मार्ग प्रशस्ति
एक चिंतक सी बुद्धि, आत्म से प्रज्ञा-उदय का यत्न, एक कवि का हृदय
पूर्ण ब्रह्मांड-मनन, सर्वप्राणी हित की बात, अपने क्षुद्र स्वार्थों से बाहर।
भावी लेखन-मनन का स्वरूप तो नितांत अज्ञात, चेष्टा है सर्वोत्कृष्ट की पर
अद्यतन तो अंधकार में कुछ उल-जुलूल लिखा जा रहा, उसी में हूँ व्यस्त।
पर संतुष्टि तो कुछ श्लाघ्य करने से ही मिलेगी, यही मेरे मन का है संवाद
जिंदगी में बहु आयाम, कौन से स्पर्श होंगे, यह मात्र भविष्य को ही ज्ञात।
जैसे बड़े पुस्तकालय प्रवेश, बहु-विषयों पर विशारदों द्वारा सुकृत अनेक पोथीं
हर ग्रंथ पर विश्रुतों ने पूर्ण जीवन लगा दिया, एक सिद्धांत-अन्वेषण में वर्षों लीन।
जब नर में कुछ पूरित होता तो छलकने भी लगता, कुछ काव्य-लेख बन जाता
अंतः-रिक्त तो कथन-अशक्य, पर कदाचित उसे शिकायत-लहजे में कह देता।
प्रायः मैं अपढ़ा सा, बड़े धीमान-कार्य देखकर विस्मृत, पर हूँक सी कुछ लूँ पढ़
यहाँ तो सर्वस्व ही नवीन-अदर्शित है, जो भी पढ़ लिया वही पूँजी जाती है बन।
कुछ श्रम कर बुद्धि पर जोर देकर समझा, वह भी पूर्ण का मात्र एक लघु अंश
माना संतुष्टि मात्र भी नहीं है, पर इससे मार्ग प्रशस्ति अन्य आयामों हेतु महद।
लेकिन विषय अनेकानेक हैं, यदि शीर्षक भी लिखूँ तो भी सारी उम्र में न संभव
प्रत्येक पोथी में कई अध्याय, अपने में विपुल-अनूठे, काफी ज्ञान-अनुभव संग।
मेरी समस्याऐं कई, अल्प भाषा-ज्ञान ही, माना आजकल कुछ अनुवाद उपलब्ध
अमुक लिपियों-सभ्यताओं का प्रथम ज्ञान ही न, पारंगतता तो दूर तक न लक्षित।
पर जिज्ञासा सी, सुधीजनों के चरण-समीप बैठूँ, शायद ककहरे समझा दे कुछ
हाँ वह भी निज लघुता कारण अल्प ही समझता, पर जितना लब्ध उतना उत्तम।
एक गुरु-सेवा में ही लोगों की उम्र बीत जाती, छोटे समाधानार्थ भी वहीं टकटकी
सीमित काल, कितना सीखूँगा विचारणीय प्रश्न, पर रोध न हो चाहता अनेक छूनी।
निस्संदेह सामान्य से अधिक कर्म हों, तत्परता करो, मन-देह अनुरूप यत्न करना पड़ेगा
कोई कूप पास न लाएगा, प्यासे हो तो उठो, ढूँढ़ो, बाल्टी-रस्सी उठा खींचो, जल मिलेगा।
कुछ भी मुफ्त न, हर चीज की कीमत चुकानी होगी, यथाशीघ्र समझ लो उतना ही लाभ
पर निज मूल्य भी तुम्हें जानना चाहिए, बहुत कुछ कर सकते हो, इच्छा तो करो जाहिर।
ठीक है जग में अधिक जबरदस्ती ना कर सकते, पर अपनी अपेक्षाऐं तो बता सकते
जब स्वयं गंभीर तो अन्य भी वैसे ही देखेंगे, देह बली तो अन्य अनावश्यक न भिड़ेगा।
सारी जग-कवायदें योग्य बनाने की, कई श्रेणियाँ शून्य-मूढ़ से लेकर चरमोत्कर्ष तक
यह निज पर निर्भर किस स्थिति पहुँचना चाहते, कितना साहस झेलने का पथ-कष्ट।
समस्या बहुतर ज्ञान-सोपान स्पर्श की, मेहनत करूँ, योग्यों के पैर दबा लो
सर्व मूढ़ता-अविवेक जलाओ, जो शेष रहे वह निर्मल-कल्याण स्वरूप हो।
कुछों ने भ्रम फैलाया चर्चा ही न हो, चुपके से काम करो लोभ पूर्ति होती रहे
अशिक्षित-अयोग्य रखना कुछ शासक चाहते, कोई प्रश्न न करे, जयकारे लगें।
जरूरी न कि जिसे गुरु मानते हो, वह इतनी सरलता से सब कुछ दे सिखा
पर सत्य कि वह चाहे तुमसे तो कुशल हो, परम की सूची में न हो सकता।
नियति अनुरूप ही शिक्षक मिलते, जैसे केजी, प्राथमिक, मध्य, माध्यमिक, स्नातक
फिर स्नातकोत्तर, MPhil, PhD आदि उपाधियाँ, सिखाने-पढ़ाने वाले गाइड पृथक।
पूर्ण जीवन ही विद्यार्थी काल, स्तर बदलते, भूत-आवश्यकताऐं बदल लेती नवरूप
पर स्वयं सदा अधूरा ही, उपाय से थोड़ा प्राप्त भी लेते, तो भी स्वयं में है अपर्याप्त।
पर भूख तो सदा वर्धित, यह बिन पेंदे का कुआँ कभी भरेगा ही न, खाली ही रहता
होना भी चाहिए क्योंकि तभी क्षुद्रता-ज्ञान होता, और प्राप्त कर सकते हो कितना।
पर सुफल भी तो प्रदर्शित हों, योग्यता से प्राप्त आयामों को लगाना जनहित
पर जीवन अपेक्षाओं पर ही चलता रहता, अज्ञान-श्रृंखलाऐं टूटती रहती सब।
हमें निश्चितेव लोगों के भले काम आना चाहिए, उत्पादकता कर्मों से आएगी
अंततः जीवन-लक्ष्य भी लोकहितार्थ एक रज बनना ही, अन्य तो मध्य-कड़ी।
तो जितना यत्न हो सके पूरा करो, जितने भी ज्ञानकण उठा सकते, उठाओ
मन-सुस्ती तो नितांत भी न रखो, अपनी तरफ से पूर्ण झोंकने का यत्न करो।
यह शतरंज-खेल हार-जीत स्वीकारनी होगी, एक व्यवहारिक दृष्टिकोण संग
पथ अवश्य मिलेगा, योग्यतानुसार गंतव्य होगा, अडिगता से सफलता लब्ध।
पवन कुमार,
२६ जनवरी, २०२२ बुधवार, १९:०५ बजे सायं
(मेरी डायरी दिनांक १८ अप्रैल, २०२१ रविवार समय १०:४२ बजे प्रातः से)
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