अदम्य निरंतरता-इच्छा
एक मूर्त मिली है प्रकृति माता से, सब अंग-ज्ञानेन्द्रियाँ मन-बुद्धि से युक्त
खिलौना तो रब ने अच्छा ही बनाया, पर कैसे प्रयोग हो रहा है महत्त्वपूर्ण।
विधाता की बुद्धि सशक्त है, वह श्रेष्ठतम कलाकार अनंत-सघन वस्तु-राशि
निज ओर से कसर न छोड़ता, जग के सब जीव-पदार्थ उसकी कलाकृति।
हरेक को पूर्ण सामग्री से पूर्ण बनाया, हाँ यहाँ-वहाँ कुछ विसंगति भी संभव
परंतु कमोबेश तो सब स्वतन्त्र ही हैं, चाहे तो आराम से बिता सकते जीवन।
विज्ञान-भाषा में कहें तो मानव तथा अन्य जीव-वनस्पति यहाँ विकसित हुई
लेकिन वह प्रक्रिया भी अति जटिल, हमने एक विकासवाद-धारणा बना ली।
उसमें विधाता-ईश की भूमिका न चिन्हित, सकल ही देन काल-परिस्थिति की
फिर शनै अतिदीर्घ बाद वर्तमान विश्व-स्वरूप, अपने ढ़ंग से होगा भविष्य भी।
पर कुछ भी ईश्वर ने बनाया या प्राकृतिक-कारक, मानव व अन्य जीव-रचनार्थ
यह भी सत्य कि हम मात्र उपकरण न, अपितु वृहद प्रकृति-चेतना का हैं अंश।
जीव मनन-विचरण हेतु कुछ स्वतंत्र, चाहे तो न्यूनाधिक स्थिति बदल है सकता
जरूरी न एक जगह ही शिथिल पड़े रहो, देखो तुम्हारी ही तो है सब वसुंधरा।
अति संघर्ष तो है बाह्य-परिवेश में, सब जीव स्व वर्चस्व-रक्षार्थ मारे-2 हैं फिरते
आप प्रकृति- संसाधन महत्तम ही घेर लें, औरों मिले या न हमारा न विषय है।
व्यक्तिगत या सामूहिक-संस्थागत स्तर पर, प्रवृत्ति पृथ्वी-वक्ष को पाटने की इस
मन में तो बड़ी हूक चाहे न कर सके, महत्त्वकांक्षा जीव का एक गुण नैसर्गिक।
कुछ जीव यहाँ देह से बलशाली रहें, किंतु अन्य दुर्बल-जीवों ने युक्ति से हटाया
जो खाली बैठा रहा तो भूखा पड़ा रहेगा, या भक्षण कर लिया जाएगा अन्य द्वारा।
एक होड़ सी लगी श्रेष्ठता सिद्ध करने की, येन-केन-प्रकारेण तब सफलता पा लें
सब यहाँ तीसमार खाँ बने, पर बहुदा पराजय देखकर अपने यत्न कम कर देते।
दुनिया के रवैये को क्या कहूँ, कई बार तो घुटती सी एक उदासीनता ही दिखती
कुछ लोग तो अतीव त्वरित दिखते, किंतु अनेक न बाहर आते सुस्ती से अपनी।
देह-मन की थकावट एक शुल्क सा लेती, हमारे कहने से ही न सब कुछ होगा
जब नेत्र बंद हो रहें व कलम लड़खड़ा रही, तो ऐसे में भला कैसे श्रेष्ठ निकलेगा।
अब मुझे भी एक अच्छा उपकरण तो मिला, पर कैसे कर हूँ रहा उसका प्रयोग
यह मैं या प्रकृति-चेतना ही हूँ, मुझ द्वारा ही स्वयं को बनाए चाहती चलायमान।
मैं क्या हूँ जो अपने से ही चाहूँ, जबकि निर्माता बनाता है निज प्रयोग हेतु बहुदा
स्थिति भिन्न लगती हैं, प्रतीत कि अन्यों हेतु बनाया, पर कार्य स्वयांर्थ ही हो रहा।
कौन स्वामी, किसका मजदूर, किसे दैनिक-कार्यकलापों का लेखा-जोखा देना
मन-श्रेष्ठ पर कौन पीछे से हाँक रहा, ये स्वछंद क्षण निज ढ़ंग से चाहते बीतना।
अपनी ओर की दुनिया स्वयमेव बनाई, व ये समस्त कार्यक्षेत्र-चोंचले किए खड़े
अब भी मर्जी से कलम-कागज लिए बैठा हूँ, यह चेष्ठा ही जो सदा प्रेरित हैं किए।
जिस भी परिस्थिति में आज हूँ, वह किसके प्रभाव से व कितना उसमें मेरा अंश
क्या मैंने इस हेतु यत्न किया, हाँ कोई न कहेगा निज यदि कठिन बीत रहा समय।
तब कुछ सराहनीय प्रयास होंगे अपने भी, यदि स्थिति में सकारात्मक हैं परिवर्तन
एक-2 ईंट जोड़ने से ही ललित भवन बनता, यहाँ निर्माता - निर्मित दोनों हूँ स्वयं।
एक बड़ा प्रश्न जो पूर्व भी कुछ इंगित है, क्या पूर्ण स्वतंत्र, परतंत्र या मध्य-स्थिति का
विभिन्न दर्शन तर्क देते पर यदि योग्य हो, इच्छा से बहुत करने का अवसर मिलता।
माना इस दुनिया में बड़ी टाँग-खिंचाई, सत्य में अत्याचार भी हो रहें कुछ लोगों पर
