पुनर्रचना
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मन ऊँचा करो ऐ साधो ! क्यों सदा फँसे रहते बीत गई बातों में ही
वर्तमान व आगामी पर ध्यान दो, कुछ निखरना तो संभव उनमें ही।
क्यों न मन का दायरा बढ़ाते हो, चरम मनुज-पराकाष्टा पहचानो एक
यूँ ही दोयम न रह सकते, अपनी बेड़ियाँ काटो, राहें दिखेंगी अनेक।
क्यों पूर्वाग्रहों के चक्कर में ही पड़ते हो, जो हो चुका बीत गया है वह
सभी ने बहु कष्ट सहे हैं, निज यातनाओं को ही याद रखोगे कब तक।
माना अतीत अत्यंत विस्मृत है, कुरूप भी, चेतना की आँच अस्पष्ट सी
कुछ नायक स्मृति-पटल से हटें, लिखित इतिहास तो न पढ़ सको कि।
नित्य कुछ जुल्म अब भी घटित दिखते, नर इतिहास से जोड़ लेते जल्द ही
प्रयास तो वृहद समाज व निज स्तर पर हों, समरसता उन्नति से ही आएगी।
अनेक लोग उन्नति कर बड़े आगे बढ़ रहें, क्यों मात्र पुरातन का ही रुदन
मत सोचो कि भूत या वर्तमान में क्या हो, अपितु कहाँ तक सकते पहुँच।
लोगों ने कुटुंब-गाँव-राज्यों-देशों की काया पलट दी, बना दिया विकसित
आदि मानव से आजतक का सफ़र, सभ्यता-विकास दीर्घकाल ही संभव।
प्रत्येक विषय एक विकास -प्रक्रिया, उन महीन आयामों को समझो तो सही
निज को बलात अपढ़ रखना फिर विद्वता-आशा भी, एक अति विरोधाभास ही।
निज को तत्पर तो करो बहु दायित्वों हेतु, कोई मानता न परिश्रम करना पड़ता
विश्व एक प्रतियोगिता अभ्यर्थी तो बनो, जय-पराजय का खेल बाद में शुरू होता।
क्यों मूढ़वत हिंसा में विश्वास करते, निज ऊर्जा सहेज विकासार्थ करो प्रयोग
तुम्हें बड़ी परियोजना में शामिल होना होगा, निज मन की मनवा सकोगे तब।
सब दबे-कुचले-निर्धन समाज भी दिवस-कांति देखें, सूरज बड़ी आशाऐं देता
मन को कभी मायूस न होने देना, माना कुछ प्रपंच भी हैं पर ठीक हो जाएगा।
वृहद-दर्शन करो निज को कभी निम्न न समझो, सार्थक संवाद करना सीखें
जानें तर्क-विमत पथ भी, मंडेला, किंग लूथर, ओबामा, अंबेडकर, गांधी से।
महानता कदापि लड़ाई से न आती, तुम कुतिया के पिल्लों सम लड़ना छोड़ो
निज अल्प ऊर्जा का उचित-पर्याप्त प्रयोग हो, मौन उन्नति-क्रांति भी श्रेयस ही।
देखो इस जीवन में अनेकानेक विरोधाभास हैं, शुरू करो जग का सम्यक दर्शन
कुछ दुर्जन विभाजन चाहते कि समन्वय न हो, अकेले से निपटना शीघ्र संभव।
लोभ-स्वार्थ सर्वव्यापक हैं मैं न नकारता, अपुण्य-मंशा भी कुछ जगत-नरों की
पर आत्म सुरक्षा उपाय ज्ञान भी चाहिए, क्यों बलि-भेंट बनते हो बकरी भाँति?
तुम शीघ्र मौनरत उन्नत हो इतना निपुण बनो, कि एक जरूरत अनुभूत हो
क्यों नित्य अकुशल बने रहते हो, जल्दी से निपुण कर्मी में परिवर्तित होवों।
संसार में कई उत्तम व्यवसाय भी तो हैं, निज हेतु भी खोलो उनके प्रवेश द्वार
गहन श्रम-संघर्ष-ज्ञान-धैर्य व शासन का संग, कई व्याधियों का है उपचार।
तुम्हारे नायकों संग पूर्व व वर्तमान में भी, कहीं-२ हुआ देखा जाता अत्याचार
पर तुम सबसे घृणा-डाह-भय न कर सकते, उचित शैली से रखो तो संवाद।
विश्व में सब न बुरे सक्षम सहायता भी करते, पर सहज विश्वास कैसे पनपे
संवेदनशील संग लेना सीखो, निकट सहायता करो, राह खुलेगी निश्चितेव।
थोड़ा ध्यान से तुम देखो कैसे नर ने भाग्य पलटें, क्या कारण तुम न उबरते
कुछ विभव तो तुम तक भी आया, पर विकास-गति बढ़ाओ, शांत न बैठें।
अनेक बाधाऐं वीथि में आऐंगी, पर विषम परिस्थितियाँ भी रहती सदैव न
वीर सब कालों में निज राह बना लेते, छुपकर डर से बैठ जाना पौरुष न।
शासन पर सब के दबाव, माना कुछ अधिकारी पूर्वाग्रह-ग्रसित भी संभव
पर कई धाराऐं जग में सदा बहती रहती, तुम उचित अनुरूप का लो संग।
संवेदनशील तो होना पड़ेगा, जबतक स्वयं ही न संभलोगे तो कौन देगा संग
खुद को एक नृपवत मानो, बुद्धि-पटल विकसित करो, निर्णय लोगे सम्यक।
विश्व एक विपुल मानव-संघात, निज घावों से पीड़ित, तुम्हारी परवाह क्या
लेकिन ध्यान करना जानते हो, तो निज संग उनकी भी कर सकते सेवा।
स्व दृष्टिकोण उच्च बुद्ध सम मानवपरक रखो, सब हम जैसे हैं, सीख लो
बस जहाँ हो काम भली से करो, कई दरवाजे बंद हैं साहस से खोल लो।
आओ ऐ मनुजता के विशाल पुञ्ज, अपने को ललकारो, क्षीणताऐं करो अल्प
महान खोजें-अविष्कार, सभ्यता, दर्शन-मनोविज्ञान, उन्नति प्रतीक्षा रही कर।
पवन कुमार,
१६ जनवरी, २०२२ रविवार, समय १७:४३ बजे सायं
(मेरी महेंद्रगढ़ डायरी २९ अगस्त, २०१८, बुधवार समय ९:१४ बजे प्रातः से)
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