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Sunday, 17 May 2015

उद्गम-उद्भव

उद्गम-उद्भव


भाव-समग्र, उच्च मन-विचार, होवे प्रखर मानुष-आत्मबोध

समृद्ध स्व-जिजीवाषा जीवन की, पारितोषिक में हो प्रमोद॥

 

कानन-पिक की मधुर कुहुँ-२ से, सबका मन होता पुलकित

मयूर-नृत्य प्रिया आकर्षण को, उल्लास जगाए बन प्रमुदित।

देख शुक का अप्रतिम हरित सौंदर्य, व चित्तचोर बोली टें-टें

प्रकृतिमय उर-मन हो जाता, माँ गऊ देख वत्स की मैं-मैं॥

 

धरा आगोशित विपुल आकाश से, जैसे कक्ष में एक गुब्बारा

है अनुपम नीलिमा महा-छतरी की, मानो रक्षा-कवच प्यारा।

भास्कर, चन्द्र, ग्रह, उपग्रह, राशियाँ अनन्त दूर तक छितरित

हम बैठे दूरस्थ, मतिमंद, प्राकृतिक आश्चर्यों से अति चकित॥

 

नित्य नूतन प्रकृति का उद्भव है, सजीव बनाती मन-उत्कण्ठा

मन उबासी न रहे, महद से सम्पर्क, प्राप्त ज्ञान हो पराकाष्ठा।

हर नव दिन पूर्व से किञ्चित भिन्न, चन्द्र अपनी कला है सजाता

पल-२ अपने ही ढ़ंग का होता, मन भी हर क्षण भाव रचाता॥

 

मौसम बदलते ही रहते है, बाहर निकलते जलवायु परिवर्तन

स्थिति-प्रतिस्थापन भिन्न रूप, नव-पल्लव पुरातन का दर्पण।

जीव-२ में स्थूल-सूक्ष्म विविधता, हर पादप के पृथक किसलय

पादप-जीव विज्ञान अति सम्पन्न, खींचे अनायास करे मधुमय॥

 

प्रकृति प्रदत्त विविधता रहस्य, मनीषियों का है चिंतन-विषय

जितना मनन उतनी गहराई, वैज्ञानिक खोजे ब्रह्मांड-रहस्य।

कितने जीवंत पृथ्वी से और विश्व संभव, ज्ञान भी कैसे निर्मित

अतीत महा-धमाके से अद्यतन -यात्रा, यूँ इतनी न परिचित॥

 

स्तर-उच्च व दृष्टि दूरस्थ है, मस्तिष्क कक्ष प्रयोग बहुलता से

सरस रचना अति-मनभावन, जब सम्पर्क जग-विपुलता से।

उच्च शैल के शृंग पर गमन प्रवृत्ति, सदा जीवधारियों में रही

ऊँची देहली, उच्च-अट्टालिका, गगन चूमना अभिलाषा रही॥

 

उच्च मनोदशा है उन्नयन प्रतीक, ज्ञान-रन्ध्र खुले हुआ सम्पर्क

स्व-लघुता का महद में परिवर्तन, कायान्तरण है न कोई दर्प।

ब्रह्म को जो नर मनन कर सकता, परिधि नहीं बंधन करने की

कृत्रिम उद्भव तो अल्प-स्थायी ही, ज्ञान चेष्टा ही मुक्त करेगी॥

 

स्नेही, समभाव, एकीकार, विशालोर विश्व-रूप बनने में सक्षम

अपूर्वाग्रही, सर्व-हित विचारक, अविराम, चिंतक है श्रेणी प्रथम।

प्रतिमान वह समग्रता-भाव का, सकल जग उसमें सकता समा

हर जीव हेतु मृदुल भाव, समरेखी, कुंकुम सी शीतलता बरसा॥

 

प्रश्न महद है स्व निखरण का, अद्वितीय भाव विमल मन-तन

स्तुति-अभिलाषा न अधिक रूचि, बस परिष्कार हेतु ही यत्न।

अपने स्तर का हो एक ऊर्ध्व उत्थान, महद प्रयत्न, शक्ति-पुञ्ज

क्षीणक-बाधक-निन्दक को छोड़े, शांति-गृह बने हृदय-कुञ्ज॥

 

एक चरम-अवस्था समाधि जीवित, उच्च प्रवृत्ति जीवन लक्ष्य

बिंदु चक्षु मनोहर, दीनदयाल, अधमता त्याग व पुण्य-भक्ष्य।

मानव जीवन पावनता का उद्घोषक, संसृति है सबकी साँझी

त्रिवेणी-संगम पर मिले जन-समूह, कृषक-ज्ञानी और माँझी॥

 

तारणहार, उत्प्रेरक, मृदुल-भाव धर्ता, विकासोन्मुखी निर्मोही

वह विकसित सब विधा में अनुपम, विजित प्रयत्न से अद्रोही।

संचित सब ऊर्जा करता है, पर बाँट समर्थ सब शरणार्थी को

सब कुछ समर्पित है समग्रता हेतु, तन-मन-धन कृतार्थी को॥

 

विकसित मन उच्च-दशा प्रवेश, समुचित व्यवहार सबके संग

सबको स्वीकृत प्रतिभा-प्रतिबद्धता, न हो अनावश्यक तरकस।

परम सत्य इतना भी न सरल-सहज, समस्त अवरोध होना पार

दुत्कार समय की सबकी रग भाँजती, परीक्षा करती उपकार॥

 

अति महत्वाकांक्षा उच्च- परिणाम, स्नेहिल हृदय विश्व-कल्याण

जो लिया पुनः यहीं किया समर्पित, भाव पवित्र है परम ध्यान।

दिग्विजय सी सब कुचेष्टाओं पर, जितेंद्रिय भाव मन-देह उद्भव

तज शिथिलता ओ बुद्ध, विषाद पार जा, विप्लव लाँघ पा उद्गम॥



पवन कुमार,
17 मई, 2015 समय 17:23 अपराह्न
(मेरी डायरी 15 मई, 2015 समय 8:25 प्रातः से )   

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