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Wednesday, 29 April 2015

प्रकृति-प्रकोप

प्रकृति-प्रकोप


जब प्रकृति ही हिंसक हो जाए, तो धरा निवासी कहाँ जाएँ

बहुत क्षण कष्ट-कारक हैं, मानव सोच न पाता क्या करें?

 

वृहद धरा, सर्वत्र जीवन-स्पंदित, पर खतरें अनेक विस्तृत

माने या चक्षु बंद कर लें, हर अग्रिम श्वास पर प्रश्न-चिन्ह है।

कुछ क्षणों में ही सब बदल जाता, माना जीवन था न कभी

अनेक जीवन-गृह-सम्पदा नष्ट, महद क्षति सहनी पड़ती॥

 

क्या कभी ध्यान से, नित घटित प्रकृति-प्रकोपों को है देखा

जब स्वयं पर आए तो ज्ञात, कितनी छुपी हुई है विद्रूपता।

जो माँ पोसती है, धराशायी भी करती, जीव में न युद्ध-बल

हाँ प्रबंधन से कुछ राहत लाभ, प्रकृति से झूझना सा वरन॥

 

अनेक प्राकृतिक आपदा-कहर, धरा-स्थल पर चलते रहते

आज यहाँ घटा तो कल वहाँ, यह चक्र विस्तृत सर्वत्र ही है।

मौत के चँगुल से तो न कोई बच पाया, शाश्वत खेल हैं विद्रूप

हाँ पूर्व से आशंका कम है, पर कई कारण जुड़े जीवन संग॥

 

भिन्न स्वरूप- भूकंप, सुनामी, तूफ़ान, ज्वालामुखी-दावानल

ओला-वृष्टि, ट्रेन-वायुयान-पोत दुर्घटना, सड़क-हादसें नित।

महामारी-व्याधि, अकाल-भूस्खलन, अति-वृष्टि, प्रकोप-बाढ़

फसल-तबाही, अर्धपके-फल पतित, दुर्भिक्ष व जल-अभाव॥

 

लहर में फँसना, समुद्री जहाज़ डूबना, वज्रपात, मेघ-फटना

विभीषण जलवायु, शैल सरकना, व वृक्ष-पर्वत से लुढ़कना।

संसाधन-अल्पता, जीव-स्पर्धा व खूनी युद्ध बर्ताव है आपस में

मंशा कि सारा जग हम ही घेर लें, और सब जाए भाड़ में॥

 

विकिरण कुप्रभाव, वायु-प्रदूषण, विषैला-धूम्र, व है मेघ-धूसर

आँधियाँ, चुँधियाती-जलाती गरमी, सब जीवन होता ही त्रस्त।

सबको सुविधा न उपलब्ध, बहुजन तो रहता खतरों में सदैव

पर कोई भी पूर्ण सुरक्षित न है, हर कदम पर खतरे अनेक॥

 

अनेक कारक सदा कार्यरत ही, नर को कुछ न अधिक ख़बर

पता भी तो रोधक कर में नहीं है, असहाय से देखते रहते बस।

बस घटित हानि को यथा-संभव कम करना, कर्म है बन जाता

आपसी-संवेदना, कष्ट-बाँटना, आत्मीयता ही बस में है होता॥

 

क्या है प्रकृति का खेल, शक्तिशाली, पूरी धरा डालती हिला

तबाही होती है बड़े पैमाने पर, प्रतिक्रिया-समय नहीं मिलता।

लोग बेसहारा से देखते रहते, समक्ष इतना कुछ जाता प्रकट

मन मसोस खून के घूँट पीते हैं, विद्रोह-ताकत बिलकुल न॥

 

हम क्षुद्र परस्पर लड़ते, क्रोध-मद में गुर्राते, इठलाते बल पर

रूप पर रीझते, संसाधन-गर्व, प्रतिभा-लोहा मनवाने का यत्न।

बड़े युद्ध, साथ मरने-जीने की कसमें, परंपरा की बात करते

बाँध बनाते, सुरक्षा-उपाय अपनाते, प्रकृति-विजय दंभ भरते॥

 

