दिन निकला और सुबह हुई, मन
मेरा उन्मत्त हुआ
कैसे बेहतर बने सब कुछ,
विचारने का मन हुआ॥
मेरी खूबसूरतियों की स्मृति,
इस पल में हुई है प्रखर
उजला-उजला विभोर, प्रफुल्लता
चहुँ ओर स्फुटित।
शब्द-समृद्धि व
अपरिमित-आकांक्षा, सब ओर बिछीं
मैं उठ बैठा फिर खड़ा हुआ, सब
पर्यन्त मुखर हुई॥
मैं उन्मादित-हर्षित मन में,
यह जीवन का उजला पक्ष
विचारक-चिंतक मौलिक, और सब
है संवाद सबक।
मेरी लघु-परिमिता विस्तृत
हुई, ज्ञान चक्षु हुए हैं प्रखर
बहु-समृद्ध, विशाल-असीमित,
नभ-तारक गण मुखर॥
मेरी व्याधियाँ-अतृप्तियाँ,
संकुचन सब भाग से हैं गए
मैं बना सम्पूर्ण और ये पल,
परब्रह्म से सम्पर्क किए।
मेरी शैली-रचना, मेरा मतवाला
बौद्धिक चिंतक मन
मेरी विद्या-पुस्तकें-ज्ञान,
सब कुछ तो हुए प्रज्वलित॥
मैंने तजी कुचेष्टाऐं, व
दया-शुचिता को आमुख हुआ
व्यर्थ-संवाद छोड़, सबल-समर्थ-सार्थक
ओर हूँ बढ़ा।
मैं बना वास्तुकार स्वयं का,
भले ही विचार बाह्य कुछ
किंतु इस समक्ष पल में तो,
स्व में ही फलीभूत बस॥
शायद मनुष्यत्व पा हूँ गया,
एवं आत्म को जान गया
अपनी व्यर्थताओं को भुला,
सुपक्षों ओर इंगित हुआ।
मैं जागा, जगत जागा, और
समाधान हो गए सारे प्रश्न
सौभाग्यशाली बना स्वयं को,
बढ़ा दूँगा अपने प्रयत्न॥
मन में उठी हिल्लोरें मेरी,
मन कुछ हुआ है वयस्क
वर्धन उस ओर जहाँ, सीमाऐं
हुई हैं समाप्त सकल।
सब मेरे और मैं सबका, कोई भी
नहीं है विरोध-द्वेष
बना हूँ स्वयं का संगी, और
सब ओर खड़े हैं प्रेरक॥
माना मन में ही निज, मनोरमा
विस्तृत आगे कितनी
करूँ रसास्वादन मैं उनका, सब
कुछ लिए मेरे ही।
जागा इस भाँति से हूँ,
सर्वस्व ही अपना हो सा गया
मैं उठ खड़ा तन्द्रा से,
बहु-विचित्रता से रिश्ता बढ़ा॥
मेरे सब डर दूर भाग गए हैं,
और मैं जितेन्द्रिय बना
महावीर मेरा तन-मन, व सबलता
का है पक्ष बढ़ा।
मोह हटा मम दुर्बलताओं से,
अधमता क्षीण हुई सब
और मैं बना परम का साधक,
अरिहंत से बढ़ा प्रेम॥