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Wednesday, 17 December 2014

वृहद् -चिन्तन

वृहद् -चिन्तन


कैसे मैं सर्वस्व ही निचोड़ूँ, जिसको हम कहें संजीवन

क्या कसौटी इस अवतरण की, और इसे करूँ संपूर्ण?

 

कैसे यह वर्धित हो, जीवन की सर्व-संभावनाओं से पार

भरे साहस, लांघे दुर्गम-असम, व बीहड़ पर्वत-अरण्य।

क्या इसका उत्पादकता-पैमाना है, व कैसे करें विस्तृत

कैसे करें इसे, एक बड़ी प्रयोगशाला में ही परिवर्तित?

 

अति गहन शब्दों का प्रयोग, जग-मनीषियों ने है किया

सिद्ध-तथागत, मुमुक्षु-त्रिनेत्र, अरिहंत, मूर्धन्य-निष्णात।

व्यासकृत महाभारत में विष्णु सहस्र-नाम, मीमांसा शंकर की

हिंद में हर नाम स्व में पूर्ण-प्रेरक, यदि जिए पूर्ण कोई॥

 

कौन कृत है अमोघ शब्दावली, ध्रुव भाँति एकनिष्ठ होती

क्या इनका अर्थ जीवन में है, यूँ ही तो गुणवत्ता न होती?

मौलिक चिंतन, शब्द-गठन, और निराकार परब्रह्म ज्ञान

सर्वज्ञ-धर्मज्ञ, ईश-ओम, चितवन, रत्नाकर व हिमालय॥

 

मर्मज्ञ देते गूढ़ार्थ, बुनकर वर्णमाला के ४४ स्वर-व्यञ्जन

कैसे बनती है समृद्ध भाषा, सार जोड़ते कुछ नए शब्द?

तर्पण अपने गत पूर्वजों का, हमें उनसे रखता है युजित

सब अद्य परिश्रम-घड़ित, हमारा भी है अधिकार कुछ॥

 

सब यहाँ निम्न-उच्च मन-स्वामी, स्वभावानुसार व्यवहार

मंडन मिश्र सम तत्वज्ञानी, जो शंकर से भी करते वाद।

भामती सी मिले सहचरी तो, अनुकूल सहायता-परिवेश

गोपीचंद की माँ मैनावती, जो बेटे को भी दिलावे जोग॥

 

वृहद लक्ष्यी वर्तमान -परे देखते, व प्रलोभनों से दूर रहते

आदर्श जग-क्रिया कैसे हो स्थापन, इस हेतु प्रयास करें।

भृतृहरि से चिंतक, जिनकी अमृतफल ने दिशा दी बदल

 छोड़ा सिंहासन व रानी पिंगला, लक्ष्य निकालना श्रेष्ठतम॥

 

क्या बनाता जग-निर्मोही, जो है ऊपर उठना स्वार्थ से

अविरामी घोर तप में, दशानन भाँति शिव को है मनाते।

पवित्र उद्देश्य सर्व-विकास, मेरा सकल है जग-समर्पित

जीवन जोड़ता दूजे से, बहुमूल्य निर्माण में है सहायक॥

 

छोड़े बुद्ध- महावीर ने, अपने परिवार यौवन-चरम पर

थी वह क्षुधा विचित्र, जगत-सुख को न देती बहु-महत्त्व।

प्राण-समृद्धि व परमानंद-चेतना, तब बने बड़ा प्रयोजन

पूर्णतया अलुब्ध ही, यायावरी यात्रा पड़ते हैं दूर निकल॥

 

पाणिनि अष्टाध्यायी ग्रंथ में, समझाते हैं भाषा-व्याकरण

संस्कृत भाषा है अति समृद्ध, हर शब्द में भरती प्राण।

पर जीवन नाम तक ही न है सीमित, तुमसे माँगे सर्वस्व

कैसे न्याय हो यही विडंबना, यह क्षुद्र मन भी व्यथित॥

 

कौन वाणी-प्रवाह के पथिक, हर शब्द निचोड़ डालते

चिंतक अंतः-प्रवृत्तियों के, जो हर पहलू में सार भरते।

कोई सुने तो अच्छा, न तो कलम से, उद्गार उकेर देते

कुछ निर्मल आदर हैं करते, काल-खण्ड याद करते॥

 

उद्गीत फूँटें कंठ-स्वर, खलील जिब्रान सी कृति अनुपम

बनते चैतन्य महाप्रभु सम, जो कृष्ण-धुन में रहते लुप्त।

स्व जीवन धन्य करने का, मनुजों ने ध्येय बनाया है कुछ

एक नरेंद्र विवेकानंद बने, चाह रामकृष्ण लेती ही ढूँढ़॥

 

नागार्जुन-फक्कड़पन, चित्तवाणी ज्योतिर्मय कबीर सम

रत्नाकर वाल्मीकि बना, अनुपम रामायण करता रचित।

रत्नावली-रसिक तुलसी, पत्नी-फटकार से सुलक्ष्य-निरत

विद्योत्तमा कालिदास दुत्कारे, कुशल हो ले भार्या-सुख॥

 

कौन वे शुभ-चिन्तक, हमें खड़ा करने में सहायक बनते

वे आलोचक हमारे मित्र, जो क्षुद्रताओं को समक्ष करते।

देखता अनुपम संभावना, बाल चंद्रगुप्त में उखाड़ना नंद

कई चाणक्य यहाँ मौजूद, आवश्यकता ललकारना बस॥

 

पुरा-चिंतकों ने समाधि में ही, अनुपम कृतियाँ की निर्मित

बस बैठ जाते परम ध्यान, सदा साथ देतें कागज़-कलम।

वृहत्कथा से अनुपम ग्रंथ-रचक, गुणाढ्य भी यहाँ जनित

दंडी ने दृष्टि-चिंतन से, दश-कुमारचरित्र से दिए साहित्य॥

 

हुवेन्त्साङ्ग से यात्री, ज्ञान-सुधा तृप्ति को करें वृहद-भ्रमण

बैठते हैं सक्षमों के चरण, ग्राह्यी-स्वभाव होते लाभान्वित।

अनेक जीवन हैं दाँव लगाते, अनुभूति पाने एक विलक्षण

इस मरने में भी अपना मज़ा, वही तो है सचमुच जीवन॥

 

अनंत-विशाल, भूगर्भ-ब्रह्मांड, गगन-गंगा, महा-कृष्ण छेद

नभ-ऊँचाई, महासागर-गहराई, सर्व दिशा, छोर के पार।

शिव-तांडव, सृष्टि-विश्वकर्मा, विप्लव-उत्तुंग तरंगें, भवंडर

चक्रवात, विश्व-वृत्त, जीवनी-संग्रह, इतिहास व कई विषय॥

 

क्या है मानव की ज्ञान-गुत्थी, जो उसे न बैठने देती शान्त

कैसे है बनाते पथ निज हेतु, औरों का भी होता सहायक।

साहसी कर्त्तव्य समझते, दूजों को न देते उलाहना-अवसर

प्रमाद-मूर्खता में प्राण बीता हेय, जरूरत है अनुपम-कर्म।



पवन कुमार,
17 दिसम्बर, 2014 समय म० रात्रि 22:45 बजे 
( मेरी महेंद्रगढ़ डायरी दि० 11 नवम्बर, 2014 प्रातः 9:22 से ) 

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