मेघदूतम - मेरी कलम से
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रामगिरि पर एक यक्ष ने उत्तर दिशा यात्री मेघ से प्रार्थना की
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रामगिरि पर एक यक्ष ने उत्तर दिशा यात्री मेघ से प्रार्थना की
स्वामी से शापित होकर यक्ष को, दूर रहना निज प्रिया से एक वर्ष है।
देखकर आकाश में पावस-मेघ, अधिक सताती है वियोग-अग्नि
अतः प्रियतमा को स्व-कुशलता सन्देश प्रेषणार्थ, मेघ से विनती की उसने।१।
यक्ष अपनी प्रेयसी के प्रेम-पाशित,
उसे ध्यान नहीं क्या मेघ भी ले जा सकता सन्देश,
उसे ध्यान नहीं क्या मेघ भी ले जा सकता सन्देश,
जो है बना केवल धूल-पानी का, भाव-बुद्धिमता से ले जा सकता कैसे ?
लेकिन प्रेमियों को क्या ध्यान इन सब का, उन्हें तो बस एक माध्यम चाहिए
वे बना लेते हैं मन में आकृति, और पुनः-2 स्मरण करते हैं।२।
फिर जो समीप वही अमूल्य, मूर्ख मित्र से बुद्धिमान शत्रु भला
आवश्यकता पर सूई भी महत्त्वपूर्ण, बड़ी तलवार वहाँ निरर्थक है।
अतः प्रार्थना मेघ से, मेरा सन्देश लेकर यक्षपति - नगरी अलका जाना
जहाँ शिव के भाल पर स्थित चन्द्र से, पावन चाँदनी रही छिटक है।३।
उत्सुक युवतियाँ वर्षा-काल में अम्बुद देख कुछ शान्ति पाती है
पर मैं बैठा अभागा दूर स्थान पर, वहाँ मेरी जानम तड़प रही है।
चातक पक्षी तुम्हें देखकर मधुर संगीत गुना करते,
तत्पर रहती सारसियाँ मिलन को
तत्पर रहती सारसियाँ मिलन को
पूरी तरह से आश्वस्त होती वे, प्रेमी आऐंगें आकाश-मार्ग से।४।
कामिनी पुष्प-तनय हृदय आशा से ही, कुछ महीन सूत्रों से हैं बंध
तुम्हारी गर्जना सुनकर मानसरोवर के राजहंस,
लेकर कमल-पुष्प संग, निहारेंगे तुम्हारा व्योम-पथ।
जिस रामगिरि पर रघुराज कदम पड़ें, यहीं से लेता हूँ तुमसे विदा
लेकर कमल-पुष्प संग, निहारेंगे तुम्हारा व्योम-पथ।
जिस रामगिरि पर रघुराज कदम पड़ें, यहीं से लेता हूँ तुमसे विदा
तुमसे पुनः मिलन होगा यहाँ, लंबे बिछोह की आह पश्चात्।५।
सुनो ऐ मेघ,
मार्ग सुझाता हूँ जो कठोर पर्वत से निकल, पावन जल सा सुकून पहुँचाऐ
मार्ग सुझाता हूँ जो कठोर पर्वत से निकल, पावन जल सा सुकून पहुँचाऐ
पर्वत-शिखा के पूर्व में इंद्र-धनुष, कृष्ण जी के मोर-पंख जैसी छटा बिखेरे।
तुम्हारा आना ग्रामीणियों को पुलकित करता, समस्त कृषि तुम पर निर्भर
तुम्हारा आना ग्रामीणियों को पुलकित करता, समस्त कृषि तुम पर निर्भर
अतः चलो उन मैदानों से करते पृथ्वी सिञ्चित, पश्चिम की राह ले लो फिर।६।
चित्रकूट पर्वत तुम्हारा अभिनन्दन करेगा, मस्तक पर वह बैठा लेगा
तुम भी ग्रीष्म की भीषणता को, जल-बिन्दुओं से उसे शांत करना।
नेकी का बदला महात्मा नेकी से चुकाते, इक-दूजे से लाभान्वित होते
दावाग्नि को तुमसे बुझता देख, अमरकूट भी तुम्हें भाल लगा लेगा।
क्रूरतम हृदय भी शरण पड़े मित्र को देखकर अंततः पसीज जाते हैं
फिर महाजनों की क्या कहिए, जो सदा परोपकार सोचा करते हैं।
अमरकूट-ढलान आम्र-कुञ्ज भरे, तुम उसकी शिखा पर कुण्डली मार लेना
बाह्य पीत घेरे में पर्वत नीली पृथ्वी भाँति प्रतीत, दैवी प्रेमी समीप हो जैसे।
कुछ समय विश्राम करना वहाँ, वनवासिनियाँ तुम्हारी फुहारों से पुलकित होंगी
फिर शीघ्रता से निकल देखना रीवा-निर्झर, जो विन्ध्य-शैलों से उद्गम सर्प-सम।
तुम्हारी वर्षा तुम्हें हल्का करेगी, फिर उष्मा-वायु और ऊर्ध्व ले जाऐंगी
