नई डायरी
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फिर एक नई डायरी हाथ आई, भाग्य भी नए पड़ाव की तैयारी में पुनः
कह सकते इस संग नए दिन की शुरुआत हो रही, सदैव प्रतीक्षा शुभ।
इस डायरी में कैलेंडर नहीं, खाली पृष्ठ, ऊपर हासिए में मात्र तिथि---
अतः स्वयमेव समय की मुहर लगाओ, जीवन कोरा पुरुषार्थ से भरो।
खाली डायरी किसी ने दी, मन-कलम से कुछ उकेरो, चित्रकारी करो
प्रतिभा यहाँ संयोजित करो, अनेक ब्रह्मांड- कल्पनाऐं साकार करो।
डायरियाँ हर साल मिल जाती, कुछ लिखी जाती, कुछ खाली रह जाती
पर जो भरती बड़ी सार्थक हो जाती, जब संपूर्ण तो कई रंग लिए होती।
खाली में पृष्ठ एक जैसे, लेकिन भरी कल्पनाओं-विचारों का समायोजन
जीवन सम इसमें भी कुछ नव-चलित, मिलजुल एक व्यक्तित्व प्रस्तुत।
नई डायरी एक आदि, उत्साह भी सखी कुछ कृपा-करुणा संग रहेगी
मैं भी चिंतन बिना नगण्य, यह समेकित करती बिखरों को है जोड़ती।
अगणित अंशों में मैं बँटा, पर नित दिन स्व-संग बैठ कुछ करता बाहर
स्वयं भी अज्ञात पर यह तहें खोलती, सब अच्छे बुरे का रखती ध्यान।
टटोलने का कर्म कलम ने लिया, मैं धर्ता, ऊल-जुलूल बिखरा सा सामान
तरतीब से रखना यही सिखाएगी, समक्ष कर रही अंतः-प्रतिभा निकाल।
मैं लुँज-पुँज घटनाक्रम विचार-संग्रह, जितना सीधा हो जाए, पूँजी बनेगी
कहते अंतः में अमूल्य खजाना छुपा, डायरियाँ समृद्धि में वृद्धि कर रहीं।
स्वयं-अव्यवस्थित यही आकर संभालती, दिशा-निर्देशन की यत्न करती
निद्रा से जगाती, झझकोरती-समझाती, सकारात्मकता की प्रेरणा देती।
सशक्त बनाती, देती बाधाओं से लोहा लेने की ताकत, समझने की चेष्टा
नए स्थल-विषयों से जोड़ती, बाह्य ज्ञान आकर इसमें कुछ स्थान पा लेता।
अनेक वृतांत-मनन, सुख-दुःख भाव, प्रशंसा-स्तुति, यश-अपयश दृष्टांत सब
बाह्य भ्रमण-वृतांत, चरित्र-परिचय, स्थल-विशेषता टंकण की करे कोशिश।
कुछ तो फिर साहित्य भी बन जाता, पढ़ा-संपादित किया, मुद्रित कर दिया
कई व्यक्तित्व-आयाम प्रत्यक्ष होते, कुछ भी न सहज, सब नग्न होने लगता।
बहुत कुछ नित्य माँगती, सब कुछ निचौड़ आत्म-समाहित कर लेना चाहती
और बात कि न पता बहुत अच्छा होता या न, पर चेष्टा सर्वोत्तम की रहती।
सारा बल लगा मनन-शक्ति परखना चाहती, किञ्चित वाँछित तक न पहुँच
मन कहता अभी अति अधूरे और प्रयास करो, सर्वोत्तम अभी है बहुत दूर।
यह क्या खेल मेरा और इस लेखन का, यह पीछे दौड़ रही, रही झझकोर
मैं कुछ खिंचा एक शिष्य सम, जो शिक्षक के डर से करता उत्तम प्रयत्न।
जीवन तो ऐसा ही, सदा कोई आलोचना-प्रतिवाद अंतः आंदोलित करता
पर यहाँ सब लेखन में सिमटता, कोई बहस न, स्वयं से युद्ध आत्म का।
यह एक सख़्त मालकिन जैसी, जो कर्मकारों की निगरानी करती सदा
इससे कुछ न छुपा, पर परिहार्य न लिखता, शायद हूँ कुछ डरता सा।
किञ्चित एक शैली भी बना ली, अनावश्यक पचड़ों में न पड़ना चाहता
जानता कि सरकारी तंत्र में क्या शासन-सम्मत व्यवहार की है अपेक्षा।
मैं कैसा जिसे इस डायरी पर ही विश्वास, वही चरम भाग्योदय करेगी
एक भरी तो दूजी हाथ में, जब सारे लेखन समेकित बड़ी पोथी बनेगी।
मैं उदारवादी-बुद्धिजीवी सा, गरिमा संग चाहता उचित उल्लेख करना
