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Saturday, 23 May 2015

निरोध-कर्म

निरोध-कर्म 


कैसे समझे कार्यशैली, यह जग अपनी प्रकृति से चलता

सब पात्र यूँ मात्र बदलते रहते, नवीन पुरातन हो जाता॥

 

आशा थी कि यह नव-शिशु लाएगा, नव-संभावनाऐं कुछ

वह तो तनु-निर्मल, पावन-जिज्ञासु, ग्रहण करेगा ही शुभ।

नवप्राणन, उच्च-शुभ परिवर्तन, हर कोई जीवन में चाहता

जीव का विकासवाद, नव-पीढ़ियों में है नूतन-गुण भरता॥

 

दुर्लभ प्राण हर पीढ़ी का, आया बनकर सफल प्रतियोगी

कितने जीव नष्ट हो जाते, माता के गर्भ-धारण समय ही।

सक्षम को मिलता सौभाग्य, रहेगा माँ संग गर्भ-काल तक

सुरक्षा कवच में विकास करता, अमुक रूप में निर्गमित॥

 

वह प्रतिबिंब अभिभावकों का, होता शुक्राणु-अंड संयोग

माता-पिता के वंशाणु, प्रतिस्थापित हो करेंगे तब उद्योग।

कहीं तात कहीं मात के गुण दर्शित, पर आधे-आधे होता

अभिभावक ही रचना करते स्वरूप, भ्रूण विकसित होता॥

 

बनते माता-पिता के भोजन-जल से, उनके गुण करें ग्रहण

माता-गर्भ सुपरिवेश, शिल्प-शाला, जहाँ निर्मित होते सब।

निर्माण प्रक्रिया पर एक पूर्ण नज़र, व मूर्त विकसित होती

बाहर प्रेषित है जग में श्वास लेने, जीवन हो सुफल भुक्ति॥

 

माना कि माता-गर्भ में, किंचित होती विसंगतियाँ यदा-कदा

व्याधि या कुपोषण से, कभी भ्रूण असमय मृत्यु-ग्रास होता।

कुछ सामाजिक रूढ़ियाँ भी, भ्रूण-हत्या बढ़ावा दे अनुचित

कल्याणक विज्ञान-तकनीकों से, लुब्ध स्वार्थी करते अहित॥

 

 

कुछ शिशु गर्भ में ही वधित, अवाँछनीय गिरा दिए हैं जाते

नित्य गर्भ-निरोधक उपाय, बहु-संभावित जीव हटाए जाते।

कदाचित यह उचित भी, वसुधा पर जनसंख्या हेतु नियंत्रण

कुछ युवा सुख-उपायों से, भ्रूण-भार से चाहें मुक्ति-जरूर॥

 

शायद मानव ने ही प्रजनन को, युवा-सुख से किया पृथक

प्रकृति में अन्य जीव, नव-जीवन हेतु ही इसे करते प्रयोग।

न होते ह्रास नित्य-वासनाओं में, रक्षा वीर्य-ऊर्जा की करते

यह सब हेतु स्थान, अतिरिक्त संख्या-निर्धारित आदतों से॥

 

प्रकृति-लब्ध मनुज को, सदा युवा-सुख लेने की स्वतंत्रता

दुर्भाग्य, किंचित सुख क्षण हेतु वह अपने को है खपाता।

माना ये क्षण सदा, नव-जीवन संभावनाओं से पूरित होते

कुछ अन्वेषित उपायों से, जन्म-संख्या नियंत्रित हैं करते॥

 

निश्चित ही हम नव-जीवन रोधक, बहु-संभावना रोक देते

शायद भरने को उनमें अनुपम गुण, होंगे हमारे ही जैसे।

भाग्यशाली ही लेते जन्म यहाँ, किञ्चित बड़ा उत्सव होता

कुछ को अनमने से स्वीकारते हैं, जीवन-वृद्धि यत्न होता॥

 