इससे तुम बलशाली ही बनोगे ऐ मेघ, उचित नहीं है अधिक भारीपन।
मृग तुम्हारा मार्ग प्रशस्त करेंगे, जब तुम गुजरोगे झम-झम करते
सिद्ध तुम्हारी बूंदों को पकड़ते में प्रवीण चातकों को देखेंगे।
और मेघ गर्जन से कदाचित आशंकित
प्रेयषियों को पा पुलकित होंगे।
यद्यपि तुम मेरी खातिर, शीघ्र पहुँचने की कोशिश करोगे,
पर मैं चाहता तुम कुछ यात्रा - मार्ग का आनन्द लो।
सुगन्ध पुष्पों की, मयूर-नर्तन तुम्हारे स्वागत में,
मैं चाहता सब सम्मिलित हों।
दशार्ण मार्ग को नव-सौंदर्य देगा, केतकी की सजीली कलियाँ पीत खिल उठेंगी
ग्राम पीपल के खग नीड़ों में एकत्रित होंगे, वन-हंस कुछ और ठहर जाऐंगे।
तब तुम राजनगरी विदिशा पहुँचोगे, जहाँ तुरन्त प्रेमी सी तृप्ति मिलेगी
वेत्रावती का जल जैसे प्रेयसी के ओंठ, उसके लहराते तीरों पर
प्रवाह का मधुर गर्जन और अधिक प्रफुल्लता भरेगा।
वहाँ निकाई शैल पर तुम कुछ ठहरना, कदम्ब-तरु खिलने का लेना आनन्द
उस पर्वतिका पर नगरी के युवा प्रेयसियों संग मस्ती करते मिलेंगे।
वहाँ तुम कुछ जल छिड़कना, चमेली की कलियाँ खिल उठेंगी
मालिन मुख तेरे जल-बिन्दु से चमकेंगे, जो प्रायः स्वेद से होते हैं।
उत्तर दिशा के अलका-मार्ग में, उज्जैयिनी नगरी के प्रासाद-कोठों को न भूलना
वहाँ नगरी की सुन्दर नारियों की मोहक नज़रें, दामिनी-चमक ज्यूँ छुरी घोंपती।
जब तुम मिलो निर्विन्ध्य को, लहरों पर जल-मुर्गाबी पंक्तियाँ दिखेंगी जैसे मंदिर-घंटियाँ
जैसे नवोढया की कमर बल खाती, प्रथम प्रेम प्रदर्शन में प्रेमी को लुभाती।
ओ भाग्यशाली प्रेमी,
जब मिलोगे काली सिन्धु से जो तुम्हारे वियोग में तड़पती सी है,
वह सिकुड़ गई है जल बिन तेरे, तीर पीले पत्तों ने ढाँक लिया है समस्त।
महान अवन्ती में ग्राम-वृद्ध मिलेंगे
जिनको उदयन की कथाऐं है कण्ठस्थ।
यह जैसे स्वर्ग का एक नायाब अंश,
इसके वासी गुणी-श्रेयस्कारी हैं बहुत।३२।
प्रातः उज्जैयिनी में सिप्रा की शीतल पवन,
कमल-सौरभ से बढाती सारस युग्ल प्रेम-नाद।
रात थकी युवतियों की थकान मिटाती,
जैसे सुघड़ प्रेमी युक्ति से प्रेम-प्रदर्शन करता।३३।
जैसे प्रस्तर जालियों से नारी केश सुगन्धित तैल की खुशबू और मयूर दिखाते मधुर नृत्य
तुम चारु कामिनियों के पद-अलक्तक सुगन्धित, उन सुखकर महलों के दर्शन करना।
तब तुम त्रिलोकीनाथ चण्डेश्वर की पावन-स्थली जाना,
जहाँ प्रहरी स्वामी के सेवक हैं क्योंकि तेरा वर्ण भी नीलकण्ठ जैसा उसके।
इसके उपवन गंधवती की समीर से हिलते, नीलकमल- रज से सुगन्धित
व इसके जलों में क्रीड़ा करती नव-यौवनाओं द्वारा प्रयोग अनुलेपों से महकते।३५।
संयोग से यदि तुम पहुँचों संध्या छोड़कर महाकाल,
रुकना जब तक सूर्य दृष्टि से न हो जाए ओझल।
पिनाकी को समर्पित संध्या-संस्कार में मंदिर-डमरुओं के आयोजन द्वारा,
ओ वर्षा-धारक, तुम अपनी गर्जन के गहन-कंठ के पूर्ण-फल का लेना सुख।३६।
अपने रत्न-नूपुरों से खनकाती जैसे परिमित चरणों से देवदासियाँ, जिनके हस्त थक गए हैं
गरिमा से रत्न-जड़ित मूँठ वाली चँवरों को डुलाती, तुम्हारे पावन जल से प्रसन्न होंगी,
एक प्रेमी के नख-क्षत के आनंद से,
और तुम पर मधु-मक्खी पंक्ति सम निकलती नज़रों से बरसेंगी।३७।
और तुम पर मधु-मक्खी पंक्ति सम निकलती नज़रों से बरसेंगी।३७।
तब नूतन चीनी गुलाब (पिण्ड) सम संध्या-प्रभा में अभिसिक्त
