मूल जीव-गठन
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क्या आजीवन बदलते रहते, या यूँ ही किंचित भौतिक परिवर्तन सा
देह वर्धित आकार शिथिलित, यौवन-बल, दीर्घकाल सुदृढ़ दिखते।
बाह्य-स्थलों पर अनेक नवीन-संपर्क, स्व-स्थिति अनुसार व्यवहार भी
पर अंतर्निहित मूलतत्व बाहर ही जाता, निज को करता प्रदर्शित
भी।
कई बार मौन का अभिनय भी, कहते कि रख लिया मन मसोसकर
जब समय तो कुंठा बाहर कर दी, एक बोली से ही अंतः-अनावरण।
स्थिति अनुसार गंभीर-मुद्रा भी, अवसर पर तो नंगेपन में झिझक न भी
यदि पता कि समक्ष वाला बली, तो प्रतिक्रिया कुछ सोच-समझकर ही।
हम वचन पूर्व अन्य को जाँच रहे होते, कुछ अति पुण्य-अपुण्य अंतर्लुप्त
जहाँ ज्ञात कि प्रथम पुरुष अल्प-बल, तो हेंकड़ी,
समक्ष रखते बलपूर्वक।
जब हम अपने मित्र-बंधुओं से मिलते, कमोबेश पुरा-रूप में आगमन
तमाम जग से वही शिकायतें,
पुरानी बातें स्मरण, सम विचार पुनर्पाठ।
निज बुद्धि अनुसार विषयों पर चिंतन, शायद अन्य भी रहा कुछ समझ
सौहार्द-भाव से ही प्रतिक्रिया या उचितीकरण, बुरा न मानते लेते सह।
हमारा बहु गठन जन्म के कुछ प्रथम वर्षों में ही, मन अनेक वहम पालता
अति गहराई में पैठ, किञ्चित
पश्चात में संघनित या सुधरते भी यदा-कदा।
तथापि एक स्थायी प्रभाव व्यक्तित्वों पर, मनुज न बदल पाता चाहकर भी
कुछों प्रति अति स्नेह या सहज भाव, कुछ नापसंद, एक स्थायी सी दूरी।
आत्म वस्तुतः कुछ विचार-पड़ाव ही, संघनित हो एक व्यक्तित्व-गठन
किञ्चित स्वयं भी न ज्ञात ऐसे हैं क्यूँ, प्रयास के
बावजूद भी सुधरते न।
पुनर्पुनः उसी पुरा-शैली में आगमन, चाहे अन्य को कितनी भी आपत्ति
या शक्ति देख बदलने का अभिनय भी, फिर मौके पर वही मन-ग्रंथि।
स्वयं की ५३ वर्ष उम्र इतनी कम भी न, कि न हो सके निज-परीक्षण
अल्पाधिक मन में शायद १५-१६ वर्ष अवस्था जैसे ही पाले हूँ वहम।
हाँ बोल-विचार में काफी परिवर्तन, पर प्रतिपल दुहराता
सा प्रतीत
माना उस परिवेश में न गमन, महद पूर्वेव व अब भी द्रुत-परिवर्तित।
निज में मैं नितांत एकाकी, अपने संग ही बिताना होता एक-२ पल
कब तलक दूजे को व्यवधान करूँ, उनके काम-जिंदगी है निज।
सदा मन कुछ असार्थक सोचता, संभवतया
मनन-कला न जानता
पर चिंतित रहने की कला में दक्ष, व्यस्त होने हेतु कुछ ढ़ूँढ़ लेता।
अन्य प्रति स्थायी सा भाव, चाहे मिथ्या स्वयं पर औरों से अपेक्षा
उचित
आप स्वयं सब सुविधाऐं लेते, जब औरों को लब्ध तो होती सी जलन।
पूर्वाग्रह अन्यों पर थोपते चाहे अनुचित ही, अन्यों का भी जिद्दी चरित्र
एक सतत घर्षण व्यक्तित्वों में, हाँ विद्या-प्रशिक्षण
से कुछ परिवर्तन।
पर शैली सुधार जरूरी, यदि भूत उत्तम भी न तथापि न सही सदा ढ़ोना
दुनिया में अनेक शख़्सियत ऐसी हुई, तमाम आयु आत्म को है सुघड़ा।
रुक बैठना ताल सड़ना सा, मन तरल है, रेखाऐं पुनः अंकित सकती हो
उचित संदर्भ में देखना-समझना सीखो, कोई कारण न कि सुधार न हो।
अंततः क्या उद्देश्य जिंदगी का, संयत पुरुष हो विश्व-हितार्थ कार्य करें
प्रायः वहम गलत, अतः सँवारकर मृदुल भाषा में स्व-अविष्कृत करें।
नितांत व्यथित न होना व्यर्थ-संवादों में, निज को झझकोरे क्या उचित
जीवन धन्य कर सकें तो पुरुषार्थी, अन्यथा बीतेगा पशुवत नैसर्गिक।
पवन कुमार,
१७ जनवरी, २०२१ रविवार, समय ६:४३ बजे प्रातः
(मेरी डायरी ३ मार्च, २०२० मंगलवार १०:३६ बजे सुबह से)
Excellent thoughts
ReplyDeleteRajbir Sharma: बहुत खूबसूरत।
ReplyDeleteSuneet Gupta: Very nice Sir. Very well appreciated. Your writing is worth reading. Thanks for sharing Sir. 💐💐
ReplyDeleteExcellent and appreciable translation in your words. Congratulations for this beautiful efforts by you.
ReplyDeleteAlways a joy to read Pawan sir
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