कैसे समझे
कार्यशैली, यह जग अपनी प्रकृति से चलता
सब पात्र
यूँ मात्र बदलते रहते, नवीन पुरातन हो जाता॥
आशा थी कि यह नव-शिशु लाएगा,
नव-संभावनाऐं कुछ
वह तो तनु-निर्मल,
पावन-जिज्ञासु, ग्रहण करेगा ही शुभ।
नवप्राणन, उच्च-शुभ
परिवर्तन, हर कोई जीवन में चाहता
जीव का विकासवाद,
नव-पीढ़ियों में है नूतन-गुण भरता॥
दुर्लभ प्राण हर पीढ़ी का,
आया बनकर सफल प्रतियोगी
कितने जीव नष्ट हो जाते,
माता के गर्भ-धारण समय ही।
सक्षम को मिलता सौभाग्य,
रहेगा माँ संग गर्भ-काल तक
सुरक्षा कवच में विकास करता,
अमुक रूप में निर्गमित॥
वह प्रतिबिंब अभिभावकों का,
होता शुक्राणु-अंड संयोग
माता-पिता के वंशाणु,
प्रतिस्थापित हो करेंगे तब उद्योग।
कहीं तात कहीं मात के गुण
दर्शित, पर आधे-आधे होता
अभिभावक ही रचना करते
स्वरूप, भ्रूण विकसित होता॥
बनते माता-पिता के भोजन-जल
से, उनके गुण करें ग्रहण
माता-गर्भ सुपरिवेश,
शिल्प-शाला, जहाँ निर्मित होते सब।
निर्माण प्रक्रिया पर एक
पूर्ण नज़र, व मूर्त विकसित होती
बाहर प्रेषित है जग में
श्वास लेने, जीवन हो सुफल भुक्ति॥
माना कि माता-गर्भ में,
किंचित होती विसंगतियाँ यदा-कदा
व्याधि या कुपोषण से, कभी
भ्रूण असमय मृत्यु-ग्रास होता।
कुछ सामाजिक रूढ़ियाँ भी,
भ्रूण-हत्या बढ़ावा दे अनुचित
कल्याणक विज्ञान-तकनीकों से,
लुब्ध स्वार्थी करते अहित॥
कुछ शिशु गर्भ में ही वधित,
अवाँछनीय गिरा दिए हैं जाते
नित्य गर्भ-निरोधक उपाय,
बहु-संभावित जीव हटाए जाते।
कदाचित यह उचित भी, वसुधा पर
जनसंख्या हेतु नियंत्रण
कुछ युवा सुख-उपायों से,
भ्रूण-भार से चाहें मुक्ति-जरूर॥
शायद मानव ने ही प्रजनन को,
युवा-सुख से किया पृथक
प्रकृति में अन्य जीव,
नव-जीवन हेतु ही इसे करते प्रयोग।
न होते ह्रास नित्य-वासनाओं
में, रक्षा वीर्य-ऊर्जा की करते
यह सब हेतु स्थान, अतिरिक्त
संख्या-निर्धारित आदतों से॥
प्रकृति-लब्ध मनुज को, सदा
युवा-सुख लेने की स्वतंत्रता
दुर्भाग्य, किंचित सुख क्षण
हेतु वह अपने को है खपाता।
माना ये क्षण सदा, नव-जीवन
संभावनाओं से पूरित होते
कुछ अन्वेषित उपायों से,
जन्म-संख्या नियंत्रित हैं करते॥
निश्चित ही हम नव-जीवन रोधक,
बहु-संभावना रोक देते
शायद भरने को उनमें अनुपम
गुण, होंगे हमारे ही जैसे।
भाग्यशाली ही लेते जन्म
यहाँ, किञ्चित बड़ा उत्सव होता
कुछ को अनमने से स्वीकारते
हैं, जीवन-वृद्धि यत्न होता॥
वह नवजीवन आ गया है तो, क्या
उससे हम आशा करते
अभिभावक तो किंचित उनको
सर्वशक्तिमान- बुद्धिमान,
समस्त कर्म- सार्थक व निपुण
बनाने की कोशिश करते।
यहाँ माता-पिता चाहे जैसे भी
हों, संतान हेतु सुयत्न करते