जब भूतनाथ निज नृत्य शुरू करते हैं, वृत्त में, शिव उठाऐं हाथों के।
वन में पूर्ण खोऐं, रक्त-रंजित गज-चर्म पहनने की इच्छा दूर करके,
तेरी श्रद्धा भवानी द्वारा निश्छल दृष्टि-दर्शित, उसके भय अब शांत हैं।३८।
नव-युवतियाँ अपने प्रेमियों के आवास को रात्रि में
राजपथ मिलन को जाती मिलेंगी, दृष्टि-अस्प्ष्ट तम जिसे एक सुई द्वारा छेद सको।
तुम उनके पथ को तड़ित-लेखा से चमकाना, एक पारसमणि पर सुवर्ण-रेखाऐं जैसे चमकती,
पर गर्जना और मूसलाधार वर्षा चकित न करना, क्योंकि वे सहजता से सतर्क हो जाती हैं।३९।
कुछ कंगूरेदार महलों की छतों पर जहाँ धारीदार-कपोत सोते हैं,
वहाँ स्व दामिनी-भार्या संग रात बिताना जो सतत-क्रीड़ा द्वारा अति-क्लांत है।
परन्तु विनती सूर्योदय पर यात्रा पुनः आरम्भ करना, निश्चय ही
जो मित्र की मदद करते हैं, उस सहायता हेतु न करते विलम्ब हैं।४०।
पाजी पति भी सवेरे घर जाते मिलेंगे,
अपनी पत्नियों को समझाते, मोती जैसे अश्क पोंछते।
अतः शीघ्रता से सूर्य-पथ से बाहर निकलना;
वह भी उषाकाल कमल-सर लौट आता उसके सरोज-मुख अश्रु पौंछने को
वह एक अल्प-सुगन्धित न रहेगा कि तुम उसकी
दमकती किरण-उँगलियों को बाधित करोगे।४१।
तुम छाया रूप में भी अति सुन्दर, गम्भीरा के
निर्मल जल में ऐसे आगमन करोगे जैसे चेतना का शांत ताल।
अतः उसकी स्वागत करती नज़रों की उपेक्षा न करना,
उसकी कुमुदिनी सी श्वेत मीनों की विस्मयी उछालों की।४२।
उसके ढलुए तट, घननील जल,
सरकंडों पर कुछ अटका जैसे सरकना
कटि से वस्त्र क्या तेरे लिए कठिन न निर्झरी त्याग,
एक बार चखकर स्वाद उस प्रेयसी सम का ?
सरकंडों पर कुछ अटका जैसे सरकना
कटि से वस्त्र क्या तेरे लिए कठिन न निर्झरी त्याग,
एक बार चखकर स्वाद उस प्रेयसी सम का ?
तुम्हारी फुहारों से महकती सुवास व शीतल पवन, वन-अंजीरों को पका देगी
निज सूंडों से सूंघते गज पुलकित होंगे, व शनै स्वामी की पहाड़ी जाओगे पहुँच।
स्कन्द ने इसे आवास बनाया है, तुम अपने को पुष्प-मेघ बना लेना
और गंगा के पावन जल संग उन पर लगाना फुहार।
वह शशिधर तो है सूर्य से भी अधिक ऊर्जा-धारक,
जो इंद्र के मेजबानों की करता है रक्षण।
तब पर्वतों की गूँज में तुम्हारी गर्जना बढ़ेंगी
व कार्तिकेय-वाहन मयूर को नर्तन हेतु प्रेरित करेगी।
उसकी ऑंखें शिव-चन्द्र ज्योत्स्ना से चमकेंगी,
तथा पुत्र-प्रेम में गौरी उसके गिरे पंख को, कर्ण-फूल बना लेगी।
ऐसे तुम स्तुति कर आगे बढ़ जाना, पर रंतिदेव की
बली रक्त से निर्मित, चमर्ण्वती का कुछ सम्मान करना।
कुछ झुक कर इसका जलपान करना, जो नभ से एक
महीन रेखा सी दर्शित, जैसे पृथ्वी ने पहनी हो एक माला।
नदी पार तुम बनोगे दासपुरा की
मृग-नयनी कामिनियों की नज़रों का शिकार।
जिनकी सुन्दरता कुलांचें भरती हिरणियों सी होती,
श्वेत चमेली की मधु-मक्खियों की गरिमा से बढ़ कर होती।
कुरु नीचे ब्रह्मवर्त से गुजरते, तुम नृप-महारण कुरुक्षेत्र को न भूलना
जहाँ गाण्डीवधारी ने स्वजनों पर असंख्य तीर बरसाऐं।
अपने सम्बन्धियों के मोह खातिर, हलधर ने रण छोड़ा
व रेवती की मादक नज़रों को तज, सरस्वती-पय की अर्चना की।
तुम भी ऐ मेघ, वह जल पी लेना जो तुम्हें अंदर से पवित्र करेगा,
कृष्ण बस वर्ण में करेगा।
वहाँ से निकल कर तुम जाह्नवी को जाना,
जो कनखल निकट मैदानों में आती पर्वतों से निकल।
यहीं से उसने सगर के 60000 पुत्रों के लिए स्वर्ग-सीढ़ी बनाई