वह नवजीवन आ गया है तो, क्या उससे हम आशा करते

अभिभावक तो किंचित उनको सर्वशक्तिमान- बुद्धिमान,

समस्त कर्म- सार्थक व निपुण बनाने की कोशिश करते।

यहाँ माता-पिता चाहे जैसे भी हों, संतान हेतु सुयत्न करते

शिक्षित-सबल, धनी, विवेकशील-सुयश कामना हैं करते॥

 

सबका प्रयास आदर्श समाज, यद्यपि वयस्क स्व-कर्म हीन

पर संतान हेतु उत्तम ही सोचता, करेगा कुछ अच्छा महीन।

पर यह तो आकांक्षा ही है, बाह्य वातावरण भी अति-विस्तृत

घर-बाहर के सब अनुभव, घन छाप छोड़ते नव-शिशु पर॥

 

कैसे हो पूर्ण-विकास, जब अभिभावक व बाह्य-परिवेश क्षुद्र

उनकी माना शिशु मंगल-कामना, पर न सुधार स्व-आचरण।

वही व्यवहार शनै शिशु में प्रवेश होता, गहन प्रभाव है जमाता

उसकी प्रकृति भी बनती पूर्वों जैसी, जिनसे अधिक न आशा॥

 

फिर क्यों शिशु दोषी, जब नहीं वयस्क-जग नियमन सुधार

बड़ा हो दोष-कदाचार लिप्त, अमर्यादित हो करे बलात्कार।

क्या नहीं सबका कर्त्तव्य, बनाना परिवेश तब एक सुगुणालय

फिर उन सबमें भी उत्तम निकलेंगे, अंकुश अवाँछितों पर॥

 

जैसे हम हैं शिशु बनाते, क्यूँ न आदर्श-परिवेश में निवेश

जिसमें वयस्क संहिता-प्रतिबद्ध, और निर्मल सोच वर्धन।

हम क्यों मौका ही दें, उस बालक को बनने को अपराधी?

बहुत कुछ यहाँ वयस्क-समाज देन, वह बस है सहभागी॥

 

कुछ तो अन्वेषण चाहता, क्यों अपराध-प्रवृत्ति चारों ओर

क्यूँ कुचेष्टा मनन करता है, एक बालक बनते-२ किशोर?

दिन-प्रतिदिन देखते-सुनते, कई बलात्कार- हत्या मामले

बहुदा घृणा होती है मानव की अधम-गति और सोच से॥

 

क्यों बस दुर्बल-दमित पर, पूर्णाधिकार की ही नर-प्रवृति

जबकि ज्ञात है, वे सब भी हाड़-माँस के पुर्जे एवं सुकृति।

क्यों समझते हैं जो हम चाहें वही हो, व हमारी मानें सब

जब अपने से बलवान समक्ष, तो सबकी जाती नानी मर॥

 

असभ्य-पाश्विक शैली हैं, क्या यही अनुपम मानव-कृति?

कहाँ गई है सोच उनकी, स्वयं को उच्च समझना प्रवृत्ति।

बड़प्पन असंभव कुत्सित सोच से कि, अन्य तुमसे हैं निम्न

अधिकार ही उनकी बुद्धि-देह, धन-सोच, साधन-श्रम पर॥

 

 

बड़ा वो है जो बड़े कर्म करे, जन्म से कोई न होता महद

महाभारत के यक्ष-प्रश्न शायद नहीं सुने, निर्वाह में असल।

भ्रांत-अंध, मूर्ख-दृष्टि, अज्ञान-वाहक स्व को कहते सबल

न ज्ञान विज्ञान-दर्शन का कोई, न ही विवेक-सुव्यवहार॥

 

क्यों न समाज धिक्कारता उनको, क्यूँ समूह पक्ष में आते

क्यूँकि अपना, सब अनुचित भुला, लठ ले खड़े हो जाते।

कितनी पीड़ा होती मन में, सोचा है पीड़ित-समूह में भी

क्यों न खड़े हों वे भी स्वाभिमानी, मरने-मारने तब सीधी?

