सम्पदा-संग्रह
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मैं खिला-खिला व मन प्रमुदित, सुखद क्षणों का आनन्द ले रहा
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मैं खिला-खिला व मन प्रमुदित, सुखद क्षणों का आनन्द ले रहा
सुवासित चहुँ ओर का अन्तर, निर्मल मन को प्रेरित कर रहा।
वर्षा बन्द और सुबह खिली, सुन्दरता विसरित हर ओर
माना सूर्य मेघ-आवृत, परोक्ष प्रकाश से उज्ज्वलित भोर।
मन-आह्लाद ग्राह्यी बनाता, पर कितना प्रयोग इसका हो रहा
क्या इससे संभव कुछ सार्थक, इस इच्छा का प्रबल हुआ।
क्या कुछ चिंतन-मंथन होगा, इस जमे दुग्ध के घटक में
इसमें जो छुपा, प्रकट करना इन क्षणों की प्रतिबद्धता है।
जो कुछ हूँ उपलब्ध पल-अनुभव, कैसे इन्हें सम्मान तो दूँ
क्या मनन इनमें संभव, क्या स्मृति हो सकती है साक्षी ?
क्या इन क्षणों का पूरक, क्या बाहर निकल सकता है
कैसे बने अति लाभप्रद ये, और जीवन-स्पंदन ले ले ?
प्रथम जानूँ स्वरूप अपना, क्या कुछ बवाल छुपा हुआ
हर अणु का अनुभव, इस जीवन की आवश्यकता है।
क्या-2 विचार संभव है, कैसे उनमें हो सकता प्रवेश
मस्तिष्क क्यूँ न खोले द्वार, निज सम्पत्ति करे प्रस्तुत?
मैं किन विषयों में अधिक प्रतिबद्ध, जो प्रायः हैं इंगित
क्या पहचान इस लेखन की, किस द्वारा यह है प्रेरित?
क्यूँ फूट कर बारम्बार, एक भाँति मनन हुए संचारित
कैसे उनमें खोया रहता, वास्तविकता तो ही भ्रमित।
नहीं जानता क्या यहाँ घटित है, इसमें ही रहता लुप्त
कैसे बन सकता सार्थक, व कौन से बल हैं वाँछित ?
अपूर्णता अहसास माना जरूरी, अग्र गति वर्धन हेतु
कब तक यूँ अटके रहोगे, कुछ तो है कर जाने को ?
कोई मनन-अध्याय सोचूँ, देखूँ कितना संभव व्यक्त
परीक्षार्थी सम चाहे न ज्ञात, ऊल-जुलूल तो लिखित।
तथापि उद्वेलित करता, सदा विद्यार्थी बनाए रखता
स्व का बहिः निगमन, इतना आसान-सहज नहीं।
क्या विषय हों अध्ययन के, व उनकी सामग्री वाँछित
आवश्यक कुछ सीख लो, मस्तिष्क फिर बढ़ाए अग्र।
अपने पास न कुछ विशेष, और दूसरों से प्रेरणा न लब्ध
यह तो बहुत विकट स्थित, मद्धम विकास ही संभव।
करो उपलब्ध कुछ सार-अवलोकन, सीखों तथ्य उचित
आधारित सामग्री हो आदर्श, वही तो सच्चा है सम्बल।
व्यवस्थित रूचि, अनुशासित विद्यार्थी, तो कुछ विकास संभव
मर्यादित हो अगर प्रवृत्ति, समस्त गुणों की कुँजी है निकट।
बहुत लिखा हुआ समीप उपलब्ध, निश्चय ही विचार-प्रेरित
लाभ परम लिया जा सकता, वाँछित सार ढूँढा जा सकता।
तो क्यों न कोशिश, पुनः उन दिग्गजों के चरण-स्पर्श की
मानो कुछ तो होंगे अध्यवसायी व अच्छे शिक्षक बनेंगे।
करो निज सिद्धांत विकसित, उत्तम विवेक का डालो पुट
अपने को करो प्रतिस्थापित, बनाओ ठोस आधार एक।
हर तथ्य का मतलब समझो, अति दूरी वे ले जा सकते
संग्रह करो बिखरी सम्पदा, हर पल प्रभु विकसित करो।
उपलब्ध क्षणों को आगामी हेतु, आधार बना करूँ श्रम योग
हो सकता सम्भव मुक्ति पाना, तमाम झंझटों को समझना।
हो सकता है बुद्ध जैसा चिंतन, औ गुणवत्ता सुधारर कुछ
पा लो जीवन का दीपक, काल-कक्ष दीप्त करो समस्त।
पवन कुमार,
03 अप्रैल, 2015 समय 16:59 अपराह्न
03 अप्रैल, 2015 समय 16:59 अपराह्न
( मेरी डायरी दि ० 30 अगस्त, 2014 समय 10:05 प्रातः )
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