और शिव की जटाओं को लिया जकड़।
यदि तुम गंगा-प्रपातों का निर्मल जल पीने की इच्छा रखो तो,
आकाश से तुम्हारी छाया पड़ेगी बहते जल पर।
इससे वह और भी मनोरमा लगेंगी जैसे गंगा-जमुना साथ-साथ रही हो बह।
कस्तूरी-मृग की सुवास लिए,
गंगा का हिमाच्छादित पर्वत मिटा देगा तेरी दीर्घ थकान।
तब तुम सुशोभित होंगे त्रिनेत्र - वाहन श्वेत नांदी के
गीली मिट्टी उखाड़ते श्रृंग पर लगे चिन्ह की तरह।
देवदार शाखाओं के घर्षण से वनाग्नि होती,
जिसकी भीषणता याकों की गुच्छीदार पूँछों को जलाऐ।
तुमसे विनती उसे शांत करना, सहस्र तीव्र बौछारों से
महाजन-अनुकम्पा से, अनेक अभागों के घर भी निर्वाह हैं।
यद्यपि तुम्हारी गर्जना सहन करने में असमर्थ,
व्यर्थ अभिमान में टिड्डी-दल, तथापि तेरी ओर झपटेंगे।
तुम बहुत दूर उनसे, अपने पंख तुड़ाऐंगें,
तुम हँस कर उनको छितरा देना।
थोथा चना अंततः उपहास का ही पात्र है बनता।
तुम आदर तहत नम होकरपरिक्रमा करना
केदारनाथ की, जिसकी स्तुति सदा सिद्ध करते।
अपने पाप छोड़कर भक्त
भगवन-कृपा का पात्र हैं बनते।
बाँसुरी से निकल वायु मधुर लय बजाती,
वन-सुंदरियाँ त्रिपुर पर विजय से गाती आनंदित होकर।
यदि तुम्हारी गर्जना डमरू सम बज सकती हो,
तो प्राणी नाथ की नृत्य-नाटिका लिए रहना तत्पर।५७।
हिमालय के अनुपम सौंदर्य से गुज़रते हुए,
तुम उत्तर दिशा में संकरे क्रोंच दर्रे से निकलना।
यह पथ है वन हंस का, परशुराम की कीर्ति का
और रमणीय जैसे बलि का गर्व चूर करने को,
वामन विष्णु के कदम भरने का।५८।
और ऊपर चढ़ते हुए देवी-दर्पण कैलाश का अतिथि बनना, जिसका
शिखर है कुछ क्षति-ग्रसित दशानन रावण की भुजाओं के दबाव से।
ऊपर नभ-चुम्बी महद शिखर, श्वेत जल-कुमुदिनी सम चमकेंगे
जैसे यहीं पर स्थित हों त्रिपुरारी युगों से।६०।
तब तुम चिकने प्रस्तर सम इसके शुभ्र ढलानों पर फिसलना,
जो नूतन कटे हस्ती - दन्त सा श्वेत है।
वह पर्वत फिर ऐसे लगेगा जैसे हलवाहे ने,
शालीनता से कंधे पर रखा गहरा नीला उपकरण है।६१।
यदि गौरी टहलती मिले पर्वत पर शिव का हस्त पकड़े ,
जिनकी भुज-बंद में हैं सर्प।
तुम अपने को लहर सम कदम में रूपान्तरित कर लेना
और जैसे ही वे आभूषित ढलानों पर चढ़ें, उनसे मिलना वहीं पूर्व।६२।
जब इन्द्र की दामिनी से टकराकर तुम बरसोगे,
स्वर्ग-अप्सराऐं तुम्हारे जल से करेंगी अभिषेक।
ग्रीष्म की ताप में यदि ऐ मित्र, वे तुम्हें आगे न जाने दें,
तुम अपनी भीषण गर्जना से उन्हें, कर देना कुछ भयभीत।६३।
तुम मानसरोवर जल का पान करना, जहाँ खिलतें स्वर्ण-कमल,
और अपने गुह्य रूप से ऐरावत को पुलकित करना।
आर्द्र बयारों से कल्पतरु नव-पल्लव महीन रेशम जैसे अंशुक पहनेंगें,
तुम उस हिमालय के सौन्दर्य का आनंद लेना।६४।
ओ स्वेच्छा से भ्रमण करने वाले,
तुम ऊँँचे पर्वत से अलका को पाओगे न पहचान।
बहु-मंज़िलें महल जैसे सुन्दर वसन पहने गंगा
केश-बाँधे मोती-जाल में, पावस में मेघों से लेती है बहुत जल।६५।
जहाँ मेघों को स्पर्श करते प्रासाद, तुम्हारी महत्ता से ऊँचे होते
व जिसके आभूषित ताल की चमक, तेरे जल-बिन्दुओं से करती स्पर्धा।
जहाँ सुन्दर भित्ति चित्र, तुम्हारे इन्द्रधनुष को मात देते और मादक
कामिनियों के गरिमामयी कदम, नीलांजना चाल से करतें तुलना।६६।
कामिनियों के गरिमामयी कदम, नीलांजना चाल से करतें तुलना।६६।