 

अति सहन करते ये त्रस्त जन तो, किंतु कदापि मूर्ख नहीं

बेहतर नागरिक सम रहना चाहते, अत्याचार न है नियति।

एक सोच उन्नत सबके हितार्थ हो, जरूरी है देश-विकास

वरन रह जाएगा असभ्य-अंध, अधम एवं संस्कृति-नष्टक॥



पवन कुमार,
23 मई, 2015 समय 15:00 अपराह्न 
( मेरी डायरी 13 जून, 2014 समय 9:59 प्रातः से ) 

Sunday, 17 May 2015

उद्गम-उद्भव

उद्गम-उद्भव


भाव-समग्र, उच्च मन-विचार, होवे प्रखर मानुष-आत्मबोध

समृद्ध स्व-जिजीवाषा जीवन की, पारितोषिक में हो प्रमोद॥

 

कानन-पिक की मधुर कुहुँ-२ से, सबका मन होता पुलकित

मयूर-नृत्य प्रिया आकर्षण को, उल्लास जगाए बन प्रमुदित।

देख शुक का अप्रतिम हरित सौंदर्य, व चित्तचोर बोली टें-टें

प्रकृतिमय उर-मन हो जाता, माँ गऊ देख वत्स की मैं-मैं॥

 

धरा आगोशित विपुल आकाश से, जैसे कक्ष में एक गुब्बारा

है अनुपम नीलिमा महा-छतरी की, मानो रक्षा-कवच प्यारा।

भास्कर, चन्द्र, ग्रह, उपग्रह, राशियाँ अनन्त दूर तक छितरित

हम बैठे दूरस्थ, मतिमंद, प्राकृतिक आश्चर्यों से अति चकित॥

 

नित्य नूतन प्रकृति का उद्भव है, सजीव बनाती मन-उत्कण्ठा

मन उबासी न रहे, महद से सम्पर्क, प्राप्त ज्ञान हो पराकाष्ठा।

हर नव दिन पूर्व से किञ्चित भिन्न, चन्द्र अपनी कला है सजाता

पल-२ अपने ही ढ़ंग का होता, मन भी हर क्षण भाव रचाता॥

 

मौसम बदलते ही रहते है, बाहर निकलते जलवायु परिवर्तन

स्थिति-प्रतिस्थापन भिन्न रूप, नव-पल्लव पुरातन का दर्पण।

जीव-२ में स्थूल-सूक्ष्म विविधता, हर पादप के पृथक किसलय

पादप-जीव विज्ञान अति सम्पन्न, खींचे अनायास करे मधुमय॥

 

प्रकृति प्रदत्त विविधता रहस्य, मनीषियों का है चिंतन-विषय

जितना मनन उतनी गहराई, वैज्ञानिक खोजे ब्रह्मांड-रहस्य।

कितने जीवंत पृथ्वी से और विश्व संभव, ज्ञान भी कैसे निर्मित

अतीत महा-धमाके से अद्यतन -यात्रा, यूँ इतनी न परिचित॥

 

स्तर-उच्च व दृष्टि दूरस्थ है, मस्तिष्क कक्ष प्रयोग बहुलता से

सरस रचना अति-मनभावन, जब सम्पर्क जग-विपुलता से।

उच्च शैल के शृंग पर गमन प्रवृत्ति, सदा जीवधारियों में रही

ऊँची देहली, उच्च-अट्टालिका, गगन चूमना अभिलाषा रही॥

 

उच्च मनोदशा है उन्नयन प्रतीक, ज्ञान-रन्ध्र खुले हुआ सम्पर्क

स्व-लघुता का महद में परिवर्तन, कायान्तरण है न कोई दर्प।

ब्रह्म को जो नर मनन कर सकता, परिधि नहीं बंधन करने की

कृत्रिम उद्भव तो अल्प-स्थायी ही, ज्ञान चेष्टा ही मुक्त करेगी॥

 

