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Sunday, 14 December 2014

पूर्ण आयाम

पूर्ण आयाम 


क्या है संपूर्णता मानव-जीवन की, कैसे उसे प्राप्त करें

कैसे हो उसका अनुभव, तन-मन में सब संचारित करें॥

 

यूँ तो जीवन आया है सर्वांग संग, जो स्वयंमेव संचालित

पर प्रशिक्षण माँगें हैं, निज पूर्ण आयाम क्रियान्वयनार्थ।

चाहे प्रतिबद्धता मानवता प्रति है, व सतत कर्मण्यता की

और अनुशासित सिपाही भाँति, ध्येय- लगाए जाने की॥

 

प्रकृति-दत्त नर को दो चक्षु हैं, देखने को समक्ष-बाजू में

बनता १५०॰ कोण समक्ष, अधिक बड़ा ग्रीवा घुमाने से।

फिर देह मुड़ने की क्षमता से, पृष्ठावलोकन भी है संभव

किंतु कुछ कष्ट करना है, सर्व-दिशाऐं लाने हेतु समक्ष॥

 

एक ही मस्तिष्क, समय २४ घण्टे, है विडंबना सीमा की

फिर सुस्ती, अन्य कार्य व अपर्याप्त तैयारी उत्साह की।

जीवन फिर बीता जाता है, पूर्ण मानकर अत्यल्प को ही

नयन पूरे नहीं खुलते, बस एक जगह मार बैठे कुंडली॥

 

सब-वसुधा अपनी ही, फिर क्यों अपना यूँ सीमित बनाते

न खोल देते मन-बंधन, और स्वछंद होकर गोता लगाते?

जीवन मिला है तो, करो प्रत्येक अणु का भरपूर उपयोग

देखो अपने सामर्थ्य से, कितना बन सकता व पड़ा बन?

 

'आप मरे जग- प्रलय', हरेक को अनुभव लेना है बताता

तुमने क्या कमाया- खोया, यही है पुरुषार्थ का पैमाना।

नहीं कि पूर्वजों ने क्या किया, और अन्य क्या रहे हैं कर

असल विषय है निज-आचार व जीवन-कसौटी समस्त॥

 

घर-गृहस्थी में फँसकर मनुष्य, विकास-पथ है भूलता

बस एक आयाम में रह, कुछ बड़ा भला न हो सकता।

जीवन तब खुले अध्याय का नाम, विचरना एक अनन्त

कैसे अज्ञातों से हो संपर्क नित्य, ऐसे ही विचार पनपन॥

 

दर्शन-साहस है तो, गहरे पैठने से विविधता मिले बहुत

पूर्ण समर्पण भी है ऊर्जा, बेहतर परिणाम करे स्फुटित।

निज चहुँ ओर का सर्वांगीण-ज्ञान, तुम्हें करे कार्य-कुशल

जीवन चलन-उपकरण देना, निट्ठलता ढ़ीली कर कुछ॥

 

जो समीप उस पर उत्तम प्रयास, क्षमता में करे है वृद्धि

और पूर्णता तो न शायद, तो भी मिलेगी अत्यंत-संतुष्टि।

सतत वृद्धि-बौद्धिक दैहिक क्षेत्र, शनै प्रगति-द्वार खोलें

'घर में खीर तो बाहर भी है खीर', निकाय-प्रवीण करे॥

 

पर संपूर्णता हेतु साहस जरूरी है, जो तोड़े सब बन्धन

निकलें प्रथम श्रेणी घुमक्कड़ सम, सर्व दिशा विचरण।

देखें-समझे जग को, क्या उससे कुछ निकला निष्कर्ष

मस्तिष्क कितना गतिमान, समझने नव अध्याय-पथ?

 

हों निर्मल-प्रबुद्ध, गतिशील, व मन-लब्ध पूर्ण आयाम

चक्षु खुलें, मन ग्राह्य, नव-विचरण, सुख-दिशा समक्ष।

देखें-समझे सर्व जगत, भूतल को निज कदमों से माप

पूर्ण प्रकृतिमय, सकल एक-रूपता से होते आत्मसात॥

 

क्या सोलह कृष्ण-कला हैं, संपूर्ण-समर्थ निर्माण-सक्षम

क्या हैं आती स्वतः ही, या प्रयास से पायी जाती संभव।

आधुनिक शिक्षा ने खोले मार्ग हैं, आम नर की भी प्रगति

करिश्मा तो है पर जन्मजात नहीं, प्रेरणा-साहस युक्ति॥

 