जहाँ कर-कमल लिए तरुणियाँ, चमेली नव-कुसुमों से केश सजाती,
लोधरा पुष्प-परागकण आच्छादित उनकी मुख-आभा पीत-सुवर्ण सा चमकती।
ताज़े चोलाई-पुष्प उनके केश-बंधों में लगतें, एक सुन्दर सिरिस कर्णों में,
और माँग में कमल कुमुद सुशोभित होते।६७।
जहाँ यक्ष उच्च कुल यौवनाओं को लिए,
प्रासाद कूचों पर भ्रमण करते, जो होते बहुमूल्य रत्न-जड़ित।
लेते लुत्फ़ सौन्दर्य का, कुसुमों की मदिरा पान करते,
मधुर संगीत और करता आनंद वर्धित।६८।
जहाँ सूर्योदय होने पर, मार्ग सब बयाँ कर देते,
मध्य रात्रि बहके चपल कदम मादक यौवनाओं के।
युवा-क्रीड़ा में गिरें भूमि पर मंदर-पुष्प एवं हटें कर्ण लगे
स्वर्ण कमल पल्लव, जिनके सूत्र अभी भी हैं वसनों में।६९।
जहाँ अनुरागी हटाते काम-ग्रसित कम्पित करों से कटि-बंध
एवं रेशमी वसन, बिम्ब-फल सम उन यक्षियों के ओष्ठ,
जो लज्जा-शंका से सुगन्धित चूर्ण चमकते भूषणों पर डालती।
जैसे वे चमक उठेंगे दीपक की भाँति, उचित-
कार्यान्वयन से भी व्यर्थ प्रयत्नों का है परिणाम शून्य ही।७०।
कार्यान्वयन से भी व्यर्थ प्रयत्नों का है परिणाम शून्य ही।७०।
जहाँ विशाल प्रासादों पर अपने मार्गदर्शक पवन द्वारा,
तुम सम मेघ अपनी बौछारों से, रंग-भित्तियों को नष्ट करते,
फिर डरकर शीघ्र ही जालियों से, धूम्र भाँति निर्गम हो जाते।
जहाँ मध्य रात्रि को जैसे ही तुम कुछ हटे, मूंगें चाँदनी-सम्पर्क से चमकने लगेंगे
और किञ्चित मुक्त हुई प्रेमी पति-पाश से, प्रियतमा को शीतलता देंगे।७१।
जानकर कि सर्वश्रेष्ठ रहते हैं यहाँ, कुबेर-सखा कामदेव भी,
अपना मधुप लगा कुसुम-बाण चलाने से डरते।
उनका काम प्यारी रमणियाँ करती, जिनकी मोहक
अदाओं और नयन-बाणों से, प्रेमी बच ही नहीं सकते।७२।
वहीँ कुबेर-प्रासाद के उत्तर में हमारा आवास मिलेगा,
जिसको मेहराबी द्वार और इंद्र-धनुष सी लालित्य से पहचान लेना।
पास ही मंदर तरु है जिसे मैंने प्रेम से पुत्र सम पाला है,
अब वह फलों के भार से झुक सा है गया।७३।
पन्ना-जड़ित शिला की सीढ़ी,
तुम्हें ले जाएगी कमलों से सुशोभित ताल पर।
वन-हंस इसमें जल-क्रीड़ा करते शांत होकर,
इन्हें निकट की मानस ताल में भी विशेष इच्छा न।७४।
इसके कोने में एक छोटी पर्वतिका है बहुत नीली,
नीलम-जड़ित अद्भुत, जिसके चारों ओर कदली वृक्ष हैं।
मेरा हृदय काँपता है स्मरण करके उसे, ऐ सखा,
और अधिक जब वह मेरी प्रिया को बहुत पसंद है।७५।
और वहाँ मध्य में हरिताश्म पत्थर के चबूतरे से,
एक स्वर्ण-दण्ड निकला है जो नवोदित बाँस-पादप से अधिक मोहक है।
उस पर एक स्फटिक पादुका रखी है जहाँ तेरा यह बन्धु संध्या काल बैठता है,
जब वह अपनी प्रियतमा के हाथ पर ताली बजाता, और
नाचने लगता उसके भुज-बंध के नूपुरों की खनक से।७६।
तुम इन पहचान-चिन्हों को अपने उर में रखना, ओ बुद्धिमान,
और पहचान लेना द्वार तरफ लगे सुन्दर कमल एवं शंख से।
जिसकी शोभा निश्चय ही मेरी अनुपस्थिति में मद्धम हुई होगी,
जैसे जब सूर्य नहीं होता तो कमल भी अधिक शोभा न देते।७७।
तुम जल्दी से एक गज-शावक बन उतरना,
उस आनंद-दायिनी पर्वतिका पर, जैसा मैंने वर्णन किया है।
तुम सहजता से महल में चले जाना, मद्धम प्रभा-चमक के संग,
जो जुगनुओं की भाँति करती चमका है।७८।
वहाँ तुम उसे देखोगे यौवन-वसन्त में कमसिन,
उसके दंत जैसे चमेली-कलियाँ, ओष्ठ जैसे बिम्ब-फल।
पतली कमर, गहरी नाभि और हिरनी सी कातर नज़रें,