स्नेही, समभाव, एकीकार, विशालोर विश्व-रूप बनने में सक्षम

अपूर्वाग्रही, सर्व-हित विचारक, अविराम, चिंतक है श्रेणी प्रथम।

प्रतिमान वह समग्रता-भाव का, सकल जग उसमें सकता समा

हर जीव हेतु मृदुल भाव, समरेखी, कुंकुम सी शीतलता बरसा॥

 

प्रश्न महद है स्व निखरण का, अद्वितीय भाव विमल मन-तन

स्तुति-अभिलाषा न अधिक रूचि, बस परिष्कार हेतु ही यत्न।

अपने स्तर का हो एक ऊर्ध्व उत्थान, महद प्रयत्न, शक्ति-पुञ्ज

क्षीणक-बाधक-निन्दक को छोड़े, शांति-गृह बने हृदय-कुञ्ज॥

 

एक चरम-अवस्था समाधि जीवित, उच्च प्रवृत्ति जीवन लक्ष्य

बिंदु चक्षु मनोहर, दीनदयाल, अधमता त्याग व पुण्य-भक्ष्य।

मानव जीवन पावनता का उद्घोषक, संसृति है सबकी साँझी

त्रिवेणी-संगम पर मिले जन-समूह, कृषक-ज्ञानी और माँझी॥

 

तारणहार, उत्प्रेरक, मृदुल-भाव धर्ता, विकासोन्मुखी निर्मोही

वह विकसित सब विधा में अनुपम, विजित प्रयत्न से अद्रोही।

संचित सब ऊर्जा करता है, पर बाँट समर्थ सब शरणार्थी को

सब कुछ समर्पित है समग्रता हेतु, तन-मन-धन कृतार्थी को॥

 

विकसित मन उच्च-दशा प्रवेश, समुचित व्यवहार सबके संग

सबको स्वीकृत प्रतिभा-प्रतिबद्धता, न हो अनावश्यक तरकस।

परम सत्य इतना भी न सरल-सहज, समस्त अवरोध होना पार

दुत्कार समय की सबकी रग भाँजती, परीक्षा करती उपकार॥

 

अति महत्वाकांक्षा उच्च- परिणाम, स्नेहिल हृदय विश्व-कल्याण

जो लिया पुनः यहीं किया समर्पित, भाव पवित्र है परम ध्यान।

दिग्विजय सी सब कुचेष्टाओं पर, जितेंद्रिय भाव मन-देह उद्भव

तज शिथिलता ओ बुद्ध, विषाद पार जा, विप्लव लाँघ पा उद्गम॥



पवन कुमार,
17 मई, 2015 समय 17:23 अपराह्न
(मेरी डायरी 15 मई, 2015 समय 8:25 प्रातः से )   

Sunday, 10 May 2015

तमन्ना

तमन्ना 

ओ मेरी मन-गुंजन, कुछ मृदुल जीवन-स्पंदन कर दे

वसंत-सुरभि आ, यह मन-मस्तिष्क पुलकित कर दे॥

 

बैठा एक असमंजसता में, आकर कोई पुनः जगा दे

जाऊँ जाग, आऊँ होश, ऐसी कोई तू ललक जगा दे।

कुंडलिनी सोई पड़ी, उसकी शक्ति कोई दिखा दे

स्व-पहचान पा जाऊँ, आकर कोई दर्पण दिखा दे॥

 

महबूब-मिलन की तमन्ना, कभी आकर पूरी कर दे

प्रियश्री-मिलन के हर्ष-अहसास का परिचय करा दे॥

 

श्रेष्ठ उल्लास-ऊर्जा, प्रयास-बुद्धि का संयोग करा दे

निरत गतिमान-कर्मठ रहूँ, तू तन्द्रा को दूर भगा दे।

जीवन का सकारात्मक-जागृत पक्ष, कोई समझा दे

मन में रहे विवेक-चेतना, उत्साह को संगी बना दे॥

 