पर उसके बावजूद भी नर में अदम्य-बल है, चाहे तो विश्व का भाग्य सकता बदल।
तो क्या हम भाग्य-विधाता, अति विचित्र कि इतना बहमूल्य उपकरण दान में मिला
हम विधाता की मूरतें जग-कल्याणार्थ चिन्हित, अपना कुछ नहीं, समय है बिताना।
पर जितनी समय-ऊर्जा इसको प्रदान की गई, पूर्ण उपयोग सार्वजनिक हित में हो
अनेकों के यहाँ भाग्य बदलें तुम भी बदल सकते, चेतना से कर्मठता का पथ ले लो।
माँ-बाप ने जन्म दिया, पाल-पोसकर पाँवों पर खड़ा करके, चले जाते हैं परमधाम
तो क्या उद्देश्य था हमारे निर्माण का, या जैसे सब करते तथैव पैदा कर दी संतान।
एक बार बचपने में यूँ ही माँ से कहा था, कि 'क्यों इतने अधिक बच्चे पैदा कर दिए'
निस्संदेह यौवन-सुख में गर्भधारण होता, पर सत्य उद्देश्य रूप देना है अपने जैसे।
कारण है हमारी अदम्य निरंतरता-इच्छा , इस हेतु रचे जा रहें अनेक जगत-प्रपंच
सब विवाह, यौन-संबंध, संतति का पालन-पोषण, उसी कवायद में हैं अग्न-कदम।
संतान-मोह तो होता है अभिभावकों में, पूरे यत्न से योग्य बनाते उन्हें पाल-पोसकर
सोचते भविष्य इनका ही है, हम कुछ दिन के पहरेदार, इनका होगा अग्र दायित्व।
सबको यहाँ समय मिलता कुछ खेलने-खाने, मस्ती-लड़ने-भिड़ने या पंगा लेने का
तुम्हें भी मिला निज से जी रहे, जब सकल प्रकृति समक्ष किसी से शिकायत क्या।
पर इसी लब्ध स्वतंत्रता में बाह्य-जिम्मेवारियाँ भी
हैं, यहाँ मात्र अपने हेतु ही नहीं हो
जीवन-निर्माण तो महद-उद्देश्य संग ही किया गया है, परंतु अपना मूल्य तो जानो।
किन वस्तुओं में चेतन-जीवंतता छोड़ सकते हो, वह होगा शायद जीवन-मापदंड
सीमा-विस्तार करो इस वर्तमान लघु-कोटर से आगे, समस्त जग ही है कार्य क्षेत्र।
जहाँ भी जाओ अपनी अमिट छाप छोड़ दो, औरों पर नहीं तो कमसकम निजार्थ
जितना उत्तम निज
से संभव था उतना कर दिया, बड़ी चेष्टा हो करूँ ही सर्वश्रेष्ठ।
परियोजना की योजना बनानी है, चाहिए तो सब भाँति का ऊर्जा-उत्साह-साहस
यदि वर्तमान से आगे देखने की योग्यता बना सकते हो, निश्चिततया है परम-यश।
लोगों को अपने प्रयासों में मिलाना अनिवार्य है, उनका बल-संबल अति महत्वपूर्ण
परन्तु पूर्ण-जागृति तो आत्म-जागरण से होगी, अन्य मात्र सहयोग सकते हैं कर।
पर संगी-योग्यता में विश्वास करना सीखो, स्व-रचनात्मकता से कर देंगे अचंभित
मुस्कुराकर कुछ श्लाघा-प्रेरण-प्रोत्साहन-सहाय से,
सुपरिणाम रचवाना लो सीख।
वे आपके अधिकार में
प्रदत्त, काम लेना कर्त्तव्य, हाँ न्यूनाधिक सबमें कुछ कमी
बस बिंदु सीधा कर शुभ दिशानिर्देश देते रहो, मंजिल समीप है शीघ्र ही मिलेगी।
यह जीवन तो मेरा ही है, स्वयं हेतु ही निर्मित, मैं संचालक पर प्रकृति का महादूत
महद अपेक्षा है मुझसे, जननी-कार्यों में सहयोग प्रयास करो, करो जीवन सार्थक।
कोई भी देश-समाज-विभाग कर्मियों से ही जाना जाता, तुम परिवेश दो उपयुक्त
जब दूजों को सादर अपेक्षा से देखना शुरू होगा, तब समझना कुछ हुए सार्थक।
प्रकृति ने मुझे उत्तम-अवस्था में रखा, किंचित इसी जन्म में अपेक्षित महद अति
हर दिवस अति-प्रधान है त्वरित प्रक्रिया हेतु, समय-सदुपयोग आपकी कसौटी।
जिससे बात करनी हो करो,
पर संसाधन विकसित करो, बस उत्पादकता-ध्येय
सच्चा कर्मयोगी बन अपने संग
मित्रों-जाति-विभाग-ग्राह्य का नाम कर दो उन्नत।
पवन कुमार,
२ जून, २०२४ रविवार, समय
११:१६ बजे
पूर्वाह्न
(मेरी महेंद्रगढ़ डायरी ३०
मार्च, २०१७, वीरवार, समय
६:५९ बजे
प्रातः से)
PC Gyasia : Very nice
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