अपने नितम्बों के भार से सुस्त सी चलती।
उसकी कमर कुछ झुक सी गई है स्तन वहन से,
आह, ब्रह्मा ने उसको नारियों में नायाब कृति बनाई।७९।
उसको तुम मेरा द्वितीय जीवन ही मानना - एकान्त, मितभाषी
चक्रवाकी सम सुबकती, जिसका प्रियतम गया है परदेश।
इन दिवसों के बीतने के साथ, गहन चाह लिए वह नव-यौवना,
बहुत बदली सी मिलेगी, जैसे मुरझा जाते हैं हिम से कमल।८०।
अति-रुदन से उसकी आँखें सूज गई होगी व ओष्ट ज्वलन्त आह से
फट गए होंगे, मेरी प्रिया का चेहरा होगा अंजुली में उसकी।
उसके खुले, लम्बे केश उड़ रहे होगे,
तुम्हारी छाया से तो दयनीय लगेगी और भी।८१।
वह दिखाई देगी दिवस में पूजा- कृत्यों में खोई हुई,
या फिर वियोग से घायल मेरी यादों में डूबी।
या फिर पिंजरे में बंद बुलबुल से पूछती हुई, 'हे मृदुला,
तुझे स्वामी याद हैं, तुम तो उसकी बहुत चहेती थी'।८२।
तुझे स्वामी याद हैं, तुम तो उसकी बहुत चहेती थी'।८२।
या अनाकर्षित परिधान में, अपने
अंचल में वीणा लिए होगी निकालने हेतु मेरे नाम की सुन्दर धुन।
अपने अश्रुओं से गीले तारों को कुछ लय में करते हुए वह,
चाहे स्वयं ही धुन बनाई हो, बार-2 जाती होगी भूल।८३।
या बिछोह-दिवस से लेकर, वह बाकी मासों को गिन रही होगी,
दहलीज़ पर रखे पुष्पों को फर्श पर क्रम से बिछाते हुए।
या हृदय में बहुमूल्य -क्षणों के आनंद की कल्पना संजोते,
ऐसे ही अपने पतियों की अनुपस्थिति में,
सुबकती नारियों की दशा होती है।८४।
दिवस में एकाकीपन की छुरी,
तुम्हारे इस मित्र को इतना घायल नहीं करती,
पर दुःख में रात्रि भारी गुजरती है, तन्हाई में हूँ डरता।
अतः विनती है उस पतिव्रता रमणी से, मध्य-रात्रि मिलना मेरे सन्देश के साथ,
खड़े होकर निकट खिड़की के जहाँ वह फर्श पर जागी लेटी मिलेगी, सांत्वना देना।८५।
वेदना-ग्रसित वह करवट लिए, सिकुड़ी सी अकेली,
बिस्तर पर लेटी मिलेगी, जैसे बालचंद्र पूर्वी दिशा में।
जब मैं होता उसकी रातों में, पूर्ण-आनन्द के पंख लगे होते,
अब वे अश्रुओं से भारी हैं, कोई आनंद न है।८६।
एक गहरी आह से उसके पंखुड़ी से ओष्ठ फट गए होंगे,
तुम उसे देखोगे जल्द-2 अनुष्ठान-स्नानों से शुष्क, केशों को हटाते।
वे गालों पर पड़े होंगे, नींद की इच्छा लिए अंत में स्वप्नों में मेरे संग होगी,
लेकिन एक झटका आशाओं को बहा देगा, आंसू न रुकेंगे।८७।
बिछोह के प्रथम दिवस उसके केश पुष्प-जूड़े को हटाकर,
जो एक चोटी में सँवरे हुए थे,
खोलूँगा जिनको मैं इस अभिशाप-समाप्ति पर ही।
तुम देखोगे उसके लम्बे बढ़े नख,
जो उलझे बालों को स्पर्श करने से पीड़ा देते,
और बार-2 कपोलों से हटाए जाते हैं।८८।
गत आनन्दों को स्मरण करके उसकी आँखें,
झँझरियों से नज़र आती चन्द्र-किरणों पर होगी,
और एकदम दुःख में हटा लेगी वह।
नेत्रों के भारी अश्कों को छिपाकर वह, कभी जागती,
कभी स्वप्न में होगी, जैसे घटा के दिन कुमुदिनी न खुली है, न बंद।८९।
अपने समस्त आभूषण तजकर प्रियतमा,
गहन दुःख में क्षीण काया को जगाए रखेगी
हालाँकि बारम्बार वह अपने को बिस्तर पर डालेगी,
वह दृश्य निश्चय ही रुला देगा तुम्हे भी।९२।
जानता हूँ तुम्हारा हृदय मेरे लिए प्रेम से भरा,
मेरे वियोग से ही उसकी यह दशा हुई है,
बनाकर न कहता हूँ, तुम स्वयं देख लोगे शीघ्र ही।९३।
बनाकर न कहता हूँ, तुम स्वयं देख लोगे शीघ्र ही।९३।