मैं तेरा व तू मेरा, आ सब भाँति के भेद ही मिटा दे

सब हृदय-दूरी पटे, सकल जग एक घर ही बना दे।

मम आकांक्षाओं को पर लगा, सब भीत दूर भगा दे

दुर्बलता का कर शमन, क्षमता का आकार बढ़ा दे॥

 

यूँ नहीं लेटा रहूँ एक शव सम, जीवन-सार समझा दे

किंकर्त्तव्य-मूढ़ता पूर्ण हटा, सब-कर्म याद दिला दे।

जीवन सार्थक तो तभी बने, प्रश्नचिन्ह चित्त से हटा दे

अन्य शेष रहें अहम-प्रश्नों का भी उत्तर समक्ष ला दे॥

 

करूँ जीवन-विस्तार, विभिन्न कलाओं का सार तू दे

श्रेष्ठ साधक बन जाऊँ, पूर्ण करूँ कुछ तो पसार दे।


पवन कुमार,
10 मई, 2015 समय 16:16 अपराह्न 
(मेरी डायरी 10 मार्च, 2013 सायं 6 बजे से )  

Sunday, 3 May 2015

विशाल-गोचर

विशाल-गोचर 


आरंभ उस विशालता के संग, जो सब ओर हैं व्यापत

ज्ञान-चक्षु खुलें, दर्शन-इच्छा, तथापि क्यों हैं कंगाल?

 

मन जुझारू, कलम हस्त में, ज्ञानेन्द्रियाँ साथ हैं दे रही

इतना सब यहाँ पर छितरित, बस एक नज़र उठानी।

अनेक आश्चर्य करें मन-चकित, छिपी है अति-गहनता

भाँति-२ प्रकृति कृत्य, जिनको मुश्किल है समझना॥

 

फिर भी कलम मद्धम चलती, कारण नज़र नहीं आता

या तो कोई तैयारी नहीं है, या फिर मन की विरामता।

तन्द्रा-समय तो नहीं यह, फिर दूर-दृष्टि क्यों नहीं जाती

जिज्ञासा-संबल लेकर क्यों न कुछ अनुपम कर जाती॥

 

विस्तृत करो सोच का जरिया, कर लो कुछ मूल ग्रहण

बुनो अपने लेखन का रेशम, धागों से मन के ही महीन।

पर बनो सार्थक, दिशा उचित और उसमें चलते जाओ

सीखो देखना-अनुभव, कुछ शब्दांकित अंकित करो॥

 

समय अति मूल्यवान है, तुम उचित में बढ़ा लो कदम

न अनावश्यक पुनरावृत्ति, सज्ज हेतु हो वाँछित समय।

निकलो इस अपक्वता से, कुछ पंक्तियाँ तो सार्थक बना

यही तो शुभारम्भ चरण, असली लेखन -आगे करना॥

 

आरम्भ किया है विस्तृतता से, जो हर ओर विद्यमान

कुछ विशाल शब्द-प्रयोग वाँछित, हेतु क्षण-सम्मान।

वसुंधरा है हमारी पवित्र माँ, और उसकी हम सन्तान

विशाल पटल है इसका, जिस पर होते कृत्य महान॥

 

बहु-उपकरण हमने प्रयोगे, आकाश का अज्ञात छोर

चलते जाओ, देखे जाओ, अनन्तता भरी है चहुँ ओर।

मात्र कुछ धारणाऐं हैं बनाई, कुछ सत्य तो ही निश्चित

पर अति-रहस्यमय, क्षुद्र बुद्धि ज्ञात करने में अक्षम॥

 

सूर्य है विशाल यहाँ, उसकी ऊर्जा से हमारा प्रादुर्भाव

वरन यहाँ न होते, न लेखनी, सच में वह पिता विशाल।

उसकी गति-ऊष्मा से ही, सर्व- जीवन धरा पर संभव

दिन-रात, गर्मी-सर्दी, मौसम, वसंत-वर्षा सब निर्भर॥

 