शिक्षित-सबल, धनी,
विवेकशील-सुयश कामना हैं करते॥
सबका प्रयास आदर्श समाज,
यद्यपि वयस्क स्व-कर्म हीन
पर संतान हेतु उत्तम ही
सोचता, करेगा कुछ अच्छा महीन।
पर यह तो आकांक्षा ही है,
बाह्य वातावरण भी अति-विस्तृत
घर-बाहर के सब अनुभव, घन छाप
छोड़ते नव-शिशु पर॥
कैसे हो पूर्ण-विकास, जब
अभिभावक व बाह्य-परिवेश क्षुद्र
उनकी माना शिशु मंगल-कामना,
पर न सुधार स्व-आचरण।
वही व्यवहार शनै शिशु में
प्रवेश होता, गहन प्रभाव है जमाता
उसकी प्रकृति भी बनती
पूर्वों जैसी, जिनसे अधिक न आशा॥
फिर क्यों शिशु दोषी, जब
नहीं वयस्क-जग नियमन सुधार
बड़ा हो दोष-कदाचार लिप्त,
अमर्यादित हो करे बलात्कार।
क्या नहीं सबका कर्त्तव्य,
बनाना परिवेश तब एक सुगुणालय
फिर उन सबमें भी उत्तम
निकलेंगे, अंकुश अवाँछितों पर॥
जैसे हम हैं शिशु बनाते,
क्यूँ न आदर्श-परिवेश में निवेश
जिसमें वयस्क
संहिता-प्रतिबद्ध, और निर्मल सोच वर्धन।
हम क्यों मौका ही दें, उस
बालक को बनने को अपराधी?
बहुत कुछ यहाँ वयस्क-समाज
देन, वह बस है सहभागी॥
कुछ तो अन्वेषण चाहता, क्यों
अपराध-प्रवृत्ति चारों ओर
क्यूँ कुचेष्टा मनन करता है,
एक बालक बनते-२ किशोर?
दिन-प्रतिदिन देखते-सुनते,
कई बलात्कार- हत्या मामले
बहुदा घृणा होती है मानव की
अधम-गति और सोच से॥
क्यों बस दुर्बल-दमित पर,
पूर्णाधिकार की ही नर-प्रवृति
जबकि ज्ञात है, वे सब भी
हाड़-माँस के पुर्जे एवं सुकृति।
क्यों समझते हैं जो हम चाहें
वही हो, व हमारी मानें सब
जब अपने से बलवान समक्ष, तो
सबकी जाती नानी मर॥
असभ्य-पाश्विक शैली हैं,
क्या यही अनुपम मानव-कृति?
कहाँ गई है सोच उनकी, स्वयं
को उच्च समझना प्रवृत्ति।
बड़प्पन असंभव कुत्सित सोच
से कि, अन्य तुमसे हैं निम्न
अधिकार ही उनकी बुद्धि-देह,
धन-सोच, साधन-श्रम पर॥
बड़ा वो है जो बड़े कर्म
करे, जन्म से कोई न होता महद
महाभारत के यक्ष-प्रश्न शायद
नहीं सुने, निर्वाह में असल।
भ्रांत-अंध, मूर्ख-दृष्टि,
अज्ञान-वाहक स्व को कहते सबल
न ज्ञान विज्ञान-दर्शन का
कोई, न ही विवेक-सुव्यवहार॥
क्यों न समाज धिक्कारता
उनको, क्यूँ समूह पक्ष में आते
क्यूँकि अपना, सब अनुचित
भुला, लठ ले खड़े हो जाते।
कितनी पीड़ा होती मन में,
सोचा है पीड़ित-समूह में भी
क्यों न खड़े हों वे भी
स्वाभिमानी, मरने-मारने तब सीधी?
अति सहन करते ये त्रस्त जन
तो, किंतु कदापि मूर्ख नहीं
बेहतर नागरिक सम रहना चाहते,
अत्याचार न है नियति।
एक सोच उन्नत सबके हितार्थ
हो, जरूरी है देश-विकास
वरन रह जाएगा असभ्य-अंध, अधम
एवं संस्कृति-नष्टक॥
23 मई, 2015 समय 15:00 अपराह्न
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