शोभा रहित उसकी तिरछी नज़रें अब केशों से रुक गई होगी,
नयन मटकना भूल गए होंगें, मदिरा से अब न होगा सम्पर्क।
पर मुझे आभास, अब उस मृगनयनी की बाँई आँख फड़क रही होगी,
नीलकमल-सौंदर्य बढ़ गया होगा व अधिक, मीन हिलाती होंगी जब।९४।
उसकी बाँई जाँघ पर मेरे नख का चिन्ह होगा
और मोती आभूषण वहाँ से हटा दिए होंगे।
प्रेम-क्रीड़ा पश्चात मेरे हाथों के मृदु स्पर्श से,
नाज़ुक केले के तने सी पीली काँपी होगी।९५।
हे वर्षा दायक, यदि उस समय वह खुशियाँ पाए,
विनती उसके निकट एक रात इन्तज़ार करना, रोककर मात्र निज गर्जना।
प्रेम-स्वप्न में यदि उसके हाथ मेरे गले में बाहें डाले हो मृदु लता सी,
तो यकायक जागने और न पाने पर होगी निराशा।९६।
जब वह जागेगी, होगी तरोताज़ा सुगन्धित चमेली कलियों से,
और तुम्हारे जल की फुहारों की मंद पवन से।
वह खिड़की से तुम्हें निहारेगी, तब तुम दामिनी को
अंदर छिपा, सम्बोधित करना विनीत झंकृत भाव से।९७।
ओ सधवा तरुणी ! जान मुझे, मैं तुम्हारे पति का प्रिय मित्र पावस मेघ,
तुम्हारे पास उसका सन्देश लाया हूँ जो छुपा है मेरे दिल में।
मैं गंभीर पर भली वाणी से घायल मुसाफिरों की चाह,
दुःखी पत्नियों के उलझे केशों को सुलझाने को सुनाता हूँ,
जो बहुत दूर स्थानों से घर आने की इच्छा रखते।९८।
मिथिला राजकुमारी ने जैसे पवन-पुत्र को देखकर
अपना चेहरा उठाया था, वैसे ही वह तुम्हें देखेगी
उसका हृदय बड़ी उत्सुकता से पुष्प भाँति खिल उठेगा,
बड़े सम्मान के साथ तुम्हारा स्वागत करेगी।
प्रिय मित्र, वह तुम्हे बड़े ध्यान से सुनेगी,
मित्र द्वारा लाया पतियों का समाचार,
पत्नियों के लिए बहुमूल्य वस्तु है पुनर्मिलन की।९९।
ओ चिरंजीवी, प्रार्थना और अपने सम्मान हेतु,
तुम उसको यूँ बोलना - तुम्हारा प्रिय रामगिरि के तपोवन में रहता।
उसने पूछा है, ओ कोमल नारी कि तुम्हारा सब ठीक है,
ऐसे सांत्वना शब्द दुःखित प्राणियों को पहले बोले जाने चाहिए।१००।
बहुत दूर एक विपरीत आदेश से उसके मार्ग बाधित हैं
पर उसका शरीर अंदर से तुम्हारे साथ एक ही है।
कृश से कृश, दुःख से और त्रस्त, आँसुओं से और अश्रुपूर्ण, चाह से
और अनंत चाह, तेरी गर्म आहों संग उसकी अति-दीर्घ आह लगी है।१०१।
पहले जब तुम्हारी सखियाँ तुम्हारे कान में फुसफुसाती होंगी,
अब क्या कहा जा सकता है भला उच्च स्वर में?
वह तेरा मुख स्पर्श करना चाहता, जो तुम्हे श्रवण, आँखों से न दर्शित
मेरे मुख से तुम्हारे लिए बोलता है, एक गहरी चाह लिए हृदय में।१०२।
कि श्याम-लताओं में तेरी आकृति देखता हूँ, दृष्टि मृगी की चौकन्नी चक्षु में,
तेरे मुख की शीतल रोशनी चन्द्र में, तेरे केश सुन्दर मयूर-पंखों में।
तुम्हारी भोहों के शालीन वक्र निर्झर के छोटे घुमावों में
पर अहोभाग्य ! मैं तुम्हें सम्पूर्ण नहीं देख पाता एक वस्तु में।१०३।
ओ मेरी प्रिया, बारिश-नीर पड़ी
ऊष्म पृथ्वी की ताज़ी सुगंध, तुम्हारे मुख की सुगंध है,
कामदेव के पाँच मद-बाणों से पूर्व ही घायल,
सुबकते, तुमसे दूर को और घायल किए हैं।
कृपया सोचो, इस ग्रीष्म समाप्ति पर मेरे दिन कैसे गुजरते होंगें,
पावस मेघ आदित्य-कांति अल्प कर देते, लघु अंशों में सर्व-दिशा फ़ैल जाते।१०४।
चमकती धातु से मैं तुम्हे शैल पर उकेरता हूँ, क्रोध कल्पना से
पर जब मैं चाहता तुम्हारे चरणों में स्वयं को उकेरना।
एकदम मेरे नेत्र सदाबहार अश्रुओं से मंद हो जाते, आह !