माना कि सुनने-पढ़ने वाले कम हैं , फिर भी प्रयास तो चाहिए रहना।
नई डायरी हाथ में आई कल ही पुरानी भरी, सब इतिहास जाती बन
समय संग पुरानी, सख़्त कवर पृष्ठ ढ़ीले होते, कहीं-२ पीले पड़ते पृष्ठ।
जो आज नया वह कल पुराना, दुनिया का दस्तूर सबके साथ हो रहा
मैं भी नव-प्राचीन चक्र का प्रतिभागी, खाली पृष्ठ भरते पुराना हो रहा।
अतएव शनै सब भरेगा, निश्चित पृष्ठ, कलम की मसी लगती समाप्त होने
हाँ जब ये डायरियाँ भर जाती तो नई हाथ में आ जाती, फिर सफ़े काले।
जीवन में इनको पड़ाव कह सकते, निश्चित ही पुराने से कुछ बदल जाता
फिर मशगूल, कुछ दिवस-वर्ष बाद परिवर्तन, और ठौर ढूँढ़ना है पड़ता।
इतना अवश्य, यह परिपक्व बना रही, आम्र-बौर कच्ची आमी बन पकेगा
फिर किसी का मुख-ग्रास बनेगी, अगर स्वादु है तो मिलेगी कुछ प्रशंसा।
छिलके-गुठलियाँ फेंके जाते, गूदा खाया जाता, ताज़ा तो स्वास्थ्यप्रद-मीठा
कई दिन का बासी तो किसी काम का न, सड़ांद उठती, फेंकना पड़ता।
अर्थात उपयोगिता जब तक ताजे-सुस्वादु, उत्तम रंग के व अंतः से स्वस्थ
जन पसंद करेंगे, छाँटेंगे, महंगे बिकोगे, अच्छे हाथ जाकर जाओगे भक्षित।
आम की जीवन-यात्रा किसी का मुख-ग्रास, हाँ गुठली रोप दो तो सकती उग
अतः संभावना उदय तो ग्रास बाद भी पर कितना सफल, कुछ न सुनिश्चित।
अब घर की बात करूँ हमारी पालतू लूना बचपन से ही, अब वय छह वर्ष की
अक्टूबर' २०१४ में दो महीने की थी, तो बिटिया किसी पशु-प्रेमी से ले आई थी।
अब सदस्य सम, खान-पान-देखभाल, आराम -सोती, हाव-भाव से करती प्रसन्न
पर क्या संतति पैदा करेगी, बाहर से न संपर्क, कौन देखभाल करेगा डरते हम।
अतः चाहे सामर्थ्य हो पर परिस्थितियाँ न मिलती, अनेक पालतू पशु बाँझ ही रहते
कितने ही बीज-गुठलियाँ मर जाती, अनेक पुष्प-फल नीचे गिर ख़राब हो जाते।
मनुष्य भी ऐसे एक प्रकृति-अंश है, बहु-संभावनाऐं हैं पर प्रयोग हो रहीं कितनी
जीवन प्रायः अविकसित रह जाता, अनेकों को तो इसका न होता अहसास भी।
यह निज-अंतरंगता का अहसास कराती, जीवित हूँ इस पृष्ठ पर मुखरित हो रहा
सब संभावनाऐं टटोल रहा, हाँ किञ्चित आभास कि मेरी भी परिणति होगी क्या।
किसी से भी न पृथक, सब जैसे ही मेरा भी हश्र होगा, तथापि आत्मज्ञान इच्छुक
निज बहु-आयामों से परिचय हो, ज्ञान की सीमा पर चेष्टा मैं करना चाहता पूर्ण।
मस्तिष्क पृष्ठ-एकाग्र हो संपूर्ण में समाना चाहता, तथापि कह रहा और हो अच्छा
अबतक की यात्रा का न कोई अफ़सोस, बच्चा उँगली पकड़ ही चलना सीखता।
पर वर्तमान व अग्रिम और सुमधुर-रुचिकर-सारगर्भित हो, कामना सकता कर
कई कार्य शेष, निज क्लोन पैदा कर सकूँ, दिशाओं में सहनशीलता परिचालन।
ऐ नई डायरी, तूने आज पृष्ठों में यात्रा शुरू कराई, धन्यवादी हूँ हेतु अनुकंपा
पता है अग्रिम भौतिक यात्रा हेतु गतिमान, शीघ्र नव शुभ समाचार मिलेगा।
यहाँ से वातावरण अवश्य बदलेगा, नव-परिस्थितियों अनुकूल ढ़ालना होगा
आशा तेरे संग मृदुल उत्पन्न, सुराहें बाँट जोह रहेगी, संगिनी रहेगी तू सदा।
पवन कुमार,
१५ नवंबर, २०२० रविवासर, समय १०:२५ बजे प्रातः
(मेरी महेंद्रगढ़ डायरी २६ अगस्त, २०२० समय ७:४२ प्रातः से )
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