो लेते ही निकाल
पर एक स्थल कोल्हू-बैल सा घूर्णन, देह-श्रम के अलावा न कुछ।
इस शून्यावस्था के क्या अर्थ, कौन कोंपलें फूटेंगी विटप से इस
इसे धूप-जल-मृदा अनुकूलन प्राप्त, शनै खिलेंगे ही किसलय।
किसी भी स्थिति में आनंदमयी होना ही तो समरूपता सिखाता
रोना-बिलखना त्याग मुनि सा चिंतनशील, खुलेंगे मार्ग स्वतः ही।
कुछ आश्रम मौन-शून्यावस्था सिखलाते, विपश्यना जैसी विधि
मनुज भूल सब विवादों को, एक शांत भाव में निवासार्थ युक्ति।
सब चित्त-विचार तरंगें स्वतः शमित, तब फूटे है अनुपम ज्योति
विभ्रम स्थिति से एकाग्रता ही भंग, सारी चेष्टा एक मूर्त हेतु ही।
आत्म को करो व्यर्थ भार से मुक्त, ऊर्जा अपव्यय से उलझे मन
नित प्रयास हो मुक्ति-चिंतन का, व्यर्थ त्याग कराती प्रवेश परम।
दुर्दिन का सुदिन में परिवर्तन, विमल चेष्टा-आकांक्षा से ही संभव
आयोजन हो परम विकासार्थ, भ्रामक ग्रंथि खुलते ही मुक्ताभास।
वे छुपे शब्द आते क्यों न समक्ष और कराते अपनी सदुपस्थिति
ये ही तो हैं असली योद्धा, जीवन सुचारु रूप से चलाने हेतु भी।
क्यों तब तव आदेश पालन न हो रहा व खुल न रही दिव्य-दृष्टि
समाधान न प्रकट स्वतः ही, मन डोलता है बस इधर-उधर ही।
एक ताल में महावृक्ष स्वप्नित, जल-तरंगें शाखा-पल्लव कंपित
मेरा मन भी अतएव विव्हलित, कुछ भी प्रतिक्रिया न निर्मित।
नितांत मैं संज्ञाशून्य बन रहा, निस्पंद हो निहारता सब कुछ
अब नेत्र भी निमीलित हों रहें, कैसे निकलूँ उहोपोह स्थिति से।
कैसा अधकचरा यह ज्ञान, अभिमन्यु सम प्रवेश तो चक्रव्यूह
निर्गम दुष्कर, इस दशा से निकले तो अग्रिम विचार हो कुछ।
या इसे ऐसे ही रहने दो मीरा बावरी सम, कृष्ण-रंग में मस्त
क्यों जरूरी निकास, जग मदहोशी हेतु करता अनेक यत्न।
जब बिन बाह्य-सहाय ही, प्राप्त हो रही परम-आनंदानुभूति
चिंता न और संबल की, सर्व आवश्यकताऐं पूर्ण हो रहीं।
जगज्जञ्जाल से छूट स्वानंद में, सर्वत्र हो रही निर्मल-वर्षा
विस्तृत आनंद का बस स्पंदन, सर्वोच्च समाधि अवस्था।
जीवन-कला उत्थित स्वयमेव, समृद्धि से स्वतः ही मिलन
लुप्त रहूँ अनुपम अनुभूति में, विश्व पूर्व भी था मेरे बिन।
दीन-हीन तो असंभव, सीधा संपर्क शांत-सौम्यता से निज
वपु-क्षीणताऐं स्वतः निर्मूलित, तन-मन हैं दोनों स्वस्थ।
पर क्या इससे कुछ ज्ञान होगा, अग्रिम चरण भी इससे
कब आत्मसात, किस काल तक रह सकता सम्यक में।
विमुक्ति-अनुभव ईश्वर-अनुकंपा, न कोई उपलब्धि अल्प
गौरान्वित हूँ इस प्रसाद से, बिना गर्वोन्माद के किन्तु नम्र।
सब प्राणीभूत स्पंदन मुझमें, सबसे प्रेम कोई विषाक्ति न
मेरा अंश है सर्वत्र छितरित, हूँ पुलकित विकास से इस।
स्वप्न सी स्थिति, बस लेखनी ही कराती चेतना उपस्थिति
अदीप्त हो रहे सर्व मन-द्वार, कहते कुछ देर रहो यूँ ही।
प्राण मिला बड़-भाग से, हारना मत, गति से मिले सुयश
बाधा स्वतः हटेंगी, कुटिल सरल होंगे व सुजन -संगम।
विकास-यात्रा अति दीर्घ, कुछ अतएव पड़ाव विश्राम-क्षण
आवश्यक न नित दौड़-धूप में रहो, शांत हो करो निर्वहन।
स्व-उत्थान उच्च-मनावस्था द्योतक, यदि प्राप्त तुम सुभागी
सोपान मिलेंगे आरोहणार्थ, लक्ष्य अनुपम, रहो चेष्टाकांक्षी।
एक और निर्मल अनुभव, धन्यवादी जो तू कराता सम्पर्क
बस अभी यूँ डूबे रहने दो, यथासंभव करूँगा रसास्वादन।
पवन कुमार,
२६ अप्रैल, २०२० समय ११:४७ बजे म० रा०
(मेरी डायरी १९ मार्च, २०१६ शनिवार, समय ११:४० बजे पूर्वाह्न से )
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