आत्म प्रश्न-प्रणेता
क्या यह लेखन-उद्देश्य, जब सुबह समय न मिल पाता तो मन उद्विग्न सा रहता
क्या निकालना चाहता है यह मुझसे, अभी तक तो अधिक विरल स्पष्ट न हुआ।
इतना तो अवश्य कि यह रूह 'बेचैन' है, माना चाहे खुद को न पा रहा हूँ समझ
कुछ शायद शीघ्र सफल हो जाते, हाँ निज से रूबरू होना अति आसान भी न।
माना देह यहीं, कागज-कलम भी निकट है, पर मस्तिष्क अन्य क्षेत्र चला जाता
चाहने से भी क्या जब भटक जाता, सत्य-समय (Real-time) का बखान है यहाँ।
अनेक विषय मन में कुलबुला रहें, Easy chair Intellectual सा भी न बन पाया
कर्मठ तो इन जैसे का गंभीर न लेते, और तुम ख्याली-पुलाव में ही सोचते भला।
कैसे बदल सकता जगत को, जो संवेदन-शील व स्व-कर्त्तव्यों प्रति जागरुक हो
कैसे हर मनुष्य स्वयं में एक पूर्ण चेतन हो, मानव के मृदु-पहलूओं से संपर्क हो।
हमारी शिक्षा उच्च-स्तर की होनी चाहिए, चरम मानव-विकास ओर अग्रसर करे
जीवन-ध्येय अत्युच्च होना चाहिए, जो सकल मनुजजाति को एक मुष्टि-बद्ध करे।
मैं तो सकल जकड़नें भंग ही कर देना चाहता, लोग दिल से स्वीकारें मृदुल-मूल्य
तमस, अंध-विश्वासों में पाशित कैसे मुक्त हों, भव-सागर पार जाना सरल भी न।
अनेक सूत्र प्रबुद्ध जन दे गए हैं पर कहाँ याद रहते, स्व मूर्ख संसार में ही व्यस्त
अज्ञात कि वे सूत्र भी अपने में कितने संपूर्ण, यह तो विवेचना पर ही होगा ज्ञात।
तब कौन सूक्तियाँ भित्ति पर उकेर दूँ, जिन्हें सुबह-शाम दर्शन-मनन कर सकूँ
या मन में एक सुमरनी सी पकड़ लूँ, एक ईश-नाम ही सदैव गुञ्जन करता रहूँ।
किसे ईश कहूँ जो कुछ अवतार से उपदेशित, या कुछ अति-पावन ग्रंथ-उद्गीत
क्या नियति हो जिन्हें बस ढूँढ़ता रहूँ, या स्व-विवेक से भी कुछ कर लूँ निमील।
पर जितना भी कर्मठ, क्या पूर्वगत कोटिशः-जनों के उपलब्धियों सा सकता रच
फिर प्राप्त से आगे बढ़ना चाहिए, सूर्य का 'पूर्व' खोजना तो एकाकी-बस में न।
यह अवश्य कि जीवन-भवंडरों से मुक्ति हो, भागकर न अपितु सोच-समझकर
यह समस्त जग-प्रक्रिया समझना चाहता, चाहे जितनी सघन करना पड़े प्रश्रम।
पूर्वाग्रह-ग्रसित तो न, पर शिक्षित नर को नीर-क्षीर विवेक तो पूर्ण होना चाहिए
कुछ शुभ समझ-जान ही जाऊँ, इस तमाम कवायद का मूलतः लक्ष्य यही है।
स्व को अति-निर्मल पूर्ण तो न कह शक्य, फँसा रहता सब अच्छाई-बुराइयों में
सकल निंदा-श्लाघा-चाटुकारिता, स्वार्थ-परकता व लुब्धता आत्मा पर लिपटे।
एकदम अन्य- बुराईयों पर भी आ जाता, कर्कश होकर भी कटु बात कह देता
कदाचित विधि-कारणों से श्रम नकार भी देता, पर सबकी मन-गुंठा समझता।
एक पद पर हूँ तो अनेक बाधाऐं भी हैं, पार जाना है किंतु राह की कठिनाईयाँ
सर्वस्व तो न निज हाथ, तथापि प्रयास से एक सम्मानित स्तर बनाना चाहता।
कुछ योग्य तो बनूँ स्व पदानुरूप ही, वरन जगतप्रदत्त तो परिचय-चिन्ह अनेक
अपने श्रम द्वारा पचड़ों से निकलना, इस विश्व में आने की उपलब्धि होगी एक।
एक बड़ा समाज-भाग मग्न अवस्था में, क्या इसके जन आत्म-निर्भर हो सकते
क्या वे बाधाओं के पार भी देख सकते, और उनकी मुक्ति-प्रबंध कर सकते।
हाँ लोग मूढ़ताओं से पार आ सकते, मात्र बुद्ध सम मुक्ति-चेष्टा है आवश्यक
संपूर्ण उपयोग हो इस प्रदत्त देह-मन का ही, किंतु देखते कब होते हैं सफल।
पर उत्कंठ-अभिलाषा से यथाशीघ्र मन प्रबुद्ध हो, देखते कब होगी परिणति।
पवन कुमार,
१९ जून, २०२४ बुधवार, समय ००:०७ बजे मध्य रात्रि
(मेरी महेंद्रगढ़ (हरि०) डायरी ५ जुलाई, २०१७ बुधवार समय ८:२६ प्रातः से)