अनेक असहाय-क्षीण -भोले, अल्प तकनीक ज्ञान, साधनाभाव

बस आसपास सिर छिपाने का यत्न, क्या सर्वोत्तम हो न ज्ञात।

कुछ गारा-पत्थर-लकड़ी, घास-फूँस व अतएव नीड़ से बनाते

पर एक कड़ा हवा-झोंका आता, गिरा घोंसला धराशायी हुए॥

 

कल हिमालय में बड़े भूकंप (रिचटर ७.९) से नेपाल-भारत में हानि अति

दिल्ली तक झटके अनुभव हैं, नेपाल में २५०० से अधिक मृत्यु।

भारत में ५० तक जन स्वर्ग सिधारे हैं, यह तो अनुमान ही है बस

स्थिति धीरे स्पष्ट होगी, वास्तविक नुकसान का पता चलेगा तब॥

 

मध्य-नेपाल लामजंग भूकंप-केंद्र था, समय १२:१८ बजे दोपहर

भारत-भू भी धमकी बंगाल-सिक्किम-बिहार-उत्तर प्रदेश-दिल्ली-हरियाणा तक।

लोग घबराकर घरों से बाहर आ गए थे, स्पंदन पहचान थी सुस्पष्ट

मैं घर पर था शीनू-शम्पू संग, इस प्रकृति-झूले को किया अनुभव॥

 

विपुल ऊर्जा भूगर्भ से त्वरित निकलती, भारी वस्तुऐं विशेष हिलती

सख़्त-ऊँचे, अल्प-तनयता, भू-जुड़ाव, प्रभाग-योग से निश्चित क्षति।

पुरा काल से मानव विदित, कुछ रोधक विधियाँ आविष्कारित भी

अभी प्रयोग करना शुरू हो गऐं, एक विज्ञान है भूकंप-प्राद्यौगिकी॥

 

बहु-जनसंख्या, निम्न आर्थिक स्थिति है, नर निज ढ़ंग से घर बनाते

निर्माण-पदार्थ, अल्प-समृद्ध तकनीक, सब सुरक्षित नीड़ न पाते।

मंद-आर्थिक कारणों से लोग, कई असुरक्षित भवनों में ही रह लेते

विज्ञ-समृद्ध सुरक्षित निर्माण करते, यथा-संभव खतरें कम करते॥

 

समय संग नव निर्माण-सामग्री व अनुसंधान, प्रयोग भी होने लगा

खतरा कुछ स्तर तक कम हुआ, पर यह कुछ ही अंश-मानवता।

हर भवन को भूकंप-रोधी बनाना, सरकारों की नीति होनी चाहिए

लेवें जिम्मा संरचना-निर्माण का, ताकि सर्वजन सुरक्षित रह सके॥

 

प्राकृतिक-आपदा प्रबंधन से विभाग सतर्क हैं, जब भी हानि बड़ी

पर आम समय में भी दुर्घटना निवारण-उपाय हो, महत्त्वपूर्ण अति।

समय रहते विपत्ति- बचाव हेतु लोगों को, सरकारें करती हैं सजग

जीवन-दुर्लभ, बचाव अति-महत्त्वपूर्ण ही, नियम हैं बुद्धिपूर्ण कदम॥

 

अनेक क्षेत्रों में प्राकृतिक प्रकोप-विपदाऐं हैं, अन्यों से अधिक कहीं

वहाँ विशेष प्रबंध होने ही चाहिए, समय रहते रक्षा हो सके ताकि।

जान-माल हानि का रोध-कम करना, प्रकृति संग जीना-सीखना है

हम सब भी इसके तन्तु,  समस्त प्रकृति-क्रियाओं में सहभागी हैं॥

 

