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Sunday, 3 May 2015

विशाल-गोचर

विशाल-गोचर 


आरंभ उस विशालता के संग, जो सब ओर हैं व्यापत

ज्ञान-चक्षु खुलें, दर्शन-इच्छा, तथापि क्यों हैं कंगाल?

 

मन जुझारू, कलम हस्त में, ज्ञानेन्द्रियाँ साथ हैं दे रही

इतना सब यहाँ पर छितरित, बस एक नज़र उठानी।

अनेक आश्चर्य करें मन-चकित, छिपी है अति-गहनता

भाँति-२ प्रकृति कृत्य, जिनको मुश्किल है समझना॥

 

फिर भी कलम मद्धम चलती, कारण नज़र नहीं आता

या तो कोई तैयारी नहीं है, या फिर मन की विरामता।

तन्द्रा-समय तो नहीं यह, फिर दूर-दृष्टि क्यों नहीं जाती

जिज्ञासा-संबल लेकर क्यों न कुछ अनुपम कर जाती॥

 

विस्तृत करो सोच का जरिया, कर लो कुछ मूल ग्रहण

बुनो अपने लेखन का रेशम, धागों से मन के ही महीन।

पर बनो सार्थक, दिशा उचित और उसमें चलते जाओ

सीखो देखना-अनुभव, कुछ शब्दांकित अंकित करो॥

 

समय अति मूल्यवान है, तुम उचित में बढ़ा लो कदम

न अनावश्यक पुनरावृत्ति, सज्ज हेतु हो वाँछित समय।

निकलो इस अपक्वता से, कुछ पंक्तियाँ तो सार्थक बना

यही तो शुभारम्भ चरण, असली लेखन -आगे करना॥

 

आरम्भ किया है विस्तृतता से, जो हर ओर विद्यमान

कुछ विशाल शब्द-प्रयोग वाँछित, हेतु क्षण-सम्मान।

वसुंधरा है हमारी पवित्र माँ, और उसकी हम सन्तान

विशाल पटल है इसका, जिस पर होते कृत्य महान॥

 

बहु-उपकरण हमने प्रयोगे, आकाश का अज्ञात छोर

चलते जाओ, देखे जाओ, अनन्तता भरी है चहुँ ओर।

मात्र कुछ धारणाऐं हैं बनाई, कुछ सत्य तो ही निश्चित

पर अति-रहस्यमय, क्षुद्र बुद्धि ज्ञात करने में अक्षम॥

 

सूर्य है विशाल यहाँ, उसकी ऊर्जा से हमारा प्रादुर्भाव

वरन यहाँ न होते, न लेखनी, सच में वह पिता विशाल।

उसकी गति-ऊष्मा से ही, सर्व- जीवन धरा पर संभव

दिन-रात, गर्मी-सर्दी, मौसम, वसंत-वर्षा सब निर्भर॥

 

चन्द्रमा है हमारा मामा, चले है पृथ्वी के निकट-गिर्द

नित सुख-दुःख में भागी, दोनों की तो जुड़ी किस्मत।

एक समय ही जन्म हुआ, प्रेम बहुत करता भगिनी से

रात्रि-शीतल, चाँदनी देता, सौंदर्य अनुपम अपने से॥

 

सागर है बहुत विस्तृत, जिसके जल से हम प्यास बुझाते

इसके जल-वाष्प विचरण कर, धरा के हर भाग में जाते।

प्रत्येक पादप-प्राणी हेतु, भोजन-पानी का प्रबंध है करता

कदापि न आता गर्व में, निम्न रहकर भी कल्याण करता॥

 

पवन चले, श्वास मिला, सब जीवों में जीवन हुआ स्पन्दन

सड़ जाते वरन एक स्थल पर, इसकी कृपा से हैं स्वच्छ।

निरंतर बदलता वायु-मिश्रणों को, और है विकास प्रणेता

उपवनों की निर्मल हवा, सघन आबादी की जीवन-रेखा॥

 

जल से ही जीवन, इससे उपजे, हाँ स्थलचारी कुछ बिसरें

इस बिन हम संभव नहीं, तृषा स्वच्छ अम्बु से ही है बुझे।

अनेकानेक जीवों ने सब प्रकार से, उपयोग करने हैं सीखे

जीवन के हरेक आयाम में यह महत्त्वपूर्ण व सर्वोपरि है॥

 

अग्नि कहूँ या ऊष्मा-जनक, इसके बिन हम हैं निष्क्रिय

समस्त बाह्य-आन्तरिक क्रियाऐं, तो है ऊर्जा-संचालित।

जो कुछ हम ग्रहण करते, उनका विघटन आवश्यक है

हर जीवन में यह समाहित और प्रकाश का द्योतक है॥

 

भोजन प्रथम जीवन-जरूरत, इससे ही हम ऊर्जावान

बनाता सबल यह हमें सदा, विभिन्न रूप लेता परवान।

पोषण समस्त प्राणी-जन का, न हो सकते हम उऋण

हालाँकि प्रकृति इसे भी बनाती, हमारे लिए है अमृत॥

 

पर्वत हमारे उच्च खड़े हैं, लेकर अनंत जीवन-विस्तार

वनस्पति वहाँ, जीव-जन्तु कन्दराओं में पाते हैं विश्राम।

बन प्रहरी रक्षा करते, वर्षा-मेघों को आगे जाने ना देते

निज ऊपर हिम आवरण पहन, नदियों को जीवन देते॥

 