चन्द्रमा है हमारा मामा, चले है पृथ्वी के निकट-गिर्द

नित सुख-दुःख में भागी, दोनों की तो जुड़ी किस्मत।

एक समय ही जन्म हुआ, प्रेम बहुत करता भगिनी से

रात्रि-शीतल, चाँदनी देता, सौंदर्य अनुपम अपने से॥

 

सागर है बहुत विस्तृत, जिसके जल से हम प्यास बुझाते

इसके जल-वाष्प विचरण कर, धरा के हर भाग में जाते।

प्रत्येक पादप-प्राणी हेतु, भोजन-पानी का प्रबंध है करता

कदापि न आता गर्व में, निम्न रहकर भी कल्याण करता॥

 

पवन चले, श्वास मिला, सब जीवों में जीवन हुआ स्पन्दन

सड़ जाते वरन एक स्थल पर, इसकी कृपा से हैं स्वच्छ।

निरंतर बदलता वायु-मिश्रणों को, और है विकास प्रणेता

उपवनों की निर्मल हवा, सघन आबादी की जीवन-रेखा॥

 

जल से ही जीवन, इससे उपजे, हाँ स्थलचारी कुछ बिसरें

इस बिन हम संभव नहीं, तृषा स्वच्छ अम्बु से ही है बुझे।

अनेकानेक जीवों ने सब प्रकार से, उपयोग करने हैं सीखे

जीवन के हरेक आयाम में यह महत्त्वपूर्ण व सर्वोपरि है॥

 

अग्नि कहूँ या ऊष्मा-जनक, इसके बिन हम हैं निष्क्रिय

समस्त बाह्य-आन्तरिक क्रियाऐं, तो है ऊर्जा-संचालित।

जो कुछ हम ग्रहण करते, उनका विघटन आवश्यक है

हर जीवन में यह समाहित और प्रकाश का द्योतक है॥

 

भोजन प्रथम जीवन-जरूरत, इससे ही हम ऊर्जावान

बनाता सबल यह हमें सदा, विभिन्न रूप लेता परवान।

पोषण समस्त प्राणी-जन का, न हो सकते हम उऋण

हालाँकि प्रकृति इसे भी बनाती, हमारे लिए है अमृत॥

 

पर्वत हमारे उच्च खड़े हैं, लेकर अनंत जीवन-विस्तार

वनस्पति वहाँ, जीव-जन्तु कन्दराओं में पाते हैं विश्राम।

बन प्रहरी रक्षा करते, वर्षा-मेघों को आगे जाने ना देते

निज ऊपर हिम आवरण पहन, नदियों को जीवन देते॥

 

नदियाँ हमारी माताऐं, स्वच्छ जल से सब पोषण करती

सबमें जीवन पूरा भरती, जल-शीतल से प्यास बुझाती।

कृषक जन जोतते भूमि, इनका जल है सिंचाई-उपलब्ध

अति पवित्रता इनमें पूरित, शाश्वत का नर है आराधक॥

 

तारा-गण चहुँ ओर फैले, घन-विशालता आभास कराते

हम खुली रातों में तारें गिनते, पर फिर भी छोर न पाते।

दूरी अति व दृष्टि धूमिल हमारी, किञ्चित को ही देख पाते

सप्तर्षि ध्रुव तारे के संग, दिशाओं का कुछ पता लगाते॥

 

वृक्ष हमारे अभिन्न मित्र हैं, जो सबके लिए भोजन बनाते

साक्षात शिव इस धरा पर, अमृत दे कटु गरल पी जाते।

स्वच्छ वायु-छाया, फल-फूल देते व जीवन संभव बनाते

हम सदा ऋणी, अधिकाधिक रोपण-आवश्यकता पाते॥

 