कितना कठोर भाग्य मेरा, यहाँ भी मिलन न हो पा रहा।१०५।
बहुत कोशिश करके मैं तुम्हें जागृत-स्वप्न में पाता हूँ,
मैं शून्य में भुजाऐं फैला देता हूँ, तुम्हारे प्रेम को गले लगाने हेतु।
क्या वे मोटे मोती सी बूंदें, तनय पल्लव-फूटों पर एकत्रित हुई नहीं है,
निश्चय ही क्या वृक्ष-देवियाँ अश्रु न बहाऐंगी मेरे दुःख देखकर ?१०६।
अचानक हिमालय की समीर खोलती, देवदार के
बंद -पत्रों की कलियों को व खुशबु बढ़ती है दक्षिण ओर।
बयारों को प्रेम से कंठ लगा लेता हूँ, ऐ शुभांगी ! कल्पना करते
कि उन्होंने तुम्हारे अंगों को किया स्पर्श होगा।१०७।
यदि ये लम्बी रातें केवल एक क्षण में समाहित हो जाऐं,
यदि ग्रीष्म का दिन मद्धम ऊष्मा से हर समय मात्र चमकता रहे।
ऐसी अपूर्ण रहने वाली प्रार्थनाऐं करता मेरा हृदय
एक रक्षा-रहित शिकार ही तो बनता है, ओ मेरी
दीप्त-नेत्री प्रियतमा !, तुम्हारे वियोग की क्रूर वेदना से।१०८।
किन्तु गहन चिंतन में आंतरिक शक्ति से,
मैं इसे सह जाता हूँ, ओ बड़भागी !
तुम भी अपने को घोर पतन में पड़ने से रोकना।
किसके साथ रहती हैं सदा खुशियाँ या कष्ट ?, धरा पर मनुज-
अवस्था एक चक्र-परिधि सम, जो पुनः-२ ऊपर नीचे है जाता।१०९।
जब शेषशायी विष्णु जागेंगे योग-निद्रा से, मेरा अभिशाप भी होगा समाप्त
आँखें बंद करो और ये चार बाकी मास भी गुज़र जाने दो।
तब शरद चाँदनी रातों में, दोनों हर इच्छा का भरपूर आनंद लेंगें,
जिसकी हमने वियोग समय में कल्पना की थी।११०।
आगे उसने कहा- एक बार तुम मेरी गर्दन से लिपटी जाग गई थी
और अचानक रोने लगी और जब मैंने बारम्बार तुमसे कारण पूछा।
हँसकर तुमने यूँ कहा, तुम धोखेबाज,
मैंने अपने स्वप्न में तुम्हे अन्य नारी संग प्रेम करते देखा।१११।
ओ कृष्ण-नयिनी !
अब इस पहचान के बाद कि मैं ठीक हूँ, मुझ पर संदेह न करना,
कि 'नज़र से ओझल मन से ओझल' सम उक्ति, अति-भला न किया करती।
अरे नहीं, आनंद-अल्पता और गहन इच्छा जगाती,
प्रेम-भंडार में एकत्रित होती रहती।११२।
ऐ मेरे मित्र, विश्वास है कि तुम यह नम्र सेवा मेरे लिए करोगे,
मैं नहीं स्वीकार करता तुम्हारी गंभीर मुद्रा को इन्कार।
निशब्द तुम, चातकों को अपना जल देते, जिसकी वे करते गहन इच्छा,
उत्तम-जन अन्यों का मात्र प्रयोजन समझकर ही, करते काम बना दिया।११३।
ऐ प्रिय सुहृद !
उर में ऐसी इच्छा लिए जो किंचित अद्भुत लगे,
मित्रता खातिर या करुणा कर मुझ वीराने पर,
ओ मेघ, उड़ जाओ सभी भूमिओं में जहाँ तुम चाहो।
पावस में महान शौर्य महिमा, यश लिए, तुम भी
दामिनी से एक क्षण मात्र दूर होना न चाहोगे।११४।
प्रयास किया है महाकवि कालिदास के इस महाकाव्य को, अपने शब्दों में उकेरने का। मूल संस्कृत से तो नहीं अपितु Penguin Classics की अंग्रेजी अनुवाद पुस्तक 'The Looms of Time- by Kalidas' से। बहुत अल्प अभिव्यक्ति, महाकवि की इस महान मूल, अनुपम कृति की तुलना में। सारे भाव उन्हीं के हैं, मैंने तो जैसे-तैसे अपने शब्दों में बाँधने की कोशिश है। आशा है, पाठकगण इसे मेरे लिए महद, कालि के लिए सहज, प्रयास को आगे बढ़ाने के लिए प्रोत्साहित करेंगे। यह कृति मेरे पुत्र सात्विक के 24.12.2014 के 12 वें जन्म-दिवस पर हिंदी-प्रेमियों को मेरी भेंट है।
धन्यवाद।
पवन कुमार,
25 दिसम्बर, 2014 क्रिसमस, समय 13:00 अपराह्न
(रचना लेखन-22 दिसम्बर, 2014 रविवार, नई दिल्ली, सुबह 10:46 प्रातः)
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