नदियाँ हमारी माताऐं, स्वच्छ जल से सब पोषण करती

सबमें जीवन पूरा भरती, जल-शीतल से प्यास बुझाती।

कृषक जन जोतते भूमि, इनका जल है सिंचाई-उपलब्ध

अति पवित्रता इनमें पूरित, शाश्वत का नर है आराधक॥

 

तारा-गण चहुँ ओर फैले, घन-विशालता आभास कराते

हम खुली रातों में तारें गिनते, पर फिर भी छोर न पाते।

दूरी अति व दृष्टि धूमिल हमारी, किञ्चित को ही देख पाते

सप्तर्षि ध्रुव तारे के संग, दिशाओं का कुछ पता लगाते॥

 

वृक्ष हमारे अभिन्न मित्र हैं, जो सबके लिए भोजन बनाते

साक्षात शिव इस धरा पर, अमृत दे कटु गरल पी जाते।

स्वच्छ वायु-छाया, फल-फूल देते व जीवन संभव बनाते

हम सदा ऋणी, अधिकाधिक रोपण-आवश्यकता पाते॥

 

प्राणी जगत जल-थल-वायु में विस्तृत, संख्या में अगणित

वे अनेक रूपों में विकसित, परस्पर से गहनरूप युजित।

सर्वत्र व्याप्त, बहु ढ़ंग व्यवहार, आदान-प्रदान से विकास

नित ढ़ालते परिस्थिति अनुसार, प्रकृति में सहज आभास॥

 

दूरी एक विशाल शब्द है, प्रथमतः यह पृथकता दर्शाता

ब्रह्मांड-विस्तृत अनंत-दूरियों में, अति-कठिन निपटाना।

बनाए हमने कुछ उपकरण, गणना हेतु यथाशीघ्र उचित

इकाई प्रकाश वर्ष तक, पर मानव गति अतीव है मद्धम॥

 

प्रकृति है हम सब की माता, समस्त चराचर क्षेत्र उसका

सब जड़-चेतन अवयव हैं, जिनको भिन्न रूपों में सँवारा।

अति महीन है उसकी कार्य-शैली, वह महानतम शिक्षक

यदि नेत्र खुले हों तो उसके दर्शन-रहस्य चहुँ ओर प्रखर॥

 

दिवस-रैन हमारे संग बँधे, जीवन को प्रदान बहु रंग-ढ़ंग

दिन में हम क्रियाशील हैं, रात्रि -आगोश में विश्राम तरंग।

दिवस है ऊर्जा का द्योतक, भास्कर तात दत्त उसकी शक्ति

अँधियारी निशा चन्द्र-तारों संग, अनुपम शांति-विचार देती॥

 

धूप-छाया का खेल है अद्भुत, जो प्रकाश-पुँज संग चलता

छितरते विभिन्न आयाम, अपने समय पर रमणीय लगता।

होते दुःख-सुख के पर्याय, जीवन के प्रत्येक क्षण में मिलते

वे प्रकृति-रंग हैं विचित्र, विभिन्न मात्राओं में अलग विचरते॥

 

जीवन-मरण प्रकृति का खेल, पुरातन नवीन किया जाता

छोड़कर सब झंझट जगत के, एकरूपता में मिला जाता।

बनना-मिटना है एक नैसर्गिक-क्रिया, जो अतीव है सुघड़

हम लघु सुखी-दुःखी-विस्मित, उसके लिए है स्वाभाविक॥

 

सुख-दुःख मन-भाव जो है, विकसित प्राणियों की प्रवृत्ति

कुछ मिल गया तो प्रसन्न, वरन तो निष्भाव या खिन्न ही।

सब कुछ घटित होता रहता, बहु-नियमों की परवाह नहीं

एक स्थिति जो बहुत क्षणिक है, बदलाव जल्द संभव ही॥

 

आरोह-अवरोह प्राण-द्योतक, हम विकसित-लघुकृत होते

कभी तो अति-उन्नति है, फिर समय-चक्र में पीछे हो जाते।

प्रयास करने से सर्वदा ताकत मिलती, अच्छा मार्ग है समक्ष

विभिन्न कारण प्रभावित करते, परिणाम उनके हैं अनुरूप॥

 

सुघड़ता-फूहड़ता यूँ जीवन-शैली, हम स्वयं ही रचनाकार

अगर कहें चेतन-अवस्था में, सोचकर कर्म को भली प्रकार।

फिर तंद्रा-प्रमाद को त्याजना ही, हमें विकासोन्मुखी बनाता

प्रश्न तो स्व से ही बहुत, यह सामान्य मन समझ न है पाता॥

 

अनेक हैं गूढ़ रहस्य-अध्याय यहाँ, सूक्ष्मता अतीव-व्यापत

विचार करते जाऐं, आते जाऐंगे, मस्तिष्क तो बहुत वृहद।

सीमित न हमारा मृदुल जीवन, आओ इसका सम्मान करें

यह एक सत्य साथी कल्याणक, अतः उचित निर्वाह करें॥



पवन कुमार,
3 मई, 2015 समय 15:10 अपराह्न
( मेरी डायरी 3 जून, 2014 समय 9:50 प्रातः से )

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