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Saturday, 18 April 2015

एक मुट्ठी आसमान

एक मुट्ठी आसमान 



एक मुट्ठी आसमान सबकी ख्वाहिश, जुड़ने असीमितता से

कोई वजूद निज का भी हो, कोई तो हो अपना कह सके॥

 

हर कोई लगा अपना दायरा बढ़ाने, माना चाहे सफल नहीं

जाने-अनजाने दूजों से जुड़ना चाहे, पर बहुदा अपनों से ही।

सम प्रकृति अलाभ पर एकाकी, अचाहा-कोलाहल असहन

फिर एक प्रखर सोच बन जाती, जो अन्यों से मेल खाती न॥

 

मिलना, बातें-गुफ्तगू-गप्पें, कहानी सुनना-सुनाना व मज़ाक

तर्क, स्व-पक्ष प्रस्तुति, मनवाना, रखना अन्य-मंशा भी ध्यान।

बहुत विविध प्राणी हैं जग में, कैसे उनसे हों सुसंवाद-संपर्क

अन्य सभ्यताओं से परिचय, विभिन्नों से भी करना मेलजोल॥

 

यह स्वार्थ-गर्व का त्याग है, करने बृहत्जगत से है साक्षात्कार

 जब हम कुछ छोड़ते हैं, बनता अन्य नवीन हेतु अंदर स्थान।

अन्य वह माना अनुचित भी, तो सकल सगुण न तुम्हारे पास

जैसे तुम हो वैसे अन्य भी, कुछ अच्छा और कुछ है ख़राब॥

 

कैसे दायरा वर्धन-संभव, जब स्वयं में ही हो अति संकुचित

माना प्रखरता विशेषज्ञ बनाती, सामान्य से तो बाह्य निकल।

जब सोचते अन्य श्रेष्ठ या भिन्न हैं, अपने को अकेला ही करते

बहुत बार समकक्ष न पाते, अतः निज परिधि सीमित रखते॥

 

पर आतंरिक ज्ञान क्यों न वृहद बनाता, अन्य भी हम जैसे

क्यों न लोगों के पास जाकर, पक्ष जानने की करें कोशिशें।

संभव है और भी पहुँचे हो, कुछ पारंगतता हासिल कर ली

या हों किञ्चित आत्मोन्नति-उद्धार मार्ग, श्रेष्ठ विधा ज्ञान की॥

 

हमारा अन्यों-भिन्नों से संपर्क ही, बढ़ाता है सोच का दायरा

और वृहद जीवन-मनुजता में, हमें पूर्ण-सम्मिलित कराता।

सर्व पक्ष समझ भ्रांतियाँ हैं तोड़ती, सामूहिक उचित में प्रवेश

ज्ञान-ज्योति पहुँच सर्वत्र, सुभग कि ज्ञान प्रसारण-परिवेश॥

 

यह खुलना-खिलना, सुवास-महक, लरज-मटक, चहकना

मुस्काना, प्रेमोन्मुक्त, मुदित-उन्माद, हँसना-खिलखिलाना।

भ्रमर सम निशा-कमल में शयन भी जरूरी, स्व-संपर्क हेतु

तथापि संपर्क, सांझी सोच-उन्नति, प्रबोध कराता बाह्य-सेतु॥

 

संयोग से ही आत्म-सत्यता ज्ञात, वरन हम रहते विभ्रम में

व्यर्थाभिमान से प्रगति असंभव ही, रखता सदैव संकुचन में।

सब विश्व-बदलाव संपर्क से हैं, आदान-प्रदान हमारी प्रकृति

मानव एक सामाजिक जीव', अति-पूर्व की है अरस्तु-उक्ति॥

 

यह एक मुट्ठी आसमान ही क्या है, मेरा स्व, सीमा-अधिकार

सब स्व-स्थापन ही चाहते हैं, सशक्तिकरण हो एक आधार।

मुझे तो मेरा चाँद चाहिए', मैं विश्वरूप, प्रकृति-पुत्र हूँ व्यापक

सकल मेरे ही, मैं सबका, सब मुझमें व मैं सबमें हूँ प्रदीपक॥

 

जब एक अंग पर ज़ोर देते हैं, निस्संदेह लेखा तो खिंचेगी ही

कुछ भाव प्रखर होंगे, हो सकता दूसरों की कीमत पर ही।

खास ज्ञान जरूरी प्रगति हेतु, पर सर्वांगीण विकास महत्तर

ध्यान हमारा सब ओर होना ही चाहिए, वृहदता हेतु संपर्क॥

 

आत्मा-परमात्मा या ब्रह्म-योग, है विराट मानव जीवन-लक्ष्य

जो पार लघु स्व से, हुऐं सार्वजनिक-सकल बेड़ियों से मुक्त।

उनके लिए है, एक मुट्ठी समस्त ब्रह्मांड या उससे भी बृहत्तर

और मात्र सिकुड़न में न रहते, उन्मुक्तता से जोड़ते जीवन॥



पवन कुमार, 
18 अप्रैल, 2015 समय 17:15 सायं
( मेरी डायरी दि० 12 मार्च, 2015 10:53 प्रातः से )

  

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