अनेक कारण संग में कार्य करते, मेल से ही है एक स्थिति विशेष

प्रकृति हेतु कुछ भी नया नहीं, यह उसका दिन-रात का है खेल।

मानव बहुत क्षुद्र है इस कड़ी में, किंतु दुष्प्रभाव में सहायक बहुत

उसकी कुछ आदतों का दंड सब भुगतते, उपाय सावधानी अतः॥

 

समूह समस्याओं में नित उलझते हैं, नई आपदाऐं बढ़ाती ही कष्ट

सामान्य प्रवाह टूट जाता है, रोने-पीटने में ही फिर बीतता समय।

कुछ शठ-लुब्ध ऐसे में भी लाभ चाहते हैं, चालाकी से लूट-खसोट

मानव मन कभी बड़ा निर्लज्ज है, चिता पर भी खाने का है प्रयोग॥

 

प्रकृति ज्ञान, अचाही-रोकथाम, ठीक-स्थान चयन, तकनीकी ज्ञान

श्रेष्ठ भवन-रचना विधि, प्रबलन तंत्र, सामग्री प्रयोग व ज्ञान प्रसार।

कष्टक-तथ्यों प्रति संवेदनशीलता हो, उपायों का प्रयोग वास्तविक

कुछ रोधन तो क्षति में अवश्यमेव करेगा, मूढ़ता से हानि वर्धित॥

 

माना कुछ ज्ञानार्जन व आपदा-प्रबंधन, अनेक विषय अंधकार में

अनेक सूचना-पूर्वानुमान प्रजा को अनुपलब्ध ही, विपदा हैं बढ़ाए।

बहु-प्रजाति स्थायी नष्ट होती हैं, जान-माल की तो क्षति अपूरणीय

यह प्रकृति-खेल अबाधित है, रोध असंभव, पर बचाव संभव कुछ॥

 

कालातीत बहुत रूप बदलें पृथ्वी के, जीव-अनुरूप है समायोजन

यहाँ पर जो भी जन्मता, कष्ट में मरता, रह-२ कर फिर लेता जन्म।

नर ने प्रकृति से कुछ सामंजस्य बनाया, तुम्हीं में मरूँगा, हूँगा पैदा

अज़ीब हठी यह मनुष्य प्राणी भी, कुदरत से ही आत्मसात हो गया॥

 

किंतु यह है लुक्का-छिपी का खेल भयावह, प्रकृति व जीवन का

पर मानव कुछ समय बाद, कटुतम अनुभव भी भूलने है लगता।

फिर जी-जुटता जोड़-तोड़ में, वास्तविक स्थिति समझता बखूबी

हम हारेंगे भी तुमसे ही विधाता, अपना क्या-यहीं का चून-पानी॥

 

अंततः तो इसी पञ्चतत्व में मिलना है, क्या दो दिन आगे या पीछे

जीवन एक शाश्वत खेल प्रकृति में, खाकर थपेड़ें जीना ही सीखें।

अपने से बली शत्रु से हार बुरा न लगती, परिणाम तो पूर्व-विदित

समय संग सब घाव भर जाते, पर गर्व-स्थिति में आ जाते फिर॥

 

यहाँ रहो प्रेम से, विद्वेष-घृणा-मत्सर-मद शक्ति तो ही ज्वलनक

हर वर्ष प्रलय आती किसी रूप में, नर शेष से करता पुनरारंभ।

फिर चेहरों पर मुस्कान-प्रयत्न भी है, जो चले गए न आऐंगे फिर

आप मरे जग-प्रलय', जब तक जीवन है बहु-सम्भावना तब तक॥

 

प्रकृति जीवन-संघर्ष देख फिर मुस्कुरा देती, पता क्या है घटित

आओ मिल एक समन्वय बनाऐं, सामर्थ्य व कुदरती शक्ति-मध्य

करो बचाव-प्रयास यथासंभव, रहें सब तैयार जब हो आवश्यक॥



पवन कुमार,
29 अप्रैल, 2015 सायं 6:56
(मेरी डायरी दि० 26 अप्रैल, 2015 समय 10:18 से)



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