प्राणी जगत जल-थल-वायु में विस्तृत, संख्या में अगणित

वे अनेक रूपों में विकसित, परस्पर से गहनरूप युजित।

सर्वत्र व्याप्त, बहु ढ़ंग व्यवहार, आदान-प्रदान से विकास

नित ढ़ालते परिस्थिति अनुसार, प्रकृति में सहज आभास॥

 

दूरी एक विशाल शब्द है, प्रथमतः यह पृथकता दर्शाता

ब्रह्मांड-विस्तृत अनंत-दूरियों में, अति-कठिन निपटाना।

बनाए हमने कुछ उपकरण, गणना हेतु यथाशीघ्र उचित

इकाई प्रकाश वर्ष तक, पर मानव गति अतीव है मद्धम॥

 

प्रकृति है हम सब की माता, समस्त चराचर क्षेत्र उसका

सब जड़-चेतन अवयव हैं, जिनको भिन्न रूपों में सँवारा।

अति महीन है उसकी कार्य-शैली, वह महानतम शिक्षक

यदि नेत्र खुले हों तो उसके दर्शन-रहस्य चहुँ ओर प्रखर॥

 

दिवस-रैन हमारे संग बँधे, जीवन को प्रदान बहु रंग-ढ़ंग

दिन में हम क्रियाशील हैं, रात्रि -आगोश में विश्राम तरंग।

दिवस है ऊर्जा का द्योतक, भास्कर तात दत्त उसकी शक्ति

अँधियारी निशा चन्द्र-तारों संग, अनुपम शांति-विचार देती॥

 

धूप-छाया का खेल है अद्भुत, जो प्रकाश-पुँज संग चलता

छितरते विभिन्न आयाम, अपने समय पर रमणीय लगता।

होते दुःख-सुख के पर्याय, जीवन के प्रत्येक क्षण में मिलते

वे प्रकृति-रंग हैं विचित्र, विभिन्न मात्राओं में अलग विचरते॥

 

जीवन-मरण प्रकृति का खेल, पुरातन नवीन किया जाता

छोड़कर सब झंझट जगत के, एकरूपता में मिला जाता।

बनना-मिटना है एक नैसर्गिक-क्रिया, जो अतीव है सुघड़

हम लघु सुखी-दुःखी-विस्मित, उसके लिए है स्वाभाविक॥

 

सुख-दुःख मन-भाव जो है, विकसित प्राणियों की प्रवृत्ति

कुछ मिल गया तो प्रसन्न, वरन तो निष्भाव या खिन्न ही।

सब कुछ घटित होता रहता, बहु-नियमों की परवाह नहीं

एक स्थिति जो बहुत क्षणिक है, बदलाव जल्द संभव ही॥

 

आरोह-अवरोह प्राण-द्योतक, हम विकसित-लघुकृत होते

कभी तो अति-उन्नति है, फिर समय-चक्र में पीछे हो जाते।

प्रयास करने से सर्वदा ताकत मिलती, अच्छा मार्ग है समक्ष

विभिन्न कारण प्रभावित करते, परिणाम उनके हैं अनुरूप॥

 

सुघड़ता-फूहड़ता यूँ जीवन-शैली, हम स्वयं ही रचनाकार

अगर कहें चेतन-अवस्था में, सोचकर कर्म को भली प्रकार।

फिर तंद्रा-प्रमाद को त्याजना ही, हमें विकासोन्मुखी बनाता

प्रश्न तो स्व से ही बहुत, यह सामान्य मन समझ न है पाता॥

 

अनेक हैं गूढ़ रहस्य-अध्याय यहाँ, सूक्ष्मता अतीव-व्यापत

विचार करते जाऐं, आते जाऐंगे, मस्तिष्क तो बहुत वृहद।

सीमित न हमारा मृदुल जीवन, आओ इसका सम्मान करें

यह एक सत्य साथी कल्याणक, अतः उचित निर्वाह करें॥



पवन कुमार,
3 मई, 2015 समय 15:10 अपराह्न
( मेरी डायरी 3 जून, 2014 समय 9:50 प्रातः से )