कुछ विद्या मिलें सक्षम गुरु से, खुलें सब अदर्शित पाठ

देखूँ-समझूँ, परखूँ-अपनाऊँ, व निकाल लूँ वाँछित सार।

कैसे बनें पूर्ण एक मन-स्वामी, जिसमें कुछ न हो त्याज्य

सकल मनुजता से ही नाता, हृदय से सबसे हो सम्पर्क॥

 

कैसे सब जीव-जंतु-वनस्पति, सबसे हमारा हो परिचय

इनको समझें, सम्मान करें और प्रकृति में हों आनंदित।

ले प्रेरणा सूर्य-चन्द्र से, व खगोलीय ग्रह-तारों से नाता हो

 बनें अनन्तता-संगी, जिसमें कुछ भी नहीं अपरिहार्य हो॥

 

बनें कवि-कथा व चित्रकार, अब मन उकेरने में समर्थ

बनें तत्व-विज्ञानी, चिंतक, कुछ अन्वेषण में ही व्यस्त।

जानें समक्ष सकल जग-विद्या, माना पूर्ण न तो अंश ही

योगदान उनमें करना है, विषय में कृत-संकल्प हों ही॥

 

बनें एक सक्षम तन-स्वामी, जो हों हृष्ट-पुष्ट व उद्योगरत

न झिझकें तो मन-कथन में, साहस पालो एक अप्रतिम।

समझें इस देश-काल को, मानव समता में हों प्रयासरत

सबके भाग्योदयों में सहायक, और विकास हो विस्तृत॥

 

छोड़ें प्रमाद-उपालंभ, मनुष्य-क्षमताऐं नहीं क्षुद्र समझें

महत्तम संभव बेहतर विचारें, और इसकी वृद्धि कर लें।

जीवन है चलने का सुनाम, न रोने-सिकुड़ जाने का बैठ

चलो, बढ़ो दूर-गामी पथ, बाहु-पाश में गगन ही लें कर।

 

सब ज्ञानेंद्रि हों पूर्ण जागृत, व उनका भरपूर उपयोग हो

उपकरण जो भी समक्ष हैं, उनसे तो अधिकतम बना लें।

फिर नहीं कहना अभागा हूँ, जब देह-मन देंगे साथ ही न

यावत हैं प्राण, नहीं रोध या लालच, न हो दिशा-विहीन॥

 

एक मन-विचरण, पर खुले नेत्रों से ही विहार पर बढ़ता

दोनों रखो उद्योगरत, तभी तो मस्तिष्क को बल मिलता।

निज लेखनी व कर्मों से, इस संसार में सार्थक बन जाओ

प्रेरणा कुछ की सहायक हैं, पूर्णता-आत्मसात कर लो॥

 

जिज्ञासु चलता जा, समस्त दिशाऐं ही हैं कार्य-क्षेत्र तेरा

देख कैसे-क्या विश्व-पालन में, सहायता है कर सकता।

बन जा बुद्ध सा परिव्राजक, ज्ञान अप्रतिम विस्तृतीकरण

सज्ज कर संपूर्णता नव- पौध, होनहारों को नेत्र-सकल॥

 

खो जा इस अंतर्यात्रा में, नहीं चाह मुझे बाहर आने की

सब मित्र हैं न कोई दूजा', बात बस अनुभव करने की।

विश्व स्व में व्यस्त है, अपनी सुध नहीं क्या देखेगा तुम्हें

रखो ध्यान, निज ही स्वार्थ, चल पड़ो विरल यात्रा ही में॥

 

सुभग यदि मिलें साथी, शायद तुम्हें कुछ सकें ही समझ

अन्यथा स्व-निकट जाकर, परिभाषा दो निज अध्ययन।

निज ही समझ सब पूँजी, लिए विस्तार-संभावना सकल

इतना कुछ है जब शेष, तो क्यों है विलंब एवं प्रतिबन्ध ?

 

मानो रोधक स्वयं ही हो, अपने दीपक भी तो बनो आत्म

एक प्रकाश-अंशु घोर तमस चीरे, न हतोत्साह-कारण।

करो प्रयोग समस्त क्षणों का, बढ़ने का पूर्णता की ओर

स्वयं से है यदि न संभव, औरों से मिल करो निष्पादन।

 

धन्यवाद॥


पवन कुमार,
14 दिसम्बर, 2014 समय म० रा० 01:06 बजे
( मेरी डायरी दि० 12 अक्टूबर, 2014 समय 09:25 प्रातः से )

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